दक्षिण भारत का स्वर्ण युग के नाम से प्रसिद्ध चोल राजवंश नें दक्षिण भारत में 9वीं शताब्दी से लेकर 13 शताब्दी तक निर्विरोध देश ही नहीं विदेशी भूमि पर भी राज्य किया था। इतिहासकारों को चोल राजवंश के प्रमाण भारत के केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल में ही नहीं बल्कि ओड़ीशा व बंगाल और अंडमान निकोबार द्वीप के साथ विदेशी धरती पर भी दिखाई देते हैं। दक्षिण एशिया के साथ हिन्द महासागर और श्रीलंका, मालद्वीप, मलेशिया, थाइलेंड और इन्डोनेशिया तक लगभग 400 वर्ष तक शासन किया था। स्थिर और सुदृढ़ प्रशासन, कला और साहित्य को सम्मान और शक्तिशाली नौ सेना, चोल राजवंश के सुनहरी हस्ताक्षरों के रूप में जाने जाते हैं। किन्तु प्रकृति के नियम के अनुसार जैसे सूरज का भी अस्त होना तय होता है इसी प्रकार एक समय की ताकत के रूप में जाने वाले चोल राजवंश का भी पतन होना तय था।
चोल राजवंश का पतन क्यों हुआ:
भारतीय सभ्यता में अनेक विदेशी ताकतों के आक्रमण का ज़िक्र होता रहा है । चोल साम्राज्य के समय, भारत पर बार-बार आक्रमण करने वाले महमूद गजनवी ने भी आक्रमण किया था। अपने हर आक्रमण में गजनवी ने उत्तर भारत को बेइंतिहा लूट कर अपने घर को भरने का प्रयास किया था। लेकिन उस समय चोल राजवंश के राजेन्द्र चोल ने अपनी सेना को मजबूत करके दक्षिण भारत को गजनवी के आतंक से बचा लिया था।
आंतरिक कलह:
बाहर के आक्रमणकारी से अपनी रक्षा करने वाले चोल शासक आंतरिक ताकतों के सामने कमजोर पड़ते गए। चोल राजवंश के अंतिम शासक कुलोतुंग द्वितीय के बाद उनका राज्य सम्हालने वाले राजा बहुत अधिक बुद्धिशाली और बलवान सिद्ध नहीं हुए। वो अपने पूर्वजों की भांति अपने शासन को सुदृढ़ बनाने में असफल सिद्ध हुए।
सैनिक अकर्मण्यता:
अपनी शक्ति को न बढ़ा पाने के कारण एक समय की सुदृढ़ सेना अब स्वयं को बिना काम का देख रही थी। इस अकर्मण्यता के कारण सैनिक और सिपहसालार या तो सेना छोड़ कर दूसरे कामों में लग गए या फिर दूसरे राज्यों की सेना में काम करना शुरू कर दिया था। इस कारण चोल वंश का आधार हिलने लगा।
पाण्ड्य राजवंश का बढ़ता प्रभाव:
चोल राजवंश की निर्बलता का लाभ उठाकर दक्षिण में पाण्ड्या, केरल और श्रीलंका आदि क्षेत्रों में विद्रोह की भावना प्रबल होती गई। यह विद्रोह अंततः इन क्षेत्रों की मुक्ति के साथ ही शांत हुआ। इस प्रकार चोल वंश की राज्य सीमा में कमी आनी शुरू हो गई थी।
अधिनास्थों का विद्रोह:
विद्रोह के स्वर विदेशी धरती पर भी पहुँच गए और राजेन्द्र प्रथम ने जिन देशों को अपने अधिकार क्षेत्रों में लिया था, वो भी धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र करने में सफल होने लगे।
सामंत विद्रोह:
यही वह समय था जब होयसाल और विशेषकर पाण्ड्या के साथ दूसरे छोटे राज्यवंश अपनी सीमाएं बढ़ाने में लगे हुए थे। इसी स्थिति का लाभ उठाकर चोल साम्राज्य के अनेक सामंत भी विद्रोह पर उतारू हो गए थे। परिणामस्वरूप यह राजवंश आंतरिक कलह और ईर्ष्या का गढ़ बनकर अपनी राजसी ताकत और शक्ति खोने लगा था। अंतिम परिणाम के रूप में चोल शासक केवल नाममात्र के शासक बन कर रह गए थे।
मलिक काफ़ुर:
यह माना जाता है कि 1267 ई. तक के समय में चोल राजवंश पूरी तरह से कमजोर और क्षीण हो गया था। इस समय का लाभ उठाकर 1310 ई के लगभग अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मालिक काफ़ुर ने चोल शासकों पर आक्रमण करके उनपर विजय प्राप्त कर ली और इस प्रकार चोल शासन का अंत हो गया था।
पाण्ड्या राजवंश:
कुछ इतिहासकारों के मतानुसार 1217 ई में पाण्ड्या ने चोल राजवंश को हरा कर अपनी जीत दर्ज कर ली थी जिसे चोल शासक राजेन्द्र चोल तृतीय ने पुनः 1279 में विजय में परिवर्तित कर दिया था। लेकिन इसके बाद उनके लिए राज्यव्यवस्था को सम्हालना कठिन हो गया था जिसका भरपूर फायदा पाण्ड्य शासक मारावर्मन कुलास्केरा ने उठाया। भ्रष्टाचार के कारण आंतरिक रूप से क्षीण हो चुके चोल वंश को पाण्ड्या शासक ने हरा कर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया और इसी के साथ चोल वंश की भी समाप्ति हो गई, माना जाता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि चोल राजवंश ने 400 वर्ष तक शासन करते हुए अनेक कार्य ऐसे भी किए थे, जिनके अवशेष आज भी उपलब्ध माने जाते हैं। सुदृढ़ प्रशासन के नियम, मजबूत आर्थिक व्यवस्था, आज भी मजबूती से खड़ा हुआ मंदिरों के रूप में अनूठा अरिकिटेक्चर आदि चोल राजवंश की पहचान माने जा सकते हैं।