जानिए, गुप्त काल में किस तरह से फले-फूले वैष्णव और शैव धर्म

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Gupta dynasty facts


आज जो हिन्दू धर्म का स्वरूप हमें नजर आता है, निश्चित तौर पर गुप्तकालीन धर्म पर वह बहुत हद तक आधारित है। गुप्त काल में वैष्णव और शैव धर्मों के विकास के साथ हिन्दू धर्म में लोक आस्थाओं को प्रवेश मिला था। गुप्त काल में जो धर्म थे, उनमें वैष्णव और शैव धर्मों की प्रमुखता रही थी। गुप्त काल में धर्मों के विकास के दौरान किस तरह से वैष्णव और शैव धर्मों ने परंपराओं को बरकरार रखते हए जिस तरह से नवीन तत्त्वों को भी समाहित किया उसके बारे में यहां हम आपको विस्तार से बता रहे हैं।

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गुप्त काल में वैष्णव धर्म

वैष्णव धर्म का गुप्त काल में फिर से उत्थान हुआ। इस काल में न केवल उपासना का केंद्र प्रतिमाएं बनीं, बल्कि यज्ञ की जगह भी उपासना ने ले ली। वैष्णव धर्म में उपनिषदों में वर्णित विश्व ब्रह्म की नहीं, बल्कि एक व्यक्तिगत ईश्वर की उपासना की जाने लगी। दरअसल वैष्णव धर्म पाणिनी के वक्त से ही भागवत धर्म के नाम से चल रहा था, मगर इसके लिए वैष्णव शब्द का इस्तेमाल पांचवीं शताब्दी से शुरू हुआ। पंचाल राजा विष्णुमित्र के एक सिक्के पर चार हाथों वाले ईश्वर का चित्र भी देखने को मिला है, जिनके बांये हाथ में एक चक्र नजर आया है। जब वैष्णववादी अवधारणा के विकास का द्वितीय चरण शुरू हुआ तो इसमें श्री या लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी के तौर पर स्वीकार किया गया। लक्ष्मी को विष्णु से स्कंदगुप्त के समय पूरी तरह से जोड़ कर देखा गया। कई अभिलेखों में तो लक्ष्मी को वैष्णवी कहने का भी जिक्र मिला है।

ईश्वर को पाने की वैष्णव धर्म में तीन विधियां ज्ञान, कर्म और भक्ति बताई गई हैं, जिनमें सबसे अधिक महत्व का भक्ति को माना गया है। ईश्वर कृपा को वैष्णव धर्म में तप एवं धार्मिक अनुष्ठान के बदले अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है। इसमें हर तरह की इच्छाओं और कमों को भगवान को अर्पित करने को ही भक्ति का असली मतलब माना गया है। जहां इस धर्म में ज्ञान को भक्ति से जोड़ा गया है, वहीं कर्म के महत्त्व पर भी इसमें बल दिया गया है। निष्क्रियता की जगह सच्चे कर्म से भगवान के खुश होने की बात इसमें की गई है। इस तरह से संकर्षण का महत्व कार्तिकेय, दुर्गा, और गणेश जैसे देवी-देवताओं के प्रादुर्भाव के साथ कम होता चला गया।

गुप्त काल में जो धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचे उसमें भागवत या वैष्णव धर्म एकदम शीर्ष पर रहा। गुप्त राजा स्वतः दरअसल वैष्णव मत के अनुयायी थे। गुप्त काल में परम भागवत की उपाधिक अधिकतर शासकों ने धारण कर रखी थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के जो सिक्के मिले हैं, उन पर परमभागवत खुदा हुआ मिला है। यही नहीं, विष्णु के वाहन गरूड़ की प्रतिमा भी चंद्रगुप्त एवं समुद्रगुप्त के सिक्कों पर खुदी हुई मिली हैं। स्कंदगुप्त का जो भीतरी स्तंभलेख प्राप्त हुआ है, उसमें वासुदेव कृष्ण की मूर्ति का वर्णन दिख जाता है। उसी तरह से स्कंदगुप्त के जो जूनागढ़ के एरण अभिलेख मिले हैं, उनकी शुरुआत ही विष्णु की प्रार्थना से हो रही है। बुद्धगुप्त के भी एरण अभिलखों का यही हाल है। गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से जुड़े सर्वाधिक महत्व वाले मंदिर की बात की जाए तो यह देशागढ़ का दशावतार मंदिर रहा है।

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गुप्त काल में शैव धर्म

गुप्तकाल में वैष्णव के साथ शैव धर्म का भी विकास हुआ था। शिव के लिए ऋग्वेद में रूद्र नाम का प्रयोग किया गया है। गुप्त शासक स्कंदगुप्त के समय का जो सिक्का मिला है, उसकी आकृति बैल के जैसी है। काशी के विश्वनाथ मंदिर और उज्जैन के महाकाल मंदिर का जिक्र कालिदास की रचनाओं में मिल जाता है। साथ ही सबसे पहले मत्स्य पुराण में लिंग पूजा के बारे में पढ़ने को मिला है। मांऊट कैलाश शिव का स्थान उत्तर में और चिदरम्बम् व तिल्लई को दक्षिण में माना गया है। शिव के साथ पार्वती को कुमारगुप्त के वक्त जोड़ दिया गया था।

कुमारगुप्त प्रथम के समय के जो सिक्के प्राप्त हुए हैं, उन पर मयूर पर विराजमान कार्तिकेय की आकृति देखने को मिली है। साथ ही शिव की मूर्ति इंसानों की आकृति में कोसम से मिली है। वामन पुराण बताता है कि गुप्त काल में शैव धर्म से जुड़े शैव धर्म, पाशुपत धर्म, कापालिक धर्म और कालामुख धर्म नामक चार उपसंप्रदाय हुए थे, जिनमें सबसे पुराना पाशुपत धर्म था और इसका संस्थापक लकुलीश को बताया गया है तथा पाशुपत धर्म को जो लोग मानते थे, उन्हें पांचर्थिक कहा जाता था। वहीं, भैरव कापालिक संप्रदाय के इष्टदेव थे, जिन्हें शिव का ही अवतार माना गया है और इनकी उपासना करने वाले प्रायः गुस्सैल स्वभाव वाले होते थे। श्रीशैल इनका सबसे मुख्य केंद्र था। भवभूति के मालती माधव में इसका जिक्र मिलता है।

वैसे तो अतिवादी विचारधारा के कापालिक संप्रदाय के लोग भी थे, जिन्हें कि महाव्रतधर शिवपुराण में बताया गया है। नर कंकाल को ये लोग भोजन में लेते थे और अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाया करते थे। गुप्त काल में दक्षिण में शिव के अलग-अलग रूपों वाली मूर्तियों का प्रचलन बढ़ गया था। सार्वभौमिक शिक्षक के रूप में इसमें शिव को दर्शाया गया है। साथ ही इस दौरान मीनाक्षी को दक्षिण में शिव की पत्नी के तौर पर दिखाया गया है।

निष्कर्ष

गुप्त काल में धर्मों के विकास के दौरान वैष्णव और शैव धर्म तेजी से फले-फूले थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि गुप्त शासकों की ओर से गुप्त काल में वैष्णव और शैव धर्मों के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

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