इतिहास में जब बंगाल के नवाबों की बात होती है तो मीर जाफर और मीर कासिम का नाम जरूर आता है। जहां मीर जाफर की पहचान नवाब के तौर पर कई महत्वपूर्ण कार्य करने की वजह से है, वहीं मीर कासिम भी ईस्ट इंडिया कंपनी के समर्थन से 1760 ईस्वी से 163 ईस्वी तक बंगाल का शासक बना था। यहां हम आपको मीर जाफर और मीर कासिम से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की दृष्टि से भी आपके लिए बेहद उपयोगी साबित होगी।
बंगाल का नवाब – मीर जाफर
मूल रूप से मीर जाफर अरब का था, जिसका जन्म पहले खलीफा हजरत अली की पीढ़ी के 30वें वंश में हुआ था। प्लासी के युद्ध के निर्णायक क्षणों में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के विश्वसनीय योद्धा मीर मदन के घायल होने पर मीर जाफर ने नवाब को युद्ध छोड़कर मुर्शिदाबाद जाने के लिए यह कहकर मना लिया कि वह अंग्रेजों को संभाल लेगा और उन पर आक्रमण कर देगा, मगर सिराजुद्दौला के मुर्शिदाबाद जाने की तैयारी करने के दौरान उसने नवाब के कमजोर पड़ने की सूचना अंग्रेजों को देते हुए उन्हें आक्रमण करने का आमंत्रण दे दिया। क्लाइव की सेना ने मीर जाफर की मदद से नवाब की सेना को परास्त कर दिया। नवाब पहले भागा, मगर फिर मारा गया।
इसके बाद क्लाइव की मदद से मीर जाफर बंगाल का नवाब बन गया। सिराजुद्दौला के हीराझील महल में बहुत से जमींदारों व दरबारियों की मौजूदगी में मीर जाफर का सम्मान किया गया। मीर जफार नवाब क्या बना कि उसने तुरंत इनाम के तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा में मुफ्त में व्यापार करने का अधिकार तो दे ही दिया, साथ में कोलकाता के समीप 24 परगना की जमींदारी भी कंपनी के हवाले कर दी। मीर जाफर यहीं नही रुका। सिराजुद्दौला के हमले के कारण कंपनी को जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई के नाम पर उसने कंपनी को 17 करोड़ 70 लाख रुपये तक दे दिये। अंग्रेज अधिकारियों एवं व्यापारियों को बेशकीमती उपहार देने के साथ किसी भी तरह का टैक्स हटाने के अलावा मीर जाफर ने उन्हें इतने अधिकार सौंप दिये कि कंपनी के लिए बंगाल में शासन करने के मार्ग ही प्रशस्त हो गया।
कंपनी ने तो मीर जाफर को अपना मोहरा बनाया था। ऐसे में कंपनी की लगातार बढ़ती मांगों को देख उसे यह समझ आने लगा था कि कंपनी की हर ख्वाहिश पूरी कर पाना उसके बस में नहीं है। अब तो अंग्रेजों ने उसकी आलोचना तक शुरू कर दी थी। आखिरकार, मीर जाफर पर कंपनी की ओर से वर्ष 1760 के अक्टूबर में सत्ता छोड़कर अपने दामाद मीर कासिम को सौंपने का दबाव बनाया गया, जिससे बंगाल का nawab मीर कासिम बन गया। हालांकि मीर कासिम के तेवर कंपनी को ठीक नहीं लगे और फिर से 1763 में मीर जाफर को ही बंगाल का नवाब बना दिया गया। वर्ष 1765 में अपनी मौत तक मीर जाफर बंगाल का नवाब बना रहा।
बंगाल का नवाब – मीर कासिम
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के समर्थन से मीर जाफर का दामाद मीर कासिम बंगाल का नवाब बना था। बंगाल का नवाब तो मीर कासिम बन गया, साथ ही नवाब बनने के साथ ही उसने बेंसिटार्ट को 5 लाख रुपये, हॉलवेल को 2 लाख 70 हजार रुपये और कर्नल केलॉड को 4 लाख रुपये उपहार के तौर पर दे दिये, मगर अंग्रेजों के हस्तक्षेप को कम करने के लिए उसने अपनी राजधानी को मुर्शिदाबाद से हटा दिया और मुंगेर ले गया। राजस्व प्रशासन में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, सरकारी खर्च में कटौती करने, कर्मचारियों की छटनी एवं नये जमींदारों से बकाया धन की वसूली करने जैसे कदम मीर कासिम की ओर से उठाये गये।
तोपों एवं बंदूकों के निर्माण के लिए मीर कासिम ने मुंगेर में बंदूक कारखाना स्थापित किया। यही नहीं, आंतरिक व्यापार से सभी प्रकार के शुल्क की वसूली उसने खत्म कर दी। इसका लाभ भारतीयों को मिलना शुरू हो गया। कंपनी ने इस लाभ से वंचित होने पर विशेषाधिकार की अवहेलना के रूप में मीर कासिम के इस फैसले को लिया और मीर कासिम एवं अंग्रेजों के बीच इसकी वजह से संघर्ष की शुरुआत हो गई। ऐसे में कंपनी की ओर से मीर कासिम को 1763 में बर्खास्त कर दिया गया और मीर जाफर को फिर से बंगाल का नवाब बना दिया। एडम्स की अगुवाई में करवा नामक स्थान पर 19 जुलाई, 1763 को हुए युद्ध में अंग्रेजों ने मीर कासिम को पराजित कर दिया।
इसके बाद भी बक्सर के युद्ध से पहले मीर कासिम तीन बार अंग्रेजों से हार गया, जिसके कारण मुंगेर से भागकर उसे पटना में शरण लेना पड़ा। अंग्रेजों से बार-बार हारने के बाद बंगाल के नवाब मीर कासिम ने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक सैन्य गंबठबंधन बना लिया। फिर भी बक्सर के युद्ध को जीत जाने से एक बार फिर से बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर कंपनी का पूर्ण प्रभुत्व लौट आया। मीर कासिम की मौत दिल्ली के पास कोटवाल में 8 मई, 1777 को गरीबी में हो गई।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर देखा जाए तो मीर जाफर और मीर कासिम दोनों को ही अंग्रेजों ने बंगाल का नवाब बनाकर अपना मोहरा बनाया था, ताकि बंगाल में कंपनी आसानी से व्यापार कर सके, मगर इन दोनों की ही अपनी-अपनी राजनीतिक और सामरिक महत्वाकांक्षाओं ने समय-समय पर अंग्रेजों की नाक में दम भी कर दिया था।