विजयनगर साम्राज्य का इतिहास

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Vijayanagar Kingdom


वर्ष 2018 में एक टीवी सीरियल की शुरुआत हुई जिसमें उस ऐतिहासिक चरित्र को दिखाया गया था जिसे साठ की दशक में पैदा हुई पीढ़ी ने अमर चित्र कथा और नन्दन जैसी किताबों में खूब पढ़ा और आनंद लिया। जी हाँ, यहाँ बात हो रही है उस हंसोड़ दरबारी और उसके राजा की जिन्हें आज सब तेनालीराम और राजा कृशनदेव राय के नाम से जानते हैं। विजयनगर के राजा और उसके सलाहकार तेनालीराम की मस्ती भरी कहानियाँ तो सबको लुभाती हैं लेकिन क्या आप उस राज्य के बारे में और अधिक जानते हैं । आइये इस लेख में आपको विजयनगर के ईतिहास से परिचित करवाते हैं:

किसने बसाया था विजयनगर :

मध्यकालीन भारत में दक्षिण भारत का एक साम्राज्य जिसे उस समय के लोग ‘कर्नाटक साम्राज्यम’ के नाम से और आधुनिक भारत के लोग ‘विजयनगर’ के नाम से जानते हैं। इस साम्राज्य की स्थापना दो भाइयों, हरिहर प्रथम और बुक्का प्रथम ने 1336 ईस्वी में की थी। इससे पहले यह दोनों भाई कर्नाटक में कांपिली राज्य के मंत्री थे। मोहम्म्द तुगलक द्वारा कांपिली पर विजय के बाद इन दोनों भाइयों को बंदी बना कर जबर्दस्ती मुस्लिम धर्म मानने पर मजबूर कर दिया गया। लेकिन कुछ समय बाद उनके गुरु विद्याधरण की मदद से न केवल उन्होनें स्वयं को स्वतंत्र कर लिया बल्कि इस्लाम धर्म से भी मुक्त होकर पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। इसके बाद विजयनगर को अपनी राजधानी बनाते हुए एक नए साम्राज्य की स्थापना की। हरिहर प्रथम जो विजयनगर का अधिष्ठाता माना जाता है को “दो समुद्रों का अधिपति” की उपाधि भी प्राप्त थी।

विजयनगर का विस्तार कैसे हुआ:

विजयनगर में एक नहीं बल्कि तीन राजवंशों का आधिपत्य रहा है जो इस प्रकार है:

संगम वंश – 1336-1485 ई.

सालुव वंश – 1485-1505 ई.

तुलुव वंश – 1505-1570 ई.

अरविडु वंश – 1570-1650 ई.

संगम वंश – 1336-1485 ई.

हरिहर और बुक्का को ‘संगम वंश’ का शासक माना जाता है जिसने 1336-1485 ईस्वी तक राज्य किया था। हरिहर (1336-1356) की मृत्यु के बाद उनके भाई बुक्का (1356-1377) ने मैसूर के होयसल राजा और मदुरै के सुल्तान को हराकर विजयनगर का विस्तार करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही विजयनगर राज्य की सीमाएं भारत के दक्षिणी छोर रामेश्वरम तक पहुँच गईं। इसके साथ ही बुक्का प्रथम को वेद मार्ग प्रथिष्ठापक की उपाधि भी मिल गई। इस समय दक्षिण भारत में रहने वाले सभी गैर मुस्लिम संप्रदाय जैसे बौद्ध, जैन व हिन्दू स्वयं को यहाँ पूरी तरह से सुरक्षित मानते थे। यहाँ स्थापित दुर्ग अनेगंडी दुर्ग एक भव्य दुर्ग था और उस समय विजयनगर एक भव्य शहर माना जाता था।

संगम वंश के शासकों ने 1485 ईस्वी तक शासन किया जिसमें परिवार के पुत्र और भाइयों ने क्रमानुसार गद्दी सम्हाली और विजयनगर को ‘जीत का शहर’ बनाते हुए उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। इस समय शासन करने वाले राजा थे :

हरिहर द्वितीय (177-1406 ईस्वी)

देवराय प्रथम (1406-1422 ईस्वी)

देवराय द्वितीय (1422-1446 ईस्वी)

मल्लिकार्जुन (1446-1465)

विरूपाक्ष (1465-1485 ईस्वी)

संगम वंश की उपलब्धियां:

संगम वंश के शासकों (हरिहर प्रथम-विरूपाक्ष) तक विजयनगर के चतुर्मुखी विकास व विस्तार के लिए निम्न कार्य किए:

1. बहमनी राज्य से गोवा और बेलगांव जीता और अपने राज्य का विस्तार किया;

2. 1410 में देवराय प्रथम ने तुंगभद्रा नदी पर बांध बनवा कर विजयनगर को असीमित पानी का स्त्रोत उपलब्ध करवाया।

3. बुक्का के पुत्र देवराय द्वितीय ने विदेशी भूमि श्रीलंका, क्किलान और पुलिकट को अपने अधीन करते हुए वहाँ से कर वसूली आरंभ की।

4. 1485 तक विजयनगर एक धनी और सम्पन्न लोगों का शहर था जहां के लोग विदेशों के महंगी और विदेशी वस्तुओं का आयात करते थे।

5. यहाँ से मसाले, रत्न और रत्नों का निर्यात बड़ी मात्रा में होता था।

6. देश की सबसे अच्छी अश्व सेना और हस्ती सेना विजयनगर की शोभा थी।

7. राज्यों का शासन करने में न केवल राजवंश बल्कि शासकीय वंश के सदस्य और सैनिक कमांडर भी शामिल होते थे।

सालुव वंश – 1485-1505 ई.

सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.)

इम्माडि नरसिंह (1491-1505 ई.)

संगम वंश के आखिरी शासक के शासन काल में अराजकता का आरंभ हो गया था। जो सैनिक कमांडर संगम वंश में शासन की सहायता करते थे, उन्होनें ही शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली और विरूपाक्ष के पुत्र ने जब अपने पिता की हत्या करके गद्दी सम्हाली तब उसके सेनापति नरसा नायक ने मौके का फायदा उठा लिया। उसने स्वयं गद्दी पर अधिकार करते हुए सालूव नरसिंघ को राजा बना दिया और इस प्रकार सालूव वंश की स्थापना हो गई। नरसिंघ ने अपने छोटे शासनकाल में राज्य में फैली अराजकता को दबाने का प्रयास किया लेकिन न तो वह उसमें सफल हुआ और न ही उड़ीसा के गजपति शासक पुरुषोत्तम से स्वयं को पराजित होने में बचा सका। लेकिन जल्द ही उसने स्वयम को गजपति की कैद से मुक्त करवाकर अरब से होने वाले घोड़ों के व्यापार को शुरू करके डगमगाती अर्थव्यवस्था को समहालने का प्रयत्न किया। 1491 में नरसिंघ की मृत्यु के बाद उसके बड़े पुत्र इम्मादी नरसिंघ ने गद्दी सम्हाल ली। लेकिन उसकी कम उम्र का फायदा उठाकर नरसा नायक जो सालूव वंश का संरक्षक था, स्वयं शासक बन बैठा। अपने 12-13 वर्ष की शासन अवधि में नरसा ने बीजापुर, मदुरा, बीदर और श्रीरंगपट्टनम को जीतकर अपने अधीन कर लिया। इसके साथ ही नरसा ने चोल,पाण्ड्य,  चेर शासकों को भी विजयनगर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। 1505 तक आते-आते नरसा के पुत्र द्वरा पहले से भी बदिग्रह में रह रहे इम्मादी की हत्या कर दी गई और इसके साथ ही सालूव वंश का खात्मा हो गया

तुलुव वंश – 1505-1570 ई.:

नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंघ ने इम्मादी की हत्या करके अपने नए राजवंश तुलुव राजवंश की स्थापना की।

वीर नरसिंह (1505-1509 ई.):

वीर नरसिंघ ने एक अच्छे और उदार राजा के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया और उसमें वह सफल भी रहा। उसने सेना को पुनः संगठित किया और सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए पुर्तगाल से पुनः अरबी घोड़ों का व्यापार आरंभ किया।

कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.):

वीर नरसिंघ की मृत्यु हो जाने पर उनके छोटे भाई नकृशनदेव राय ने गद्दी सम्हाल ली। अपने बीआईएस वर्षों के शासन में कृष्णदेव राय ने विजयनगर को पुनः उत्कर्ष की चोटी पर पहुंचा दिया था। अपने शासन काल में कृशनदेव ने बीदर के सुल्तान, उम्मुतुर के विद्रोही सामंत और बीजापुर के शासक को हरा कर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। 

निरंतर सैनिक अभियानों में व्यस्त होने पर भी कृष्णदेव राय के शासनकाल में विजयनगर में पूर्ण व्यवस्था व सुख-शांति थी। यही वह समय था जब दक्षिण भारत में सर्वश्रेष्ठ मंदिर, गोपुरम आदि का निर्माण हुआ था।

कृष्ण देवराय ने धर्म, सैन्य और कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए थे। यहाँ तक कि बाबर कि आत्मकथा “तूज़ुक ए बाबरी” में भी इन्हें सर्वशक्तिमान राजा के रूप में दिखाया गया है। इनहोनें ही सबसे पहले दरबार में साहित्य जगत को स्थान देते हुए ‘अष्टदिग्गज’ पद शुरू किया था जिसे बाद में अकबर ने अपने शासन काल में ‘नवरत्न’ के नाम से संबोधित किया था।

अपने जीवन काल में ही कृष्णदेव ने अपने भाई अच्युतदेव राय को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

अच्युतदेव राय (1529-1542 ई.):

अच्युतदेव राय अपने भाई की भांति उतना कुशल व योग्य नहीं था लेकिन विजयनगर में अशांति नहीं होने दी और न ही किसी सीमा का अतिक्रमण होने दिया। इसकी मृत्यु के बाद सत्ता अच्च्युतदेव के भतीजे सदाशिव राय के हाथ आ गई।

सदाशिव राय (1542-1570 ई.):

सदाशिव राय को नाममात्र का शासक बना कर प्रधानमंत्री रामराय ने शासन की बागडोर सम्हाल रखी थी। रामराय का शासनकाल अधिक अच्छा नहीं था और इसके ही शासन में विजयनगर की सेना तालकोटी के युद्ध (राक्षसी-तांग्डी युद्ध) में व्यस्त होकर बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा की सेना से हार गई थी। विजयी सेना ने विजयनगर को तीन महीने तक लूटा और नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस बीच विजयनगर के सेनापति राजराज के भाई तिरुमल ने गद्दी सम्हाल कर शासन करने का प्रयत्न किया  लेकिन वह भी असफल सिद्ध हुआ। इस प्रकार सदाशिव तुलुव वंश का आखिरी शासक सिद्ध हुआ।

अरविडु वंश – 1570-1650 ई.

तिरुमल ने सदाशिव का थोड़े समय तक साथ दिया लेकिन 1570 में स्वयं शासक बनकर अरविडु वंश की स्थापना की। लेकिन इस वंश का कोई भी शासक विजयनगर को वापस उसका श्री और सौन्दर्य नहीं लौटा सका था। फिर भी इस वंश के समय में ही मैसूर, तंजौर और बेदनूर राज्यों की स्थापना हो गई थी।

विजयनगर की सिकुड़ती सीमारेखा:

विजयनगर के आखिरी वंश, अरविडु वंशज ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन को नहीं बचा पाये। परिणामस्वरूप एक समय तक विदेशों तक फैला विजयनगर एक छोटे से इलाके वेल्लोर तक सीमित होकर रह गया। यह इलाका भी 1664 में बीजापुर ने आक्रमण करके जीत लिया और इसके साथ ही अरविडु वंश और विजयनगर साम्राज्य दोनों का ही अंत हो गया था।

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