भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाले गुप्त वंश का इतिहास कई रूपों में उल्लेखनीय माना जाता है। कला, व्यापार व वाणिज्य तथा साहित्य क्षेत्रों में दो शताब्दियों तक स्वर्ण युग के रूप में चर्चित गुप्त वंश का पतन किसी एक कारण का परिणाम नहीं था। गुप्त वंश के संस्थापक श्रीगुप्त के वंशज समुद्रगुप्त तक स्वर्णयुग की पताका को लहराने में सफल रहे। लेकिन इसके बाद यह पताका धूमिल होने लगी और गुप्त वंश का पतन आरंभ होने लगा। इतिहासकार इसके लिए विभिन्न कारणों को जिम्मेदार मानते हैं। इन कारणों को निम्न रूप में समझा जा सकता है:
अकुशल राजशाही:
चन्द्रगुप्त द्वितीय के पौत्र स्कंदगुप्त ने 455-467 ई. तक कुशलतापूर्वक व वीरता से शासन किया था। लेकिन स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद कोई भी उत्तराधिकारी अपने पूर्वजों की परंपरा को आगे ले जाने में सफल नहीं हुआ था। इस समय तक आते हुए गुप्त कुमारों में पारिवारिक वैमनस्य व विद्वेष के भाव मुखर हो गए थे। यह भाव इतने प्रबल हो गए, कि कुछ राजकुमारों ने अपने अलग राज्य बना कर सत्ता का विभाजिकरण शुरू कर दिया था। इस प्रकार गुप्त वंशकाल का स्वर्ण युग विघटन के कगार पर आ खड़ा हुआ। राजनैतिक एकता की समाप्ति ने विरोधी ताकतों को बल और मौका दे दिया।
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विदेशी आक्रमण:
गुप्त वंश की पारिवारिक कलह ने विदेशी ताकतों को आक्रमण करने का अलिखित न्यौता भेज दिया था। हालांकि शक और हूणों ने हमेशा आक्रमण की नीति अपनाई जिसे स्कंदगुप्त तक के शासकों ने हमेशा विफल कर दिया था। लेकिन स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद यह संभव नहीं रह गया था। हूणों की सेना ने तोरमाण के नेतृत्व में 500 ई. के आसपास भारत पर पुनः आक्रमण किया और गुप्त वंश मालवा और मध्य भारत को हारने से नहीं बचा सका। तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने अपने पिता से भी अधिक तेज़ी और क्रूरता का रूखा अपनाया और फिर से भारत पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार हूण और शक अपनी शक्ति का विस्तार करते रहे और गुप्त साम्राज्य सिमटता चला गया।
अकुशल प्रशासन:
जिस गुप्त वंश का सूरज, कुशल व दृढ़ प्रशासन व्यवस्था के कारण उगा था, वही प्रशासन इसके पतन का कारण भी बन गया। गुप्त शासनकाल में सामंती प्रथा वंशानुगत थी। राजतंत्र के विघटन ने सामंतों को भी अपनी अलग शासन व्यवस्था बनाने का कारण मिल गया। परिणामस्वरूप विभिन्न सामंतों ने अपने इलाकों को एक अलग राज्य के रूप में प्रसिद्ध करके देश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर चन्द्रगुप्त प्रथम के प्रयासों को पूरी तरह से विफल कर दिया था। इस प्रकार जिस भारत को चन्द्रगुप्त ने छोटे-छोटे टुकड़ों से जोड़कर एक देश बनाया था, वह अब पुनः अपनी मूल स्थिति में आ चुका था।
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बौद्ध धर्म का प्रसार:
अहिंसक बौद्ध धर्म का प्रभाव गुप्त वंश के शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में दिखाई देने लगा था। इसके परिणामस्वरूप गुप्त वंशज शासन करके साम्राज्य बढ़ाने के स्थान पर अहिंसक प्रवृति को अपनाने लगे। इस प्रकार गुप्त वंश के शासक का धर्म युद्ध के स्थान पर पुण्यअर्जन होने लगा। अब सैन्य सज्जा के स्थान पर देश में चैत्य और विहार सजाने पर ज़ोर दिया जाने लगा। इससे सैनिकों का मनोबल टूटने लगा और युद्ध के स्थान पर वे अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए मजबूर हो गए थे। इसी के परिणामस्वरूप आसानी से जीतने वाले युद्ध हरे जाने लगे। एक युद्ध में हूण शासक मिहिरकुल ने नरसिंघगुप्त के ऊपर आक्रमण किया। तब गुप्त वंशज ने बिना युद्ध किए आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन नरसिंघगुप्त के सैनिकों ने मिहिरकुल को फिर भी बंदी बना लिया लेकिन नरसिंहगुप्त ने मिहिरकुल को छोड़ने का आदेश दे दिया। यही नहीं राजकोष का धन का अधिकतर भाग अब बौद्ध संस्थाओं एवं विहारो की ओर जाने लगा।
इस प्रकार इन सभी कारणों ने सम्मिलित रूप से गुप्त वंश का सूरज अस्त हो गया।