गुप्त राजवंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। गुप्त कालीन समाज परंपरागत चार वर्णों में विभक्त था। इन चार वर्णों का आधार गुण और कर्म ना होकर जन्म था।
गुप्त काल का इतिहास और उत्पत्ति
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त काल की नींव रखने वाला शासक श्रीगुप्त को माना जाता है। गुप्त राजवंश अपने साम्राज्यवाद के लिए प्रसिद्ध था।
गुप्त शासको के नाम श्रीगुप्त, चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त, स्कन्द गुप्त आदि थे। जबकि गुप्त उनका उपनाम था। जो की उनके वर्ण व जाति को उद्घोषित करता हैं। गुप्त काल के राजाओं का मानना था कि उन्हें दैविय अधिकार प्राप्त है, उन्हें शासन करने के लिए देवताओं ने स्वंय भेजा है। इसी कारण मंदिरों का निर्माण कार्य भी गुप्त काल से ही प्रांरभ हुआ था।
गुप्त कालीन वर्णव्यवस्था
गुप्तकालीन सामज में वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से प्रतिष्ठित थी। गुप्तकालीन कई स्मृतियों में भी समाज के कठोर रूप का चित्रण मिलता है। गुप्तकालीन समाज परम्परागत चार वर्णों में विभाजित था- बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। साथ ही इस काल की सबसे बड़ी बात इसकी उपजातिय व्यवस्था थी। गुप्तकाल में कई उप जातियों का उदगम हुआ।
भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के द्वारा भिन्न भिन्न वर्णों के लिए विभिन्न व्यवस्था बताई गयी है। वराहमिहिर ने तो वर्णों के अनुसार मकान में कितने कमरे होने चाहिए इसका भी उल्लेख किया है, उनके अनुसार ब्राह्मण के मकान में ५ कमरे, वैश्य के में ३, क्षत्रिय के में ४ और शूद्र के में २ कमरे ही होने चाहिए।
बाह्मण
समाज में बाह्मणों का स्थान सर्वाच्च माना जाता था। बाह्मणों को कर रहित कृषि भूमि दी जाती थी। जबकि अन्य लोगों को उनकी उपज का छठा भाग भूमि राजस्व के रूप में राजा को देना होता था। भयंकर अपराध करने पर भी ब्राह्मण को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था। अन्य वर्णों की तुलना में उन्हें दंड कम करके मिलता था। बाह्मणों के मुख्यतया छह कर्म थे- वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। ब्राह्मणों में भी उपजातियाँ विकसित हो गई थीं। वेदों के अध्ययन को ध्यान में रखकर उसका विभाजन किया गया था।
क्षत्रिय
गुप्त कालीन वर्णव्यवस्था में दूसरा स्थान था क्षत्रियों का। धर्मशास्त्रों कहते हैं की क्षत्रिय का मुख्य काम प्रजा की रक्षा करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करना, दान करना आदि हैं। क्षत्रिय द्वारा गुप्तकाल में अपने वर्ण का कार्य करते हुए दूसरे वर्ण के व्यवसाय को अपनाने का भी उल्लेख ह। स्कंदगुप्त के काल के एक अभिलेख में यह भी कहा गया है की क्षत्रिय अपने प्रमुख कार्य करने के साथ-साथ वैश्य द्वारा किये जाने वाले कार्य भी करते थवैसे तो युद्ध हे क्षत्रिय की पहचान है लेकिन मनु ने क्षत्रियों को वैश्य द्वारा किये जाने वाले कार्य अपनाने और करने की अनुमति दी है परन्तु उनके लिए कृषि-कर्म को वर्जित बताया है।
वैश्य
गुप्त काल में वैश्य वर्ण के प्रमुख कार्य थे व्यापार, व्यवसाय और कृषि। इस काल में ना सिर्फ क्षत्रियों को वैश्य द्वारा किये जाने वाले कार्य करते हुए दिखाया गया है बल्कि वैश्य वर्ण के लोगों द्वारा क्षत्रिय कर्म करने का उल्लेख भी किया गया है। यह भी कहा गया है की वैश्य वर्ण के लोगों को आपातकाल में दूसरे वर्ण के कार्य अपनाने की अनुमति थी। वैश्य राजकीय कार्य तो करते हे थे इसके साथ-साथ उन्हें गौ, वर्ण और ब्राह्मण की रक्षा के लिए शस्त्र ग्रहण और सैनिक कार्य करने की अनुमति भी थी।
शूद्र
चार वर्ण वाली गुप्तकालीन वर्णव्यवस्था में अंतिम वर्ण था शूद्र। गुप्तकाल में शूद्रों की स्थिति मौर्यकाल के काफी संतोषजनक थी। साधारणतः शूद्रों के काम थे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णो की सेवा करना। ह्नेनसांग ने शूद्रों का कृषक (खेतिहर) वर्ग के रूप में उल्लेखित किया है जबकि हैयाज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार शूद्र कृषक, व्यापारी और कारीगर भी हैं। कई श्रोत द्वारा यह भी पता चलता है की शूद्रों ने सैनिक वृत्ति को भी अपनाया था। इसके अतिरिक्त गुप्तकाल में शूद्र वर्ण को महाभारत और रामायण पढ़ने का भी अधिकार प्राप्त था। विष्णुस्मृति यह बताती है कि शिल्पकारों और सेवक की गणना शूद्रों में ही कि जाती है। गुप्त काल से यह भी ज्ञात होता है कि शूद्र वर्ण को इस काल में अस्पृश्य नहीं समझा जाता था और समाज में उनको एक समुचित स्थान प्राप्त थ।
उपजातियां
गुप्तकाल में कई उप जातियों का उदगम हुआ। इन चार प्रकार के वर्णों के अलावा कई छोटे छोटे प्रकार की उपजातियों का जन्म हुआ जिसके कारण समाज में जातिगत जटिलता बहुत बढ़ जाती है। उपजातियों का निर्माण दो प्रकार से होता है- पहला कर्म के आधार से जाति का नाम दे दिया जाता है। दूसरा कई बार दो अलग- अलग जातियों में विवाह होने पर उनसे उत्पन्न संतान को एक अलग जाति में बांट दिया जाता था।
महत्तर- वस्तुत:
गुप्त काल में महत्तर कहा गया है गांव के वृद्ध जानो को जिनकी अनुमति ली जाती थी ज़मीन के क्रय-विक्रय बिक्री में। बाद में यह एक पृथक जाति ही बन गयी ।
कायस्थ
गुप्तकाल में सर्वप्रथम कायस्थ का उल्लेख है याज्ञवल्क्य स्मृति में। कायस्थ का कार्य लेखन या पढ़न पाठन का था इनका किसी उपजाति से सम्बद्ध नहीं बताया गया है। प्रथम कायस्थ नामक अधिकारी का उल्लेख गुप्तकालीन अभिलेखों में मिलता है जिससे ये स्पष्ट हो जाता है कि कायस्थ नामक जाति का उदय गुप्त काल में ही हुआ।
चंडाल या अछूत
फाहियाम के वर्णन के अनुसार गुप्त काल में अस्पृश्य वर्ग था। इन्हें अछूत या चंडाल कहा गया। चंडाल को सबसे निम्न दर्जा दिया जाता था। शवों को जलाने, उन्हें गाड़ने, मछली मारने, शिकार करने, मांस बेचने का काम इन्हीं का होता था। फाहियान ने भी यही लिखा है कि अछूतों की स्थित बेहद खराब थी। उन्हें समाज में घुसने नहीं दिया जाता था, उनके निकलने पर सड़के खाली करवा दी जाती थी।
स्त्रिों की स्थिति
- गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आयी। इस काल में बाल विवाह पर जोर दिया गया। सामान्यतः 12-13 वर्षों में लड़कियों की शादी होती थी। साथ ही इस काल में लड़कियों के उपनयन और वेदों के अध्ययन को निषेध किया है।
- भानुगुप्त के एरण अभिलेख से सती प्रथा का साक्ष्य मिलता है। साथ ही इस समय देवदासी प्रथा का भी प्रचलन था। कालिदास के गंथ्र मेघदूत में देवदासी के रखे जाने का उल्लेख मिलता है।
- इसके अलावा उस काल में वेश्याओं का भी अस्तित्व रहा है। ‘कामसूत्र’ और ‘मुद्राराक्षस’ में गणिकाओं के प्रशिक्षण की बात की गई है। इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय यह व्यवसाय काफी प्रचलित था।
- हालांकि इस काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं मिलता है। किन्तु कुलीन वर्ग की महिलाएं बाहर जाते वक्त मुंह ढ़कती थीं।
दासों की स्थिति
गुप्तकाल दास प्रथा में शिथिलता को दर्शाता है। वहीं दासों की एक सूची का उल्लेख मिलता है नारद स्मृति जो 15 प्रकार के दास से अवगत कराती है।
- दास होने के कारणों को दर्शाया गया है नारद स्मृति में, जो बताती है कि दास कैसे बने – ऋण चुकाने में असमर्थ बना दास, कुछ थे स्वामी द्वारा प्रदत्त दास और कुछ थे प्राप्त किये हुए दास। नारद स्मृति से यह भी ज्ञात होता है कि संकट के समय जो दास अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा कर दासत्व से मुक्ति भी पा लेता था दास।
- गुप्त काल में दास प्रथा के कमजोर हो गयी थी। जिसकी मुक्ति के अनुष्ठान का विधान स्वंय नारद ने ही दिया था। भूमिदान के कारण भूमि का विखंडन हुआ। अत: छोटे कृषि क्षेत्र के लिए स्थाई दासों और मजदूरों की जरूरत कम होने लगी। जिसके कारण दासों की उपयोगिता कम हो गयी।