संगम काल का इतिहास

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संगम काल दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास का स्वर्णिम काल के रूप में जाना जाता है। तमिल साहित्य में संगम काल को स्वर्णिम काल क्यों कहा जाता है, आइये इसके बारे में विस्तार से जानते हैं:

संगमकाल कि शुरुआत :

संगम शब्द का अर्थ किन्हीं दो इकाइयों के मिलन से लिया जाता है। इसी अर्थ में इतिहासकारों के मतानुसार  संगम काल वास्तव में ईसापूर्व पहली शताब्दी के अंत व दूसरी शताब्दी के मध्य काल को माना जाता है। जबकि कुछ विद्धवान इसे तीसरी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक के समायावधि को मानते हैं। वस्तुतः दक्षिण भारत के तमिल साहित्य के संदर्भ में संगमकाल शब्द का प्रयोग होता है। यह तमिल प्रदेश दक्षिण में बहने वाली कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदी के बीच के स्थान को कहा जाता है। यह वही स्थान है जहां चेर, चोल और पाण्ड्य शासकों के द्वारा छोटे-छोटे राज्यों पर शासन किया जाता था। इस प्रदेश में तमिल साहित्यकारों की नियमित गोष्ठियों और सभाओं का आयोजन किया जाता था। इन सभाओं में तमिल प्रदेश के सभी कवि, लेखक व रचनाकर नियमित रूप से मिलकर विभिन्न विषयों पर साहित्यिक विचार-विमर्श किया करते थे। इस कारण भी इतिहासकार इस कालखंड को ‘संगमकाल’ कहते हैं क्योंकि इस समय साहित्य जगत के सभी शीर्षस्थ रचनाकारों का आपस में मिलन अथार्थ संगम हुआ करता था।

संगम काल के रूप:

ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर संगम काल को तीन भागों में बांटा गया है। इन्हें प्रथम, द्वितीय व तृतीय संगम के नाम से जाना जाता है।

प्रथम संगम की स्थापना मदुरै में हुई थी और इसे तत्कालीन 89 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण उपलब्ध था। लेकिन इस संगम से संबन्धित किसी प्रकार का विशेष साहित्य उपलब्ध नहीं है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि 4400 वर्ष तक चलने के बाद मदुरै के समुद्र में समा जाने के कारण प्रथम संगम युग कि भी समाप्ति हो गई थी।

द्वितीय संगम की स्थापना भी 59 पाण्ड्य शासकों द्वारा कपाट्पुरम शहर में की गई थी।48 सामान्य सदस्यों वाले इस संगम के अध्यक्ष पद के लिए अगत्स्य और तोल्कापियर जैसे विद्धवानों का चयन किया गया था। इस संगम की अवधि 3700 वर्ष मानी जाती है।

तृतीय संगम की स्थापना पुनः मदुरै राज्य में नक्कीरर नाम के महाकवि की अध्यक्षता में की गई थी। इस अवधि में रचा गया तमिल साहित्य का कुछ अंश आज भी उपलब्ध है जो उस युग की पहचान बताता है।

संगम साहित्य:

संगम साहित्य वास्तव में तमिल भाषा में लिखे गए तमिल साहित्य के रचनाकार जिनमें कवि और समस्त बुद्धिजीवी के अलावा विभिन्न विधवान, आचार्य और ज्योतिषी शामिल होते थे की रचनाओं का समूह माना जाता है। संगम साहित्य तीन संगमों, प्रथम, द्वितीय और तृतीय संगम के रूप में 9950 वर्ष तक चले थे। इस काल में 8598 साहित्यकारों ने 197 पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में रचनाओं का सृजन किया था। इस काल में रचे गए महतावपूर्ण ग्रन्थों के नाम तोल्काप्पियम और एत्तुतौकै हैं ।

सामाजिक व्यवस्था:

संगम साहित्य में मिले प्रमाणों के अनुसार वैसे तो सामाजिक व्यवस्था में उस समय वर्ण विभाजन प्रथा नहीं थी। लेकिन समाज को चार वर्गों में इस प्रकार बांटा गया था:

  1. अरसर = राजपरिवार से जुड़े व्यक्ति
  2. बेनिगर = व्यापारी वर्ग
  3. बल्लाल = समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति
  4. वेल्लार = कृषक समाज

इसके अलावा केवल ब्राह्मण ही समाज में सम्मान पाने के अधिकारी थे और उन्हें यज्ञोंपवित पहने का भी अधिकार था। समाज के शेष व्यक्ति अपने-अपने मूल प्रांत के नाम से जाने जाते थे। जैसे पर्वतीय इलाके वाले व्यक्ति ‘कुटींजी’, समुद्र किनारे रहने वाले ‘नैइडल’ के नाम से प्रसिद्ध थे।

संगम काल में ‘दास प्रथा’ का प्रचलन नहीं था और सम्पन्न व्यक्तियों के घर पक्के और चूने से बने होते थे।

संगम काल में स्त्रियॉं को अशुभ व निम्न स्तर का दर्जा दिया जाता था। इन्हें संपत्ति में भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। लेकिन स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण कर सकती थी और धार्मिक अनुष्ठानों में भी भाग लेती थीं। विधवा होने पर नारकीय जीवन जीने से तो वे स्वेच्छा से सती होना पसंद करती थीं।

शिक्षा :

शिक्षा और साहित्य की दृष्टि से संगम युग स्वर्णिम काल कहा जाता है। इस समय समाज में शिक्षा का न केवल प्रचलन था बल्कि ज्ञान जगत के सभी विषय जैसे विज्ञान, कला, साहित्य, व्याकरण, गणित और ज्योतिष, चित्रकला और मूर्तिकला आदि का समुचित ज्ञान दिया जाता था। शिक्षा देने के लिए मंदिरों को चुना गया था और शिक्षक को ‘कणकट्टम’ और शिक्षा पाने वाले ‘पिल्लै’ कहा जाता था। विध्यार्थी शिक्षा पूरी करने के बाद शिक्षकों को ‘गुरु दक्षिणा’ देते थे।

राजनैतिक व्यवस्था:

संगम कालीन राजनैतिक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राजा का पद वंशानुगत होता था। प्रत्येक राज्य का विभाजन मण्डल और मण्डल आगे जिला में विभाजित होता था। राजा और देवता को एक जैसी उपाधि प्राप्त होती थी।

प्रशासन व्यवस्था:

संगमकाल में राजा अपने सलाहकारों की मदद से राजकाज का काम सम्हालते थे। इनके मुख्य सलाहकरों में पुरोहित, व्यापारी, ज्योतिशाचार्य और मंत्रिमंडल के प्रमुख मंत्री होते थे। इस समूह को ‘पंचारक’ कहा जाता था। इसके साथ ही गुप्तचर भी राजा की शासन में मदद करते थे। राजा मुख्य न्यायधीश के रूप में दंड देने का अधिकारी होता था।

राजा की सेना:

राजा की सेना में रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सैनिक होते थे। हथियारों के रूप में सैनिकों के पास भाला (वेल), धनुष (कोल), खड़ग (वाल) और कवच आदि हथियार होते थे। युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की याद में शिलालेख और उनकी मूर्तियाँ स्मृतिचिन्ह के रूप में लगाए जाते थे। इन मूर्तियों की पूजा करके इनका सम्मान किया जाता था। सेना को सम्मानित करने के लिए विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था।

अर्थव्यवस्था:

इस समय अर्थव्यवस्था मूल रूप में कृषि आधारित थी। चावल, राई, गन्ना और कपास की खेती मुख्य रूप से की जाती थी। सिंचाई के लिए नदी और तालाबों जैसे प्राकृतिक साधनों का उपयोग होता था। कुल उपज के 1/6 भाग भू-राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था जो राजा की आया का मुख्य स्त्रोत था। इस कर को ‘कराई’ कहा जाता था। इसके अलावा संपत्ति, बन्दरगाह व लूटे गए धन पर भी कर देने की व्यवस्था थी। सामंतों द्वारा भुगतान किए जाने वाले कर और लूट के धन पर वसूले गए कर को ‘दुराई’ कहा जाता था। मदुरै और उरेयार कपड़े के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थे। इसके अलावा हाथी दाँत की वस्तुओं का निर्माण, रस्सी बंटना, जहाज निर्माण, समुद्र से मोती निकालने का काम और सोने के आभूषण बनाना भी इस समय आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने वाले काम थे।

व्यापारिक व्यवस्था:

इस काल में देशी व विदेशी व्यापार अपने चरम पर था। देशी व्यापार में वस्तु विनिमय प्रथा थी। फुहार और शालीपुर के बन्दरगाह विदेशी व्यापार के मुख्य केंद्र हुआ करते थे। इसके अलावा गौरा, तोशडी, मुजीरित और नेलसिडा आदि भी विदेशी व्यापार के सहायक बन्दरगाह थे। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं में काली मिर्च, हाथ दाँत, मसाले, सच्चे मोती और सूती कपड़ा प्रमुख वस्तुएँ होती थीं। जबकि तांबे, तीन और मदिरा आदि का आयात किया जाता था।

धार्मिक व्यवस्था:

संगम काल में ब्राह्मण को आदर व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और उनकी आय का मुख्य स्त्रोत राजा से मिलने वाला दान होता था। वेदों का प्रचार-प्रसार, नियमित यज्ञ करना और विभिन्न प्रकार के धार्मिक कार्यों का नियमित आयोजन करना ब्राह्मण समाज का काम होता था। इस समय शिव, विष्णु, कृष्ण और बलराम आदि देव मुख्य पूजे जाने वाले देवता थे।

उस समय दक्षिण भारत में ‘मुरूगन’ सबसे प्रचलित देवता थे। किसान इन्द्र के रूप ‘मरुडम’ की उपासना करते थे। इसके अलावा उस समय पशु बली भी धार्मिक आयोजन का मुख्य हिस्सा होती थी।

संगमकाल के शासक:

संगमकाल के शासक:

हरिहर प्रथम ( 1336-1356ई.):

इन्हें विजयनगर के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। हरिहर प्रथम ने 1352-53 ई में मदुरै को जीत कर अपने अधिकार में कर लिए था।

बुक्का प्रथम (1356-1377 ई.:

हरिहर प्रथम के उत्तराधिकारी के रूप में बुक्का प्रथम ने संयुक्त शासक के रूप में शासन किया था। इसने अपनी वीरता से विजयनगर साम्राज्य को विस्तार देते हुए रामेश्वरम तक का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था। बहमनी सुल्तान को युद्ध में पराजित करके कृष्ण-तुंगभद्रा क्षेत्र पर भी अपना अधिकार कर लिया। उसने न केवल हिन्दू धर्म बल्कि जैन, बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम धर्मों को भी पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की थी।

हरिहर द्वितीय ( 1377-1404ई. ):

महाराजाधिराज की उपाधि धारण करने वाले हरिहर द्वितीय पहले राजा थे। इनहोनें कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली और कांची आदि क्षेत्रो को अपने अधिकार में लेते हुए श्रीलंका तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था। इसके अलावा बहमनी सुल्तान से बेलगांव और गोवा को जीतना भी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

देवराय प्रथम ( 1406-1422ई.):

जनकल्याणकारी कामों के लिए प्रसिद्ध राजा ने 1410 में तुंगभद्रा पर बांध बनवाया और विजयनगर तक नहरें बना कर जल संकट समाप्त कर दिया।

देवराय द्वितीय ( 1422-1446ई.):

देवराय द्वितीय को उस काल का श्रेष्ठतम शासक की उपाधि प्राप्त थी। इनकी प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जनता के मध्य ये इन्द्र के अवतार माने जाते थे। सेना को शासन के लिए महत्वपूर्ण मानते हुए इनहोनें मुस्लिम लोगों को न केवल सेना में भर्ती किया बल्कि उनको जागीरें भी दी।

मल्लिकार्जुन (1446-1465):

अपने पूर्ववर्ती शासकों जीतना योग्य सीधा नहीं हुआ और विजयनगर साम्राज्य का बड़ा हिस्सा उडिया और बहमनी सेना के हाथों गंवा दिया। यहीं से विजयनगर का पतन शुरू हो गया था।

विरुपाक्ष द्वितीय ( 1465-1485ई.):

अपनी अयोग्यता और निर्कार्मण्यता के कारण यह संगम वंश के अंतिम शासक सिद्ध हो गए।

संगम काल को साहित्य  की दृष्टि से स्वर्णिम काल कहा जाता है। साहित्य की हर विधा का इस काल में सम्मान हुआ और उसमें भरपूर विकास भी हुआ। लेकिन अपने सामाजिक दोषों और शासकों की अयोग्यता के कारण यह युग जल्द ही समाप्त हो गया था।

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