तारीख थी 14 जनवरी 1761,दिन था मकरसंक्रांति का, यही वो दिन था और यही वो समां था जब दिल्ली से करीब 80 किलोमीटर दूर स्थित ‘पानीपत’ में भारतीय इतिहास की एक ना भूलने वाली दास्तान लिखी जाने वाली थी। एक बार फिर यहीं भारत का भविष्य बदलने वाला था। इस बात के गवाह लाखों सैनिकों के साथ ‘पानीपत’ के करीब से बहने वाली यमुना नदी भी बनने वाली थी क्योंकि यहां इतिहास रच देने वाली लड़ाई लड़ी जा रही थी। ये लड़ाई थी मराठों और अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली के बीच, आप अपनी ज़हन में इस बात को बैठा लीजिए कि उस दौर में ‘पानीपत’ में लड़ी गई ये लड़ाई मात्र आन, बान और शान के लिए नहीं थी बल्कि ये लड़ाई भारतीय साम्राज्य की सीमा को तय करने वाली थी।
इस लेख में आप जानेंगे
- मुग़ल और लाल किला
- आइए आपको रूबरू करवाते हैं उस दौर के ‘भारत’ से
- पंजाब फतह के बाद-
- मराठा सेनापति-
- थर्ड बैटल ऑफ़ पानीपत-
- क्यों हारे मराठे-
- Third Battle of Panipat (Notes)
कई इतिहासकारों ने तो माना है कि ये लड़ाई दो देशों के सरहद से भी आगे की थी। शायद इसलिए ही इस लड़ाई को अब तक के सबसे बड़े नरसंहार के रूप में भी याद किया जाता है। ‘पानीपत’ की जमीन पर लड़ी गई इस तीसरी लड़ाई में 12 घंटे में 1.5 लाख सैनिको की मौत हुई थी। ‘पानीपत’ की ये लड़ाई भारत के लिए लड़ी जा रही थी कि भारत की सम्प्रभुता को तय करने वाले लोग भारत के ही हो सकते हैं इसमें विदेशी हमलावरों का कोई योगदान नहीं हो सकता है।
मुग़ल और लाल किला
- 18 वीं शताब्दी का ये वो दौर था जब मुग़ल दिल्ली की सल्तनत पर तो थे। लेकिन सत्ता की पकड़ सिर्फ लाल किले तक ही सीमित थी। उस दौर को आप बदलाव के दौर के तौर पर भी याद कर सकते हैं, मतलब पुरानी चीज़ें खत्म हो रही थीं, नए लोग वर्चस्व में आ रहे थे। उस पीरियड में कई शक्तियां एक दूसरे से टकरा रही थीं, मुग़ल सल्तनत कमजोर पड़ चुकी थी।
- वो दौर आ चुका था जब मुग़ल फौज़ पूरी तरह से शक्तिहीन हो चुकी थी, तब मुग़ल पूरी तरह से क्षेत्रीय शक्तियों पर निर्भर थे। 1760 के आते-आते ये कहा जा सकता है कि मुग़ल की बादशाहत दिल्ली के लाल किले में सिमटकर रह गई थी।
आइए आपको रूबरू करवाते हैं उस दौर के ‘भारत’ से
- वो 1760 का ‘भारत’ था,दिल्ली में मुग़ल सल्तनत थी तो ज़रूर लेकिन उसका प्रभाव लगभग खत्म हो चुका था। उत्तरभारत में अवध से लेकर रूहेलखंड रियासत थी । राजस्थान में राजपुताना रियासतों का बोल-बाला था, लेकिन राजपुताना साम्राज्य में मेवाड़ और जयनगर के अलावा कई छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे।
- इन सबके साथ भारत में एक बड़ी शक्ति मराठों की भी हुआ करती थी। दक्षिण भारत और मध्य भारत में मराठा या फिर उनके नुमाइंदो का शासन हुआ करता था।
- आंध्र और तमिलनाडु के कई स्थानों में निजाम का शासन था। मराठों ने 1760 में निजाम की सेना को हराया लेकिन उसके पहले 1758 में ही मराठों ने अपना वर्चस्व दिल्ली, अवध, रूहेलखंड के साथ- साथ पंजाब तक फैला दिया था। मराठाओं की सीमा सिंधु नदी के तट ‘अटक’ तक पहुंचती थी।
पंजाब फतह के बाद
पंजाब में जीत के बाद मराठों की सीधी टक्कर अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली से हो गई। अहमद शाह अब्दाली ने जब दुर्रानी अंपायर बनाया था तो पंजाब का पश्चमी हिस्सा उसमें शामिल कर लिया था। धीरे-धीरे मराठें जब उत्तर भारत से पश्चिमी उत्तर भारत की तरफ बढ़ना शुरू किए तो उन्होंने कई जगहों से अफगान को खदेड़ दिया था।
मराठा सेनापति
मराठों का नेतृत्व सदाशिवराव भाऊ कर रहे थे। उस वक्त सदाशिवराव भाऊ की उम्र महज़ 31 बरस थी। उनके साथ थे बालाजी बाजीराव पेशवा के बेटे विश्वासराव, जिनकी उम्र 20 साल थी, ये अगले पेशवा होने वाले थे। जो इस युद्ध में मारे गए थे।
थर्ड बैटल ऑफ़ पानीपत
- हैदराबाद के निजाम को उदगीर के संग्राम में हराने के बाद सदाशिवराव भाऊ और पूरे मराठों का हौसला बुलंद था।
- बात है 1761 की, जब मुग़लिया सल्तनत अपने साम्राज्य को बचाने के लिए मराठों पर निर्भर थी। दिल्ली का तख़्त मराठों के भरोसे ही जिन्दा था, ऐसे में अफगान लुटेरे अहमदशाह अब्दाली ने एक बार फिर भारत पर हमला किया, पंजाब में पैर जमाने के बाद उसने अपने कदम दिल्ली की तरफ बढ़ा दिए, दिल्ली को बचाने की जिम्मेदारी मराठों ने ली, मराठों की जिम्मेदारी थी सेनापति सदाशिवराव भाऊ पर, वो अपने साथ एक लाख सैनिकों की फ़ौज लेकर चले थे, ये उस दौर की बात है जब मराठों की राजधानी पुणे की कुल आबादी 20 हजार हुआ करती थी।
- सदाशिवराव भाऊ की सेना में इब्राहिम गर्दी भी थे। ये वही इब्राहिम गर्दी थे जिन्होंने फ्रांसीसियों से तोप चलाने का प्रशिक्षण लिया था। उदगीर की लड़ाई जीतने के बाद मराठा सेना का मनोबल सातवें आसमान पर था, फिर वो दिन आया जब ‘पानीपत’ की जमीन पर दोनों सेनाएं आमने-सामने थीं। एक भीषण, विनाशकारी युद्ध हुआ।
- मराठा सेना संख्याबल में जरूर कम थी, लेकिन अफगान आतंकियों की सेना पर भारी पड़ रही थी।
बड़ी सेना, कुशल योद्धा और सदाशिवराव भाऊ के होने के बावजूद आखिर 14 जनवरी, 1761 को ऐसा क्या हुआ कि मराठा सेना को हार का सामना करना पड़ा?
क्यों हारे मराठे
किसी भी हार का एक कारण नहीं होता है, उसी तरह इस हार के पीछे भी कई कारण थे, जिनका साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक विश्वास पाटिल ने अपने उपन्यास ‘पानीपत’ में अच्छे से उल्लेख किया है। इस ऐतिहासिक हार के पीछे सेनापति की ऐतिहासिक भूल जरूर शामिल है।
हुआ कुछ ऐसा था कि विश्वासराव को गोली लग गई थी। वो मैदान पर गिर पड़े थे। सदाशिवराव भाऊ को विश्वासराव से बहुत ज्यादा लगाव था। भाऊ ने जैसे ही विश्वासराव को गिरते हुए देखा वो अपने आपको संभाल नहीं पाए, इसके साथ ही मौके की गंभीरता को भी समझ नहीं पाए। वो अपने हाथी से उतर गए और घोड़े पर सवार होकर दुश्मनों के बीच में चले गए।
अंजाम की परवाह किए बगैर। उनके पीछे उनके हाथी की गद्दी ख़ाली हो गई। उसको खाली देखकर मराठा सैनिकों का मनोबल टूट गया था, उन्हें लगा कि भाऊ युद्ध में मारे गए। अफरा-तफरी मच गई, मराठा सेना गम में डूब गई और इसी बात का अफगानियों ने फायदा उठाया और घबराई हुई मराठा सेना पर नए जोश से टूट पड़े।
कत्लेआम
इसके बाद क्या था, भारत का इतिहास उस कत्लेआम का गवाह बना। ‘पानीपत’ की जमीन पर रात भर मराठा सेना का कत्लेआम हुआ, उन लोगों को भी बेरहमी से काट दिया गया जो सेना के साथ आश्रित मुसाफिर थे। हालांकि, सदाशिवराव भाऊ अपनी अंतिम सांस तक देश की आन, बान और शान के लिए लड़ते रहे थे। उनका बिना सर वाला शरीर तीन दिन बाद मिला था।
इस विनाशकारी युद्ध में मात्र 12 घंटो के भीतर ही 1.5 लाख लोगों ने अपनी जान गवाई थी। खून नदी के पानी की तरह बह रहा था। इतिहास इसे ‘थर्ड बैटल ऑफ़ पानीपत’ के रूप में याद करने वाला था। इसलिए, साल 2020 में भी पानीपत की तीसरी लड़ाई को इतिहास की सबसे खुरेजी और खतरनाक जंग के तौर पर याद किया जाता है।
Reference- “बेस्ट सेलर उपन्यास”
इस लेख में ऐतिहासिक तथ्य साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक विश्वास पाटिल के उपन्यास ‘पानीपत’ से लिए गए हैं। 1988 में जब मराठी में यह उपन्यास आया था तो साहित्य जगत में तहलका मच गया था। इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है, इसके साथ ही ये मराठी साहित्य के इतिहास में पांच सबसे ज्यादा बिकने वाली रचनाओं में शुमार है। उस दौर की इस भयानक लड़ाई को रिसर्च के साथ पाठकों के लिए शब्दों में बयान करने के लिए लेखक विश्वास पाटिल के इस उपन्यास को बधाई।
N.C.E.R.T Summary
Third Battle Of Panipat – 1761 (UPSC Notes):-
फैक्ट्स
- ये ऐतिहासिक युद्ध Maratha Empire और Afghan Durrani Empire के बीच लड़ा गया था।
- मुख्य लड़ाके- सदाशिव राव भाऊ (मराठा आर्मी के सेनापति थे), विश्वास राव मल्हार राव होलकर, अहमद शाह अब्दाली (अफगान प्रमुख )
- कब- 14 जनवरी 1761 (मकरसंक्रांति )
- कहां- पानीपत (दिल्ली से 80 किलोमीटर दूर) आज के समय में हरियाणा में पड़ता है।
- नतीजा- मराठा सेना हार गई थी।
- अहमद शाह अब्दाली को अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने मदद की थी।
- राजपूत, जाट और सिख रियासतों से मराठा आर्मी को मदद नहीं मिली थी।
बैक ग्राउंड
- औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य उदय पर था, मराठा के कंट्रोल में वो रीजन भी आ गए थे, जो पहले मुग़ल के आधीन थे। मराठों ने मालवा, राजपुताना और गुजरात में भी अपना कंट्रोल बना लिया था।
- साल 1747 में अहमद शाह अब्दाली ने अफगानिस्तान में दुर्रानी अंपायर खड़ा किया था।
- साल 1747 में ही अहमद शाह अब्दाली ने लाहौर में कब्जा किया था।
- साल 1747 में ही अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब और सिंध पर भी कब्जा कर लिया था।
- अब्दाली का बेटा तीमूर शाह लाहौर का गवर्नर था।
- अवध के नवाब शुजाउद्दौला से मदद की मांग मराठा और अफगान दोनों ने की थी, लेकिन उसने अफगानियो का साथ दिया था।
अहमद शाह अब्दाली के जीत के मुख्य कारण
- दुर्रानी अंपायर और उनके साथियों की कंबाइन आर्मी मराठा सैनिकों से संख्या के मामले में भी काफी ज्यादा थी।
- अवध के नवाब शुजाउद्दौला से मदद मिलने से अफगान की स्थति उत्तर भारत में मजबूत हो गई थी।
- तब मराठा की कैपिटल पुणे हुआ करती थी और लड़ाई पानीपत में लड़ी गई थी ।
लड़ाई के परिणाम का असर
- लड़ाई के तुरंत बाद अफगान सैनिकों ने भयानक नरसंहार किया था ।
- औरतों और बच्चों को अगवा करके अफगान आर्मी अपने कैंप लेकर गई थी।
- लड़ाई खत्म होने के एक दिन बाद भी 40000 मराठाओं का नरसंहार हुआ था।
- उस समय के मराठा पेशवा बालाजी बाजीराव हुआ करते थे।
- पेशवा बालाजी बाजीराव इस लड़ाई के परिणाम से कभी उबर नहीं पाए थे।
- इस लड़ाई में 1.5 लाख सैनिकों ने जान गवाई थी।
अहमद शाह अब्दाली
- अहमद शाह अब्दाली को मॉडर्न स्टेट ऑफ़ अफगानिस्तान के फाउंडर के तौर पर भी जाना जाता है।
- 1748 से 1767 के बीच अहमद शाह अब्दाली ने भारत के ऊपर 8 बार चढ़ाई करने की कोशिश की थी।
- 1757 में अब्दाली ने दिल्ली पर हमला किया था,तब नजीम खान की मदद से उसने पंजाब और कश्मीर को अपने गिरफ्त में ले लिया था।
- फिर अपने बेटे को लाहौर पर बैठाकर वो अफगानिस्तान वापस लौट गया था।
- 1758 से 1759 के बीच मराठा साम्राज्य अफगान बॉर्डर तक पहुँच गया था।
- दिसंबर 1759 ही था, जब अब्दाली ने पंजाब वापसी की थी।
सबक
जिंदगी इंसान को उम्र के साथ सबक और सीख ही सिखाती है लेकिन किसी देश को सबक उसके इतिहास से सीखना चाहिए। इतिहास विचित्र है, इसमें सबक भी है और सीख भी है, ‘पानीपत’ की धरती में लड़ी गई उस तीसरी लड़ाई में मराठे विदेशी हमलावर से नहीं बल्कि अपनी कमजोरियों की वजह से पराजित हुए थे।
सेनापति सदाशिवराव भाऊ का नाता विवेक से उस युद्ध में मात्र एक लम्हे के लिए छूट गया था, उसका नतीजा ये हुआ कि आगे की कहानी इतिहास बन गई। एक ऐतिहासिक सत्य ये भी है, जिसे कभी कोई बदल नहीं सकता है कि ‘पानीपत’ में लड़ी गई तीनों लड़ाइयों में जिसमे खून पानी की तरह बहा था, उसमे हर बार जीत विदेशी आक्रांताओं की ही हुई थी।
14 जनवरी, 1761 को लड़ी गई ‘पानीपत’ की तीसरी लड़ाई में भी मराठाओं की युद्धनीति और कौशल पर कभी किसी को कोई संदेह नहीं रहा है, लेकिन जैसा कि हर बड़े साम्राज्य में होता है, वैसा ही मराठा साम्राज्य को भी ईर्ष्या, द्वेष, साजिश, ने ही पतन की तरफ ले जाने का काम किया था।
इस पूरे लेखा-जोखा में हमने ‘पानीपत’ की जमीन पर लड़ी गई तीसरी जंग को बड़े करीब से देखा, इसलिए अब पाठकों को हम एक सवाल के साथ छोड़ जाते हैं कि अगर ‘पानीपत’ में लड़ी गई उस तीसरी लड़ाई को मराठा जीत लिए होते तो हिन्दुस्तान के इतिहास में क्या बड़ा बदलाव हो सकता था?
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