पूर्व-औपनिवेशिक भारत की पहचान अपनी स्वदेशी शिक्षा प्रणाली के लिए रही थी। अंग्रेजों ने वर्ष 1813 तक तो शैक्षिक क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं किया, मगर इसके बाद भारतीयों के सहयोग या सीमित संख्या उनके साथ के बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने भारत में शिक्षा की पश्चिमी प्रणाली शुरू कर दी। बाद में इसके परिणामस्वरूप प्रेस भी अस्तित्व में आया और साहित्य भी मुखर हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी सिर उठाने लगी।
भारत में पश्चिमी शिक्षा का प्रादुर्भाव
- शैक्षिक नीति को ऐसे तैयार किया गया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक जरूरतों को पूरा किया जा सके। साथ ही ब्रिटिश औपनिवेशिक का वर्चस्व भी बना रहे।
- इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेजों में भी कुछ लोग मौजूद थे, जो वास्तव में भारत में प्राच्य विद्या के प्रचार में रुचि रखते थे।
- वॉरेन हेस्टिंग्स ने 1781 में कलकत्ता मदरसा शुरू किया था।
- जोनाथन डंकन ने 1791 में बनारस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की थी और विलियम जेम्स ने स्थापना की थी 1784 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की।
- भारत में शिक्षा के विकास पर नजर बनाए रखने के लिए 1823 में सार्वजनिक निर्देश देने वाली एक सामान्य समिति गठित की गई थी।
- लार्ड मैकाले और लॉर्ड बेंटिक ने प्राच्यवादी दृष्टिकोण की ओर इशारा किया और घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश सरकार की महानता को लोग जानें, इसलिए भारत के मूल निवासियों के बीच यूरोपीय साहित्य और विज्ञान को बढ़ावा देना है। शिक्षा के उद्देश्य के लिए विनियोजित धनराशि अकेले अंग्रेजी शिक्षा पर नियोजित होगी।
- मैकाले और विलियम बेंटिन के अलावा चार्ल्स ग्रांट और विलियम विल्बरफोर्स के प्रयास भी महत्वपूर्ण रहे।
- विलियम बेंटिक ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन करने के लिए अधिक धनराशि के आवंटन की घोषणा की थी। लॉर्ड ऑकलैंड ने ढाका, पटना, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, दिल्ली और बरेली में अंग्रेजी कॉलेज खोलकर अंग्रेजी सीखने को बढ़ावा देने के लिए भी प्रोत्साहन देना जारी रखा।
- 1841 में सार्वजनिक निर्देश की सामान्य समिति को समाप्त कर इसके स्थान पर शिक्षा परिषद की स्थापना कर दी गई थी।
- 1854 में पश्चिमी शिक्षा के विकास में एक और ऐतिहासिक पहलू था वुड का डिस्पैच।
- चार्ल्स वुड ने वर्गीकृत स्कूलों, उच्च विद्यालयों, मध्य विद्यालयों एवं प्राथमिक विद्यालयों के नेटवर्क की स्थापना के लिए और कलकत्ता, बॉम्बे व मद्रास में विश्वविद्यालयों की शुरुआत के लिए भी सिफारिश की।
- वुड की सिफारिश के अनुसार 1857 में मद्रास, बॉम्बे और कलकत्ता में तीन विश्वविद्यालय स्थापित किए गए थे।
- वुड्स डिस्पैच ने भारत में शिक्षा के विकास के लिए एक मॉडल के रूप में काम किया। भारत में पश्चिमी शिक्षा के लिए सरकारी समर्थन तो मिला ही, ईसाई मिशनरियों और अन्य लोगों ने भी इसमें गहरी दिलचस्पी ली।
- हिंदू कॉलेज, जिसे बाद के समय में डेविड हरे द्वारा कलकत्ता में प्रेसीडेंसी कॉलेज कहा गया, इसने और अन्य लोगों ने हिंदुओं के बीच धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को बढ़ावा देने में मदद की। पश्चिमी शिक्षा के साथ, महिला शिक्षा को भी व्यापक संरक्षण प्राप्त हुआ। बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी में भी शिक्षा के प्रसार के इसी पैटर्न को देखा जा सकता है।
- भारत में पश्चिमी शिक्षा से अंततः भारतीयों में एक नई भावना और एक नया आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा हुआ, जिसके कारण अंततः राष्ट्रवाद की भावना पैदा हुई।
प्रेस, साहित्य एवं अभिव्यक्ति की आजादी का उदय
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान, एंग्लो-इंडियन और यूरोपीय लोगों ने समाचार पत्र और पत्रिकाओं को प्रकाशित करना शुरू किया।
- जेम्स अगस्टस हिक्की ने 1780 में द बंगाल गजट नाम से एक साप्ताहिक प्रकाशित करना शुरू किया और तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कार्यों की आलोचना निःसंकोच की।
- हिक्की को भारत में पत्रकारिता के इतिहास में अग्रणी माना जाता है।
- 1818 में जे.एस. बकिंघम ने कलकत्ता जर्नल शुरू किया और ब्रिटिश अधिकारियों की नीतियों पर भी हमला किया। उन्हें भी इंग्लैंड भेज दिया गया।
- अंग्रेजों ने दस्तावेजों को प्रकाशित करने के लिए लाइसेंस प्रणाली की शुरुआत की। 1860 के दौरान द बंगाली और द अमृता बाजार पत्रिका बांग्ला भाषा में शुरू की गई थी।
- लॉर्ड लिटन 1878 के अपने वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट द्वारा वर्नाकुलर प्रेस को नियंत्रित और विनियमित करना चाहते थे। प्रेस और साहित्य ने भारतीयों की राष्ट्रीय चेतना को ढालने और आकार देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- विशेष रूप से इंडियन मिरर, बॉम्बे समाचार, द हिंदू पैट्रियट, अमृता बाजार पत्रिका, द हिंदू, केसरी, द बंगाली, बंगाली पब्लिक ओपिनियन, सुलभ समाचार, हितवादी, द हेराल्ड जैसे अखबारों की भूमिका उल्लेखनीय हैं।
- 1875 तक भारत में समाचार पत्रों की संख्या 475 हो गई। इन अखबारों ने भारत के आम लोगों के बीच आजादी पाने के लिए जागरूकता पैदा की।
- 1870 से 1918 की अवधि में प्रतिष्ठित और निर्भीक राष्ट्रवादियों के अधीन शक्तिशाली समाचार पत्र उभरे। समाचार पत्रों के साथ पुस्तकालय आंदोलन ने भी बड़े पैमाने पर राष्ट्रवाद और राजनीतिक भागीदारी की भावना को बढ़ावा दिया।
- बुद्धिजीवियों द्वारा निर्मित साहित्य ने भारत की जनता के बीच देशभक्ति चेतना को बढ़ावा दिया। इन लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बंकिम चंद्र, एम.जी. रानाडे आदि रहे।
निष्कर्ष
एक बात हमें याद रखनी होगी कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार से फैली जागरूकता के बाद उन दिनों अखबारों को राजनीतिक चेतना जगाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ प्रकाशित किया गया था। बताएं, आपके मुताबिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और औपनिवेशिक शासन का पर्दाफाश करने के अलावा प्रेस की क्या भूमिका रही?
press ka to role bahut hi imp tha no doubt but western education ka bhi role kam nahi raha indians ko jagruk karne me. upsc ke is matter ko bada badhiya likha aapne. accha notes hai.. thanks
Acchi jankari. kafi accha likha hai bhai
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