सिक्ख समुदाय और खालसा पंथ की उत्पत्ति का राज़ ऐसे खुला

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धर्म निरपेक्ष भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार कुल सात धर्म माने जाते हैं जिसमें चौथे नंबर पर सिक्ख धर्म को स्थान मिला है। इसी जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 2 करोड़ लोग इस धर्म के अनुयाई हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि सिक्ख धर्म का इतिहास केवल 5 सदी पुराना यानि 16वीं सदी के आसपास ही माना जाता है। भारत में जिस सामय हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई धर्म का डंका बज रहा था, उस समय पंजाब के रास्ते एक नए धर्म ने जन्म लिया जिसे सिक्ख धर्म का नाम दिया गया।

‘सिक्ख’ की उत्तपत्ति और विकास :

‘सिक्ख’ शब्द वास्तव में संस्कृत के शब्द ‘शिष्य’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है अनुकरण करने वाला या सरल अर्थ में ‘चेला’। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सिक्ख धर्म ‘गुरु-शिष्य’ परंपरा पर आधारित है। सिक्ख धर्म की उत्तपत्ति का आधार गुरु नानक देव (1469-1539)जी को माना जाता है जिन्होनें उस समय समाज में धर्म के नाम पर फैले पाखंड और गलत धारणाओं के विरोध स्वरूप एक नयी अवधारणा का विकास किया था। उन्होनें अपने विचारों के माध्यम से समाज को ‘ईश्वर का एक रूप’ और ‘प्रकृति ही ईश्वर है’ के विचार का ही प्रचार एवं प्रसार किया था।

संत का रूढ़िवादिता की ओर विरोध :

मध्यकालीन भारत में 15वीं शताब्दी में भारतीय समाज में हिन्दू और मुस्लिम धर्म रूढ़िवादिता काफी गहरे तक पैठ जमाये हुए थी। हिन्दू धर्म जो वैदिक काल से ही ‘शैव’ और ‘वैष्णव’ मत में बंटा हुआ था, का मुख्य विचार था कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए योगी बनना जरूरी है और जिसके लिए गृहत्याग ही एकमात्र मार्ग है। नानक देव ने इस विचार का विरोध करते हुए कहा कि ईश्वर को पाने के लिए अपनी सुख-सुविधाओं, जिम्मेदारियों और समाज को त्यागने की अवशयकता नहीं है। बल्कि जब कोई साधारण मानव, दूसरे मानव के दुखों को दूर करने का प्रयास करता है तब वह स्वयं ही भगवान को प्राप्त करने के मार्ग पर चल पड़ता है। उनका मानना था कि ईश्वर प्राप्ति के लिए उनके बताए रास्ते पर चलना ही पर्याप्त है।

इसके अतिरिक्त उस समय भारत में मुस्लिम शासकों की बर्बरता के कारण हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य भी अपने पंख फैला चुका था। नानक देव न दोनों मतों के लोगों को अपनी वाणी और विचारों से यह समझाने का प्रयास किया कि ईश्वर अमूर्त, अजन्मा और केवल एक है और कोई भी धर्म केवल उस तक पहुँचने का मार्ग है। इसीलिए उनके प्रवचनों में हिन्दू-मुस्लिम सूफी-संतों की वाणियों का मेल होता था।

सिक्ख धर्म का विकास:

गुरु नानक जी के प्रवचनों और विचारों से प्रभावित समाज ने उन्हें ‘गुरु’ की पदवी दे दी। 1539 में नानक देव जी के देहांत के बाद उनके सबसे प्रिय शिष्य लहना सिंह को ‘गुरु’ की गद्दी सौंप दी गई और उन्हें ‘गुरु अंगद देव’ का नाम दिया गया।

गुरु अंगद देव ने नानक देव जी के विचारों को लिखित रूप ‘गुरु वाणी’ के नाम से प्रसिद्ध किया और उनकी इस परंपरा को उनके शिष्य ‘गुरु अमर दास’ (1552-74) ने जारी रखा। तीसरे गुरु अमर दास एक समाज सुधारक के रूप में प्रसिद्ध थे और उन्होनें चौथे गुरु के रूप में अपने दामाद राम दास (1574-81) को चौथे गुरु के रूप में घोषित कर दिया।

गुरु रामदास ने एक शहर ‘रामदासपुरा’ के नाम से बसाया जिसे बाद में ‘अमृतसर’ का नाम दिया गया। इस शहर में इनके पुत्र अर्जन देव ने एक सरोवर खुदवाया जिसके बीच में एक गुरुद्वारे का निर्माण भी करवाया। इसी सरोवर को बाद में अमृतसर (अमृत से भरा हुआ सरोवर ) और गुरुद्वारे को ‘स्वर्ण मंदिर’ का नाम दिया गया।

गुरु रामदास के बाद के सभी छह गुरु एक ही परिवार से संबन्धित थे। पांचवे गुरु उनके पुत्र गुरु अर्जन देव (1581-1586) ने एक ग्रंथ की रचना का काम शुरू किया और इसे ‘आदि ग्रंथ’ का नाम दिया गया। इस ग्रंथ में अबतक के सभी गुरुओं और सभी धर्मों के संतों की वाणी को सम्मिलित किया गया था।

सिक्ख गुरुओं का मुगल विरोध :

गुरु अर्जन देव पहले गुरु थे जिन्होनें क्रूर मुगल सता का विरोध करने का साहस किया और इसी कार्य में शहीद हो गए। 1606 में उनकी शहादत के साथ ही सिक्ख धर्म के इतिहास की धारा का रुख भी मुड़ गया। उनके बाद उनके पुत्र गुरु हरगोविंद छटे गुरु बने और प्रत्यक्ष रूप से युद्ध का हिस्स बन गए। गुरु हरगोविंद वो पहले गुरु बने जिन्होनें न केवल शस्त्र धारण किए बल्कि दो छोटी कटारों को अपने पहनावे का अनिवार्य हिस्सा बना लिया। मानव और मानवता की रक्षा के लिए हर समय तत्पर रहने के लिए हथियारों के रूप में इन कटारों को अनिवार्य समझा गया।

धर्म-यात्रा में ठहराव-उठान :

सिक्ख धर्म के प्रचार-प्रसार में सातवें, आठवें और नौवें गुरु क्रमशः गुरु हर राय, गुरु हर किशन और गुरु तेग बहादुर के समय में थोड़ा ठहराव आ गया था। इसका कारण था कि यह सभी गुरु समाज पर अपने वंशजों के समान प्रभाव नहीं छोड़ पाये थे।

सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह, हरी किशन जी के पुत्र थे और मात्र नौ वर्ष की अवस्था में ही उन्होनें गुरु पद की पदवी सम्हाल ली थी। गुरु गोविंद सिंह हिन्दी के अलावा पारसी और संस्कृत भाषा के भी ज्ञाता थे। उन्होनें ‘दशम ग्रंथ’ के नाम से अपनी रचनाओं का संकलन तैयार किया जो एक धार्मिक ग्रंथ की अपेक्षा सेक्युलर अधिक था। इसे ही बाद में ‘गुरु ग्रंथ साहब’ का नाम दिया गया जिसमें सभी संतों की वाणी का समावेश किया गया था।

योद्धा गोविंद सिंह:

गुरु गोविंद सिंह जब 15 वर्ष के था, उनके पिता को औरंगज़ेब ने इस्लाम न कबूल करने के अपराध में मरवा डाला था। इस घटना का गोविंद सिंह पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होनें धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ ही मुगलिया सल्तनत का विरोध करना भी अपना उद्देश्य बना लिया। इसी क्रम में गोबिन्द सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की जिसका उद्देश्य सिक्ख धर्म के अनुयायियों के लिए कुछ नियमों का निर्धारन किया। इसके साथ ही उन्होनें गुरु नानक देव व अन्य गुरुओं के प्रवचनों का अनुसरण करने का निर्देश दिया और इसके साथ ही ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को ही सर्वोच्च गुरु की पदवी प्रदान की। 1708 में गुरु गोबिन्द सिंह की हत्या के बाद उन्हें अंतिम शरीरी गुरु के रूप में स्वीकार किया गया। इसके बाद से अब तक ‘ग्रंथ साहिब’ को ही सिक्ख गुरु का पद दिया गया है।

खालसा पंथ का उदय:

खालसा शब्द वास्तव में फारसी शब्द ‘खालिस’ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है ‘शुद्ध’। इस पंथ की स्थापना सिक्खों के दसवें गुरु , गुरु गोविंद सिंह द्वारा की गई थी। इस पंथ के विकास के पीछे गोविंद सिंह की मंशा पूर्ववर्ती गुरुओं की शिक्षा का सभी लोगों के बीच प्रसार करने की थी। इस पंथ में उन्होनें सभी गुरुओं के गुणों और शिक्षाओं की इस प्रकार सम्मिलित करने का प्रयास किया:

1. गुरु नानक देव जी का दिया हुआ सतनाम रूपी गुरुमंत्र,

2. गुरु आनंद देव जी का गुण उनकी शालीनता और संतोष थे

3. गुरु अमरदास जी ने गुरु महिमा का ज्ञान करवाया था

4. गुरु नामदास जी की अनन्य संगत व्यवस्था

5. गुरु अरजनदेव देव जी का सत्य के लिए बलिदान

6. गुरु हरगोविंद जी की शेर जैसे दहाड़

7. गुरु हर राय जी द्वारा दी जाने वाली आशीर्वाद परंपरा

8. गुरु हरकिशन जी की गुरुभक्ति

9. गुरु तेगबहादुर जी की देश के सम्मान के लिए सिर कटा कर बलिदान देने की शक्ति

गुरु जी के पंज प्यारे :

गुरु गोबिन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही ‘पंज प्यारे’ भी सजाये थे। ये उस समय अलग-अलग समाज से आए गुरु जी के भक्त थे जो गुरु जी के आदेश पर अपने सिर कटाने को तैयार थे। गुरु गोबिन्द सिंह ने उसी समय ‘अमृत’ बनाया जिसके लिए एक कटोरे पानी में बताशे घोल कर उसे कटार से मिला दिया। इस ‘अमृत’ को उन्होनें उन पाँच अनुयायियों को ‘छकाया’ और इसके साथ ही इन पंज प्यारों को गुरु के समान अधिकार भी प्रदान किए। उसके बाद से आज तक यह पंज प्यारे ‘भाई मोहकम सिंह’, ‘भाई धर्म सिंह’, भाई साहिब सिंह’ , ‘भाई हिम्मत सिंह’, और ‘भाई दया सिंह’,  और के रूप में प्रसिद्ध हैं। हर वर्ष होने वाले गुरु पर्व के अवसर पर गुरु ग्रंथ साहब की पालकी के आगे यही पंज प्यारे सजाये जाते हैं।

नीला रंग और ककार की शुरुआत :

गुरु गोबिन्द सिंह जी ने औरगजेब द्वारा सिक्खों पर किए जाने वाले अत्याचार का सामना करने के लिए एक अलग समूह बनाया और उसे खालसा पंथ का नाम दिया। गुरु ने उनके लिए नीले कपड़ों और ककार -केश, कंघा, कच्चा, कडा, कटार को अनिवार्य कर दिया। पंथ की स्थापना के समय इसके अनुयायियों को अकाली कहा जाता था। इसी अकाली सेना के एक भाग को ‘निहंगी सेना’ का नाम दिया गया था। यह शब्द भी फारसी भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है मगरमच्छ और उस व्यक्ति का प्रतीक बनाया गया जो किसी भी अत्याचार के समक्ष झुकता नहीं है। निहंग पूरी तरह से साधु और यायावर प्रकृति के होते हैं जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते और केवल अपनी जरूरत भर के लिए ही दान स्वीकार करते हैं। आजीवन अविवाहित रहने वाले निहंग हर प्रकार के मोह और ममता से परे होते हैं।

इस प्रकार सिक्ख धर्म ने अन्य सभी धर्मों में फैली वस्तु और मूर्ति पूजा का खंडन करते हुए ईश्वर के निरंकार रूप की धारणा का विकास किया। वहीं खालसा पंथ के माध्यम से समाज के कमजोर वर्ग की सहायता का बीड़ा भी उठा लिया।

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