भारत की आज़ादी के पटल पर 1947 से पहले भी विभाजन की एक रेखा खींची गई थी। यह रेखा थी 1905 में लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल विभाजन की रेखा जो संवैधानिक सुधार के नाम पर खींची गई थी। इस कार्य से अप्रभावित कांग्रेस ने रानी विक्टोरिया से ‘होम रूल’ की मांग कर ली। इस मांग को गोपाल कृष्ण गोखले ने इंग्लैंड में मोर्ले से और शिमला में कुछ मुस्लिम नेताओं ने लॉर्ड मिंटो से अपने-अपने तरीके से रखा। इसके बाद इन दोनों महानुभावों ने भारत को आज़ादी देने के लिए उसके विभाजन की नींव का पत्थर के रूप में 1909 का अधिनियम पास कर दिया।
फूट डालो और राज करो की नीति क्यों लागू करनी पड़ी:
ब्रिटिश शासक सन 1857 की क्रान्ति के बाद यह समझ चुके थे, कि भारत के वीरों को सीधे मार्ग से न तो समझाया जा सकता है और न ही वे उनकी आज़ादी की मांग मानने की स्थिति में थे। अब अँग्रेजी शासक कोई ऐसा मार्ग तलाश रहे थे जिससे उन्हें भारत को आज़ादी देने का दंश अधिक न सहना पड़े। यह मार्ग मिला उन्हें भारत के दो मुख्य धर्म हिन्दू और मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को एक दूसरे के विरुद्ध करके और ऐसा उन्होनें उस अधिनियम के द्वारा किया जो 1909 में सुधारात्मक उपाय के रूप में किया था। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम को पास करने के कारण कुछ इस प्रकार के भी थे :
1892 के सुधार अधिनियम की पोल खुली:
ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय संविधान की जो दिखावे की परिपाटी 1773 में शुरू की गई थी, उसकी राजनैतिक पटल पर ब्रिटिश राज के दिखावे वाले 1892 के सुधार अधिनियम के रूप में पोल खुल चुकी थी। इस अधिनियम में सुधार के नाम पर जो हुआ वह एक अच्छा खासा नाटक सिद्ध हो चुका था। इस अधिनियम के द्वारा विधान मण्डल तो बना दिये गए लेकिन न तो इन्हें अधिकार देकर इनके हाथ मजबूत किए गए और न ही इसके सदस्यों को पूरक या अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार था। इसके साथ ही जिन लोगों को मनोनीत किया गया था उनके साथ धार्मिक पक्षपात बरता गया था।
अकाल का काल:
भारत 1896-97 बंबई में बारिश न होने के कारण समूचा भारत अकाल रूपी प्राकृतिक आपदा से जूझ रहा था। लेकिन ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियां अकाल पीढ़ित भारत की चोट पर मरहम नहीं बल्कि जख्म देने का काम कर रहीं थी।
लॉर्ड कर्ज़न की कठोर नीतियाँ:
लॉर्ड कर्ज़न की नीतियों ने इस ज्वलनशील स्थिति में आग में घी डालने का काम किया। उन्होनें कलकत्ता कॉर्पोरेशन को पूरी तरह से सरकार के अधीन करते हुए उसमें यूरोपियन सदस्यों को बहुमत दे दिया गया।
बंगाल विभाजन:
1904 में कुप्रसिद्ध बंगाल विभाजन हुआ जिसने भारतीय जनता की मानों कमर ही तोड़ दी थी।
विदेशी भूमि पर घटी घटनाओं का प्रभाव:
जहां दुनिया के नक्शे पर बने अबिसिनीया जैसे छोटे-छोटे देश स्वयं को इटली जैसे बड़े देश से आज़ाद करके आज़ादी की ज्वाला जगा रहे थे, वहीं दक्षिण अफ्रीका जैसी जगहों पर भारतीय नागरिकों का अपमान बढ़ता ही जा रहा था।
भारतीय प्रेस और कांग्रेस का उग्र रूप:
अँग्रेजी शासन की नींव हिलाने में भारत के कोने-कोने में खुले समाचार पत्र दुनिया के सामने ब्रिटिश शासकों का पर्दाफाश कर रहे थे। यही वह समय था जब 1905 में भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस ने होम रूल की मांग उठा ली थी।
इसके बाद ब्रिटिश सेना के आला अफसर वह मौका और तरीका ढूँढने लगे, जिससे भारत को आज़ादी तो मिले लेकिन उसका तरीका विक्टोरिया साम्राज्य के अफसर निर्धारित करें। वह मौका उन्हें मिल गया जब 1905 में रामकृष्ण गोखले अग्रेज़ी अफसर राज्य सचिव जॉन मार्ले से शिमला में मिले और 1906 में आगा खान ने लॉर्ड मिंटो से मुलाक़ात करके अपनी-अपनी तौर से केन्द्रीय विधान परिषद् में सुधारों का प्रस्ताव किया।
1909 के सुधार अधिनियम या फूट डालने का प्रयास:
ब्रिटिश सरकार द्वारा 1909 में पारित भारत परिषद् अधिनियम मार्ले-मिंटो सुधारों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इसका कारण है कि उस समय भारत में जॉन मार्ले भारत में ब्रिटिश सरकार के सचिव थे और लॉर्ड मिंटो वायसराय थे। इन तथाकथित सुधार लाने के लिए पास किए अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य थे:
1. भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता कि नींव को हिलाना;
2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा नित नए सुधारों की बढ़ती मांग को कुछ सुधारात्मक प्रयासों के द्वारा थोड़े समय के लिए रोक देना;
इसके लिए भारत परिषद् अधिनियम में जो व्यवस्थाएँ की गईं, वो इस प्रकार हैं:
1. केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषद् में चुने गए सदस्यों की संख्या को बढ़ाया गया और उसमें गैर सरकारी बहुमत की व्यवस्था की गई। लेकिन अभी इसमें बिना चुने गए सदस्यों की संख्या अधिक थी जो ब्रिटिश शासन की अप्रत्यक्ष नीति का हिस्सा थी।
2. फूट डालो और राज करो नीति की शुरुआत करते हुए मुस्लिम संप्रदाय को अलग से प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। यहीं से आरक्षण प्रथा का (कु)आरंभ हुआ था। इतना ही नहीं बल्कि मुस्लिम समाज के लोगों को केन्द्रीय और विधान परिषद् में जनसंख्या के आधार पर अधिक प्रतिनिधि भेजने का भी अधिकार दिया गया। मुस्लिम मतदाताओं को हिन्दू मतदाताओं की तुलना में आय की योग्यता भी कम रखी गई थी।
3. इस अधिनियम में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में करने का भी प्रावधान किया गया। इस रूप में सत्येन्द्र सिन्हा की सबसे पहली नियुक्ति मानी जाती है।
4. परिषद् के कार्यक्षेत्र का विस्तार करते हुए सदस्यों को बजट प्रस्ताव रखने और जनहित के प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया। लेकिन सेना, विदेशी संबंध और देशी रियायतों को प्रश्न पूछने के अधिकार से बाहर रखा गया था।
मार्ले-मिंटो सुधारात्मक प्रयास का वास्तविक चेहरा:
दरअसल मार्ले-मिंटो सुधारात्मक प्रयासों के पीछे ब्रिटिश सरकार की जो कूटनीति काम कर रही थी वो इस प्रकार है:
1. भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में लगे उदारवादियों को भ्रमित करते हुए राष्ट्रवादी दलों के बीच में फूट डालना;
2. राष्ट्रिय एकता को विध्वंस करने के लिए सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली का सहारा लेना;
3. चुनाव के लिए अपनाई गई प्रक्रिया पूरी तरह से असपष्ट थी जिसके कारण जनप्रतिनिधित्व प्रणाली केवल अनेक छलनियों से छानने की प्रक्रिया बन कर रह गई।
4. संसदीय प्रणाली को केवल नाममात्र को देना क्योंकि इसमें सदस्यों के पास कोई भी उत्तरदायित्व नहीं था।
दिखावे के सुधारों का परिणाम:
Minto-Morley के दिखावे के सुधारों का भारतीय जनता पर जो प्रभाव दिखाई दिया वह इस प्रकार था:
1. भारतीय नेताओं के पास विधान मण्डल में कोई अधिकार न होने के कारण वे केवल वहाँ सरकार की आलोचना मात्र करते थे। इस प्रकार एक अच्छा खासा संस्थान आलोचना केंद्र बनकर रह गया।
2. मुस्लिम नेताओं को अलगाववाद का स्वाद चखा दिया गया लेकिन वास्तव में इसका फायदा मुस्लिम समाज का एक छोटा हिस्सा ही प्राप्त कर सका।
3. विधान मण्डल और प्रांतीय परिषद् के पास प्रस्ताव रखने के तो अधिकार थे लेकिन गवर्नर जनरल के पास इन अधिकारों को ठुकराने का अधिकार था। जिसके कारण यह प्रस्ताव केवल दिखावे बनकर रह गए।
4. व्यवस्थापिका के लिए 69 सदस्यों का प्रावधान रखा गया जिसमें 32 गैर सरकारी पद रखे गए। इन गैर सरकारी पदों में भी केवल 13 पद सामान्य श्रेणी में से रखे गए जिनके लिए चुनाव का सहारा लिया गया। इससे यह ज़ाहिर होता है कि यह चुनाव प्रक्रिया भी केवल एक दिखावा ही थी।
वास्तव में क्या मिला:
1909 में भारतीय परिषद् अधिनियम के पारित होने से केवल ब्रिटिश सरकार का यह उद्देशय पूरा हुआ कि बढ़ते हुए भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को सांप्रदायिक रंग में रंगकर उसकी रफ्तार धीमी कर दी गई। इसके साथ ही कांग्रेस के होम रूल की मांग को न मानकर उसके अस्तित्व और पहचान पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया।