ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय जनता पर किए जा रहे सख्त नियंत्रण को कमजोर करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास और आंदोलन किए गए थे। इनमें से कुछ प्रयास कुछ देर सफल भी रहे जिनमें गांधी जी द्वारा चलाये गए नमक आंदोलन या सविनय अवज्ञा आंदोलन। लेकिन इन आंदोलनों की उम्र 2-3 वर्ष थी। इसके बाद इनका असर जनता पर खत्म होने लगा। इसके बाद उस समय की सबसे प्रभावशाली राजनैतिक पार्टी कांग्रेस ने एक दूसरा रास्ता अपनाने का प्रयास किया। यह रास्ता था संवैधानिक सुधारो और प्रयासों का जिसके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया कि भारतीय जनता अपना शासन स्वयं निर्मित भी कर सकती है और नियंत्रित भी कर सकती है।
1. स्वराज पार्टी का गठन:
गांधी जी के चलाये अवज्ञा आंदोलन का 2-3 वर्षों के बाद असर खत्म होता देख कांग्रेस पार्टी के एक गुट ने ब्रितानी सरकार को संवैधानिक रूप से मात देने का स्वर उठा लिया। हालांकि गांधी जी इस विचार से कोई खास सहमत नहीं थे, लेकिन इसके लिए उन्होनें कांग्रेस को अपना निर्णय लेने के लिए कभी मजबूर नहीं किया। इस समय कांग्रेस वामपंथी और दक्षिणपंथी गुटों में बंट चुकी थी। लेकिन दोनों ही गुट संवैधानिक प्रयासों के लिए एकमत थे और इसके लिए मई 1934 में ‘स्वराज्य पार्टी’ का पुनर्गठन करके अपने संवैधानिक प्रयासों की दिशा में ठोस कदम उठा लिया था।
2. कांग्रेस का आंतरिक मतभेद:
इस समय कांग्रेस में एक विषय को लेकर आंतरिक रूप से मतभेद चल रहा था। इस मतभेद के कारण थे:
- परिषद् प्रवेश
- आधिकारिक स्वतंत्र्ता
यहाँ कांग्रेसी नेताओं का ‘परिषद् परवेश’ का अर्थ 1935 में बने ब्रिटिश संविधान से बिलकुल अलग था। इस समय नेता परिषद् प्रवेश के माध्यम से 1935 में बने संविधान को भारतीय जनता के अनुकूल बनाना था। इस गुट का मत था कि संवैधानिक रूप से की जाने वाली सत्ता की भागीदारी एक अल्पकालिक उपाय है जो अधिक प्रभावशाली नहीं हो सकता है। भारत को आज़ाद करवाने के लिए संसदीय संघर्ष की नीति ही अच्छी रहेगी। इन नेताओं का मानना था कि भारतीय जनता के लिए अब जन आंदोलन कोई नयी बात नहीं है और केवल संसदीय नीति के माध्यम से ही जनांदोलन के लिए एक उपयुक्त आधार का निर्माण हो सकता है। दूसरी ओर कांग्रेस का वामपंथी गुट इस पूरी अवधारणा का विरोध कर रहा था। लेकिन इस मत को अधिक समर्थन न मिल पाने के कारण इसके बारे में निर्णय नहीं लिया जा सका।
3. चुनावी बिगुल:
1936 में लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा प्रांतीय चुनाव में हिस्सा लेना का निर्णय लिया गया । इस सभा में डॉ रजेंदर प्रसाद और वल्लभभाई पटेल ने गांधी जी की अव्यक्त सहमति से चुनावी दंगल के माध्यम से ब्रितानी सरकार का सामना करने का निश्चय किया। इसके साथ ही यह निर्णय भी लिया गया कि जब तक चुनाव पूरी तरह समाप्त न हो जाएँ, तब सत्ता की भागीदारी पर कोई भी विचार नहीं किया जाएगा। इसके साथ ही भारत में चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी गईं। इसके साथ ही कांग्रेस ने 1935 के अधिनियम के अंतर्गत विधानसभा के चुनाव भी लड़ने का फैसला किया । भारत के 11 प्रांत जिनमें मद्रास, आसाम, बिहार, संघीय प्रांत, बंबई, बंगाल, उत्तर प्रदेश के सीमांत प्रांत, पंजाब, मध्य प्रांत, सिंध, और उड़ीसा आदि शामिल थे में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और जीत का झण्डा लहरा दिया।
4. कांग्रेस का इनामी परिणाम:
भारतीय संविधान अधिनियम 1935 के अंतर्गत ब्रिटिश अधीन भारत में पहली बार चुनाव करवाए गए और इसमें बड़ी संख्या में जनता ने खुशी से हिसा लिया। इस खुशी में भारत की लगभग 30.1 लाख लोगों ने जिसमें 15.5 लाख महिलाएं थीं, पहली बार वोट डालने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया। कुल 1585 सीटों में से कॉंग्रेस ने 707 सीट जीत कर भारतीय संसद में अपनी पहुँच सिद्ध कर दी। इसके साथ ही मुस्लिम लीग ने भी 106 सीटें जीत कर अपनी पहुँच को भी बरकरार रखा।
इस चुनावी परिणाम से मुस्लिम लीग को थोड़ी हताशा भी हुई क्योंकि भारत के अनेक मुस्लिम बहुत क्षेत्रों में भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा, जो उनकी उम्मीदों से परे था। इस चोट के मलहम के रूप में लीग ने कांग्रेस के सामने के प्रस्ताव रखा। जिसके अनुसार वे मंत्रिमंडल में तभी कांग्रेस को सहयोग देंगे जब कांग्रेस अपनी ओर से किसी भी मुस्लिम प्रतिनिधि को नियुक्त नहीं करेगी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को नकार दिया और लीग ने कांग्रेस के सहयोग से हाथ खींच लिया।
चुनाव में इन दोनों दिग्गजों के अलावा एक छोटी पार्टी और थी जिसने अपना खाता खोल दिया था। यह पार्टी थी यूनिनियस्ट (पंजाब) जिसने कुल सीटों में से 5% की सीटें जीत ली थीं।
5. मंत्रिमंडल का गठन:
चुनावी मैदान में जीत कर कांग्रेस ने 1937 की जुलाई में भारत के छह प्रान्तों बम्बई, मद्रास, मध्य भारत, उड़ीसा, बिहार और संयुक्त प्रांत में अपने प्रतिनिधियों के द्वारा मंत्रिमंडल का गठन कर दिया। इसके कुछ समय बाद कांग्रेस की इस सूची में असम और पश्च्मिओत्तर प्रांत भी जुड़ गए। इस मंत्रिमंडल ने गांधी जी की उस सलाह को आत्मसात किया हुआ था जिसमें उन्होनें कहा था कि ब्रिटिश सरकार के बनाए हुए 1935 के अधिनियम को उनकी मर्ज़ी के अनुसार नहीं बल्कि राष्ट्रवादी लक्ष्य की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना है। इसके लिए अधिनियम की शक्तियों का उपयोग जनता के हितों के लिए किया जाएगा। हालांकि चुने हुए जनता के प्रतिनिधियों के पास अधिकार और वित्तीय संसाधन भी सीमित थे।
6. मंत्रिमंडल के लिए निर्णय”
कांग्रेस के चुनाव जीत कर संसद में आने से एक नयी समिति बनाई गई जिसे संसदीय समिति का नाम दिया गया। इस समिति में वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे। कांग्रेस के जीते हुए सभी प्रान्तों के प्रमुख को प्रधानमंत्री नाम दिया गया था। इस समिति और कांग्रेस के मिले जुले कार्य और निर्णय प्रमुख रूप से जनता के हितों में थे। इन निर्णयों का उद्देश्य नागरिक आज़ादी, कृषि सुधार, जन-शिक्षा को प्रोत्साहन, सार्वजनिक न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए कांग्रेस पुलिस स्टेशन की स्थापना और लोक शिकायतों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करके उनका हल निकलवाना था। इसके लिए कांग्रेस मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णयों में से कुछ इस प्रकार थे :
- किसानों को साहूकारों के कब्जे से छुटाने के लिए विभिन्न प्रकार के बिल पारित किए गए जिनसे किसानों और काश्तकारों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने में मदद मिली। इसके अलावा पशुओं के चरागाह के रूप में जंगली जमीन उपलब्ध करवाना, भू-राजस्व की दरों में कमी और नज़राना व बेगारी को भी खत्म करने के प्रयास किए गए।
- बंबई में कपड़ा मिलों और कपड़ा मजदूरों की अवस्था में सुधार करने के लिए 1938 में औध्योगिक विवाद अधिनियम भी प्रस्तुत किया गया।
- गांवों में रहने वाले लोगों की बुनियादी आवशयकताएँ जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कार्यों के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए गए।
- बंबई में जिन लोगों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में योगदान के रूप में अपनी ज़मीन दान दी थी, उन्हें वह ज़मीन वापस कर दी गई।
- भारतीय प्रेस पर लगाए गए सभी आरोप वापस कर दिये गए।
7. कांग्रेस का मूल्यांकन :
1937 में चुन कर आई कांग्रेस सरकार का कार्यकाल लगभग 28 माह तक रहा। इस अवधि में उनके द्वारा किए कार्यों का मूल्यांकन करने से पता चलता है कि :
- चुना गया कांग्रेसी मंत्रिमंडल यह सिद्ध कर सका कि भारतीय जनता अपना शासन स्वयं बिना किसी बाहरी सहायता के चला सकती है।
- ब्रिटिश सरकार के अफसरों के मानसिक बलों में भारी कमी आई।
- जमींदारी प्रथा को समाप्त करने में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बहुत हद तक सफल रहा।
- चुनाव और मंत्रिमंडल के कार्यों से भारतीय जनता को लंबे समय बाद अपने हाथों ही अपने शासन का स्वाद चखने को मिला।
- सम्पूर्ण प्रान्तों के मंत्रिमंडल ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के सम्पूर्ण विकास के लिए सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक विकास का किया जाना बहुत जरूरी है।
सम्पूर्ण विश्व पर द्वितीय विश्व युद्ध के संकट के कारण भारतीय मंत्रिमंडल को भी त्यागपत्र देकर पुनः ब्रिटिश सरकार के हाथों शासन को सौंपना पड़ा।