क्या आप 23 जनवरी 1556 और 26 दिसंबर 2003, इन तारीखों के बीच क्या समानता है, बता सकते हैं, जी हाँ, ये वो दो तारीखे हैं जब विश्व में दस बड़े माने जाने वाले भूकंपों में से दो सबसे बड़े भूकंप आए थे। सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि भूकंप पृथ्वी की आंतरिक सतह में होने वाली बड़ी हलचल का परिणाम होते हैं। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि इस हलचल का वास्तविक कारण क्या होता है? क्या आप इस बात पर यकीन करेंगे कि पृथ्वी के ऊपर होने वाले परिवर्तन ही आंतरिक परिवर्तन के मूल कारण होते हैं। जी हाँ यह अविश्वसनीय है, लेकिन पूर्णतया सत्य है। पृथ्वी की जलवायु में आने वाले निरंतर विनाशकारी परिवर्तनों के अनेक दुष्प्रभावों में से एक है विश्व में बढ़ते हुए भूकंपों की संख्या।
जलवायु परिवर्तन और भूकंप में क्या संबंध है :
जलवायु परिवर्तन का विनाशकारी रूप जिसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है, दरअसल अनेक विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं का कारण बन रहा है। बढ़ती हुई बाढ़ें, सुनामी, तूफान, सूखा और भूकंप जैसी आपदाएँ केवल इसी लिए विश्व में अपना कहर बरसा रहीं हैं, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव चारों ओर स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।
गलोबल वार्मिंग वस्तुतः उस स्थिति को कहा जाता है जब वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा आवशयकता से अधिक हो जाती है। इसके कारण पृथ्वी पर तापमान में वृद्धि होने के कारण उष्मता में कई गुना की वृद्धि हो जाती है। यह उष्मता समुद्री जल के वाष्पीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देता है और यही वाष्प बादलों के माध्यम से वर्षा बन जाती है। इस वर्षा का मुख्य कारण कार्बन डाइऑक्साइड होती है इसलिए वर्षा के जल में भी इसी ज़हरीली गैस के अंश पाये जाते हैं। जब यह एसिडिक वर्षा का पानी पृथ्वी की उपजाऊ सतह को काटता हुआ उसमें मौजूद सभी खनिज लवण पुनः नदी और समुद्र के पानी में मिला देता है।
जब यह उपजाऊ खनिज-लवण मिला पानी समुद्र तल में पहुंचता है तब यह ठोस चट्टान के रूप में वहाँ जमा होता रहता है। यह प्रक्रिया धरती में पुनः चट्टानों के निर्माणों को जन्म देती है जो प्लेट टेक्टोनिस के सिद्धान्त के रूप में एक दूसरे के पास और दूर जाने की प्रक्रिया शुरू कर देती हैं। इस प्रक्रिया में धीमी गति से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का निर्माण शुरू हो जाता है जो ज्वालामुखी रूपी विस्फोट के रूप में पुनः वातावरण में लौट आती है। इस प्रक्रिया में प्लेटों के खिसकने से या एक दूसरे के टकराने से भूकंप का जन्म होता है जो एक पृथ्वी पर विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर देता है।
इसके अतिरिक्त प्रो. बिल मैकगुरी ने 2012 अपनी लिखी किताब “वाकिंग द जाईंट : हाऊ ए चेंजिंग क्लाइमेट ट्रिगर अर्थक्यूएक , सुनामी एंड वोल्केनो” में यह स्पष्ट किया है कि भूकंप के आने का कारण पृथ्वी के अंदर ही नहीं बल्कि बर्फ का तेज़ी से पिघलने को भी माना जा सकता है। उन्होनें इस तथ्य को विस्तार से समझाते हुए लिखा है कि हिमयुग के समय की वह सारी बर्फ जिसने समूची पृथ्वी ढ़क रखा था, अब लगभग पिघल चुकी है। लेकिन अब बची हुई बर्फ पर्यावरण के बिगड़ते रूप के कारण बची हुई बर्फ का दबाव पृथ्वी पर बढ़ता जा रहा है जो भूकंप का कारण बनता जा रहा है। इसी तथ्य का समर्थन करते हुए हनोवर विश्वविध्यालय के भूवैज्ञानिक संस्थान के एंड्रिया हेंपेल ने 2010 में चेताया था कि भविष्य में पिघलने वाले हिम शैल मध्यम स्तर से लेकर बड़े पैमाने के भूकंप तक का कारण बन सकते हैं।
मैकगुरी के अनुसार यही कारण है कि 2002 से लेकर 2006 तक की अवधि में विश्व ने अनेक छोटे और मध्यम स्तर के भूकंपों का दर्द सहा है। अगर मानव ने इस बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया को रोकने के संबंध में कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो अगले 70-100 वर्षों में पुनः धरती में उसी प्रकार के भूकंप आ सकते हैं जिनके कारण हिमयुग की समाप्ति हो गई थी।
चेतावनी:
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जलवायु में आने वाले परिवर्तन और हमारे पैरों के नीचे से ज़मीन सरकाने वाले भूकंपों में सीधा संबंध है। यदि समय रहते जलवायु में घुले कार्बन डाइ ऑक्साइड रूपी जहर को नहीं हटाया गया तो आने वाले भूकंपों को रोकना नामुमकिन है।
हमें दुनिया को बचाना है!