महापाषाण, जिसे कि मेगालिथिक के नाम से भी जाना जाता है, उसके नाम से ही यह स्पष्ट होता है कि इसका संबंध पत्थरों से हैं। हालांकि, पत्थरों से जितने भी स्मारक प्राचीन काल में बने हैं, उन सभी को महापाषाण की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। वैसे स्मारक जो विशाल पत्थरों से बने हैं, केवल उन्हें ही महापाषाण के तहत रखा जा सकता है। दरअसल, आवासीय इलाकों से काफी दूर पर जो कब्रिस्तान में बड़े पत्थरों से समाधियां बनी हुई होती थीं, ये उन्हीं के सूचक हुआ करते थे।
भारत में महापाषाण संस्कृति
- मुख्य रूप से ये दक्कन के इलाकों यानी कि गोदावरी नदी के दक्षिणी हिस्सो में फैली हुई थी।
- वैसे, पश्चिमी भारत, मध्य भारत एवं उत्तर भारत में भी कुछ जगहों पर इसके प्रमाण मिले हैं।
- उत्तर प्रदेश में आगरा, मध्य प्रदेश में बादरा और चंदा, बिहार में सरायकेला, राजस्थान में जयपुर से करीब 32 मील की दूरी पर स्थित पूरव देवसा, अलमोड़ा में देवधूरा, नागपुर एवं फतेहपुर सीकरी के समीप खेड़ा में भी इस संस्कृति के होने के साक्ष्य मिले हैं।
- इनके अलावा हिमालय की तराई में लेह एवं पाकिस्तान में कराची के समीप भी ऐसे स्मारक मिले हैं।
कृषि व्यवस्था
- ई.एच. हंट एवं ए.आर. बनर्जी के अनुसार महापाषाण संस्कृति में लोगों ने टैंक आधारित सिंचाई का इंतजाम कर लिया था, जिसे कि क्रांतिकारी बदलाव कृषि के क्षेत्र में कहा जा सकता है।
- कुछ तटबंधों के बारे में यह पता लगाने का प्रयास चल रहा है कि वे मानव निर्मित थे या नहीं?
- जंगलों में कुछ स्थलों के मिलने से ये सवाल भी उठे हैं कि यदि वे जंगलों में रह रहे थे तो कृषि कैसे करते थे?
- बी. नरसिंहैया का इस बारे में मानना है कि दरअसल महापाषाण संस्कृति में लोगों ने इन टैंकों या कुंड का निर्माण नहीं किया होगा, बल्कि प्राकृतिक तरीके से सरोवर आदि बनाये गये होंगे, जिनमें संचित जल का इस्तेमाल वे कृषि के लिए नहीं, बल्कि रोजमर्रा के काम के लिए करते होंगे।
- कई विद्वानों का यह भी मानना है कि महापाषाण संस्कृति में लोगों ने इस बात का ध्यान रखा था कि जो उपजाऊ और कृषि योग्य भूमि हैं, उनका इस्तेमाल कब्रिस्तान या मकबरे बनाने आदि के लिए न किया जाए।
- मुख्य रूप से चावल ही उनका आहार था।
- संगम साहित्य में भी वर्णित है कि बेहद प्रचीन काल से ही चावल दक्षिण भारत का प्रमुख आहार रहा है।
- चावल के अलावा जो अन्य फसलें उपजाई जाती थीं उनमें बाजरा, गेहूं, रागी, सेम, कोदो, संबुल, रुई, मसूर, बेर, मटर, चुकंदर, सांक्रू और कुलथी आदि शामिल थे।
पशुपालन
- महापाषाण के स्थलों से अवशेष मिले हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि उस काल में गोरू, सूअर, कुत्ता, मुर्गा, गदहा, घोड़ा और भैंस आदि को पालूत पशुओं के तौर पर पाला जाता था।
- माना जाता है कि सर्वाधिक संख्या में गोरू और भैंस की ही प्रधानता थी।
- सूअरों और मुर्गियों के अवशेष कम मिले हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन्हें छोटे पैमाने पर पाला जाता था।
शिकार
- बरछे, भाले और बाण आदि खुदाई में महापाषाण काल के स्थलों से मिले हैं, जो उस काल के लोगों के शिकार करने की भी पुष्टि करते हैं।
- शिकार के पत्थर के गोले भी इस्तेमाल में लाये जाते थे।
- लकड़बग्घा, सांभर, जंगली सूअर, चैसींगा, काकड़, रीछ, जलकुक्कुट, नीलगाय, मोर, बाघ और तेंदुआ आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो दर्शाते हैं कि इनका शिकार भोजन के लिए किया जाता था।
धातुओं का इस्तेमाल
- खुदाई में मिली चीजों से पता चलता है कि लोहा, सोना, चांदी और तांबा जैसी धातुएं तब इस्तेमाल में आती थीं।
- पिघलाने वाली भट्टियां, कुठालियां, चिकिनी मिट्टी से बनी शुंडिकाएं, लौह अयस्क के टुकड़े, पुराने तांबे, खनिज संसाधन और लोहे की खान जो खुदाई के दौरान मिले हैं, वे इनकी पुष्टि करते हैं।
- कुदाल, हंसिया, फाल, कुठार और फावड़े आदि को इस्तेमाल होता था।
- फावड़े के अधिक प्रयोग के प्रमाण मिले हैं।
लौह उद्योग
- महापाषाण काल के दौरान इस्तेमाल में आने वाली सबसे प्रमुख धातु थी लोहा।
- खेती से लेकर उपकरणों आदि के निर्माण में लोहे का प्रयोग होता था।
- दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तरह-तरह से इन्हें उपयोग में लाया जाता था।
- लौह पदार्थ जितनी बड़ी मात्रा में यहां से मिले हैं, वे उनकी अर्थव्यवस्था और उनकी जीवनशैली में लोहे की भूमिका के बारे में इशारा करते हैं।
काष्ठ शिल्प
- महापाषाण काल में लोग शिल्प में भी रुचि लेते थे। वे इसमें कुशल भी थे।
- बसूला, छेनी, मेरव, कुठार, हथौड़ा, निहाई, बेधक आदि लकड़ी पर काम करने के औजार खुदाई में बरामद हुए हैं।
- ब्रासिका, बबूल, शीशम, सागौन और स्टेलारिया के पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल काष्ठ शिल्प के लिए इनके द्वारा किया जाता था।
- लकड़ी से बने हल ये खेती में प्रयोग में लाते थे।
- कुटीर उद्योगों में खंभे के लिए लकड़ी प्रयोग में आती थी। इसके लिए छाजन लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता था।
- घर बनाते समय भी लकड़ी इस्तेमाल में आती थी, इसके प्रमाण ब्रह्मगिरी और मास्की से मिल चुके हैं।
मिट्टी के शिल्प
- मिट्टी से बने काले और लाल बर्तन, पालिशदार काले बर्तन, धूसर बर्तन, अभ्रकी लाल बर्तन, लाल धूसर लेपित चित्रित बर्तन आदि महापाषाण काल में बनाये जाते थे।
- काले और लाल बर्तन में थाली, कलश, टोंटीदार बर्तन और शंकु आकार वाले बर्तन शामिल थे।
- पालिशदार बर्तन में मूठदार और किनारेदार ढक्कन, चषकें, वृत्ताकार रिंग स्टैंड आदि शामिल थे।
व्यापार
- आर.एन. मेहता व के.एम. जॉर्ज जैसे विद्वानो के मुताबिक समुद्री रास्ते से कांस्य, तांबा और टिन आदि मंगाये जाते थे।
- दांतेदार बर्तन, दो हत्था कलश आदि जो खुदाई में मिले हैं, वे भी इसकी पुष्टि करते हैं।
- भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में लौह की मांग बढ़ रही थी, जिसकी आपूर्ति भी करने की कोशिश महापाषाण संस्कृति के इन लोगों ने की थी।
सामाजिक संगठन और आवास
- कब्र में दफनाये गये अवशेषों से संकेत मिलते हैं कि हैसियत और पद के आधार पर लोगों के बीच विभेद उस वक्त हुआ करता था।
- चट्टान काट कर बनाई गई समाधियां, कांस्य या सोने की समाधियां कम हैं, जिसका मतलब है कि उस दौरान भी उच्च वर्ग था, जिनकी संख्या सीमित थी।
- उस दौरान लोग गांवों में अधिक थे, मगर नगर की ओर उनका झुकाव जरूर था।
- हाथों से काम करने वाले लोग अधिक थे।
- अधिकतर घर खर-फूस आदि से बनते थे और ये लकड़ी के खंभों पर टिके होते थे।
- कब्र में मृतक के साथ कई चीजें भी इस विश्वास के साथ डाल दी जाती थीं कि परलोक में उन्हें इनकी जरूरत होगी।
- माना जाता है ये लोग जनजातीय वंशज समुदाय के थे। इनमें सरदार सर्वश्रेष्ठ होता था।
- इस दौरान भौतिक और सांस्कृतिक सामग्री का लोगों के बीच आदान-प्रदान भी हुआ करता था।
चलते-चलते
कुल मिलाकर महापाषाण या मेगालिथिक संस्कृति के बारे में कहा जा सकता है कि नव पाषाण काल के मुकाबले उन्होंने काफी विकास कर लिया था। कृषि से लेकर शिकार, शिल्प, उद्योग व सामाजिक संरचना आदि में भी उन्होंने प्रगति दिखाई। क्या आपको नहीं लगता कि मेगालिथिक संस्कृति अपने समय के हिसाब से विकास के रास्ते पर काफी आगे बढ़ चुकी थी?
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