भारत के दक्षिणी भाग में चोल राजवंश ने 9वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक यानि 400 वर्ष तक शासन किया था। इन वर्षों में चोल राजवंश के 20 राजाओं ने न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया के हिन्द महासागर और श्रीलंका के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, मलेशिया, थाइलैंड और इन्डोनेशिया तक के देशों पर सफलतापूर्वक राज्य किया था। इन वीर राजाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
विजयालया चोल (848-871 ई.):
चोल साम्राज्य के संस्थापक होने के साथ ही यह परकेसरिवरमन के नाम से भी जाने जाते हैं। पल्लव वंश के एक सामंती सरदार होने के कारण इन्हें सैन्य व प्रशासन की अच्छी समझ थी। 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में लेकर वहाँ अपनी राजधानी बनाई और परकेसरी की उपाधि भी प्राप्त करी।
आदित्य प्रथम (871-907 ई.)
विजयालया का उत्तराधिकारी होने के कारण 871ई. में गद्दी पर बैठा था। उसने अपनी युद्धकौशल से पल्लव राज्य के साथ ही पाण्ड्य और कलिंग देश को भी चोल साम्राज्य में मिला दिया। इससे उसे मदुरैकोण्ड की उपाधि मिल गई।
परांतक प्रथम (907-950 ई.)
अपने पिता अदित्या प्रथम की मृत्यु के बाद परांतक प्रथम गद्दी पर बैठा था। पिता की भांति वीर परांतक ने भी पल्लवों पर जीत हासिल करके कोदँडराम की उपाधि प्राप्त कर ली थी। अपने अंतिम दिनों में परांतक राष्ट्रकूट सम्राट कृशन तृतीय (949 ई.) में बुरी तरह से पराजित हो गया। इस पराजय ने चोल साम्राज्य की नींव हिला दी थी।
35 वर्षों के शासक ( 950-985 ई.)
परातंक प्रथम के बाद निम्न चोल शासकों ने शासन किया, जिसमें कोई महत्वपूर्ण कार्य न हो सका:
गंधरादित्य (950 -956 ई.)
अरिंजय चोल (956 – 957 ई.)
सुंदर चोल (957 – 970 ई.)
उत्तम चोल (970- 985ई.)
राजराज प्रथम ( 985-1014ई.)
शैव धर्म का अनुयायी राजराज एक कुशल व महान शासक थे। अपने 30 वर्षों से अधिक के शासन काल में राजराज ने पितामह परांतक प्रथम की “लौह एवं रक्त की नीति ” का पालन करते हुए केरल और श्रीलंका के साथ मालदीव व मैसूर तक अपने राज्य को बढ़ा दिया। इसी नीति के परिणामस्वरूप इन्हें ‘राजराज’ की उपाधि प्राप्त हुई।
राजेन्द्र चोल प्रथम (1012 – 1044 ई.):
अपने पिता राजराज की भांति राजेन्द्र चोल ने कुशलता व वीरता से शासन करते हुए देश और विदेशों में चोल प्रशासन की सीमाओं का विस्तार किया था। उसने चेर, पाण्ड्या एवं सिंहल प्रदेश जीतकर उन्हें अपने राज्यसीमा में मिला लिया था। पाल शासक महिपाल को परास्त करके गंगा घाटी तक के क्षेत्र पर अपना आधिपत्य कर लिया था।
राजधिराज चोल प्रथम (1018-1054 ई.):
राजेन्द्र प्रथम के पुत्र ने अपने पूर्वजों की परंपरा को जारी रखते हुए चोल वंश में राजाधिराज प्रथम ने छोटे-छोटे राज्यों चेर, पांडया और सिंहल प्रदेशों को दमन कर दिया। इसके बाद उन्होनें एक अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया जो ऐतिहासिक दृष्टि से अंतिम अश्वमेध युद्ध था।
राजेन्द्र चोल द्वितीय (1051-1063 ई.):
राजाधिराज के छोटे भाई राजेन्द्र द्वितीय ने चोल वंश की सीमाओं के विस्तार का काम जारी रखा।
वीर राजेन्द्र चोल (1063-1067 ई.):
राजेन्द्र द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में वीर रजेंदर ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त करते हुए चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम को हरा दिया। इस जीत के उपलक्ष्य में उसे आइवभल्लकुलकाल की उपाधि भी प्राप्त हुई।
अधिराजेन्द्र चोल (1067-1070 ई.):
अपने पिता वीर राजेन्द्र की भांति अधिराजेन्द्र का शासनकाल अधिक अच्छा नहीं सिद्ध हुआ था। इसके शासन काल में नागरिक अशांति का बोल बाला था । शायद यह राजा की धार्मिक प्रकृति के कारण राजकाज की अकुशलता के कारण हुआ था। इसी कारण उसके पुत्र कुलतोंग प्रथम ने उसकी हत्या करके राज्य छीन लिया था।
कुलतोंग चोल प्रथम (1070-1120 ई.):
कुलतोंग प्रथम ने अपने पिता से राज्य छीन कर चोल साम्राज्य को दृढ़ता प्रदान की। इसने पाण्ड्या नरेश और केरल राज के साथ दोबारा संबंध स्थापित करके कन्नौज, कंबोज, चीन और बर्मा देशों के साथ राजनैतिक व कूटनैतिक संबंध स्थापित किए।
विक्रम चोल (1120-1133ई.)
कुलतोंग प्रथम के पुत्र विक्रम चोल ने गद्दी सम्हालने के बाद पिता के भांति कुशलता पूर्वक शासन किया। लेकिन यह अपने पिता की धार्मिक प्रवृति के विपरीत अशिह्ष्णु प्रवृति का था।
कुलोतंग चोल द्वितीय (1133-1150 ई.):
विक्रम चोल के पुत्र के रूप में कुलोतंग द्वितीय ने चोल साम्राज्य के विस्तार के काम को जारी रखा। इसके शासनकाल की कोई विशेष राजनैतिक उपलब्धि नहीं है।
राजाराज चोल द्वितीय (1150-1163 ई.):
धार्मिक प्रवृति के इस चोल शासक ने कुंभकोणम के पास ही एक छोटे से राज्य दरसुराम में प्रसिद्ध एयरवेटेश्वर मंदिर के निर्माण करवाया था। इसके अतिरिक्त राजाराज द्वितीय के शासनकाल में चोल नौसेना का पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तट पर पूरा प्रभाव बना रहा था।
राजदधिराज चोल द्वितीय (1163-1168 ई.):
राजराज द्वितीय ने युद्ध कौशक के साथ ही प्रकृति को भी महत्व दिया था। इसके उदाहरण के रूप में इस ने अपने महल के आंतरिक और बाह्य स्थलों पर बहुत सुंदर फूलों का बाग तैयार करवाया था। इस चोल शासक की दयालुता के कारण अनेक स्थानीय सामंतों और सरदारों का उदय हो गया था।
कुलतोंग चोल तृतीय (1178-1216 ई.):
चोल साम्राज्य में बहुत समय बाद एक कुशल शासक कुलतोंग तृतीय के रूप में सामने आया। इस शासक ने हुसैल, पाण्ड्य और चेरा शासकों के साथ ही बर्मा के राजाओं को हरा कर अपने राज्य सीमा में मिला दिया था। धार्मिक प्रवृति के चलते विभिन्न मंदिरों का निर्माण करवाया जो वास्तुकला की दृष्टि से अनूठे सिद्ध हुए थे।
राजराज चोल तृतीय (1216- 1256 ई.):
राजराज अपने पूर्वजों की विजय परंपरा को सम्हाल नहीं सका और इसके शासनकाल में कावेरी नदी के पास के दक्षिणी क्षेत्रों से नियंत्रण खो दिया था। इससे चोल साम्राज्य कमजोर होने लगा।
राजेन्द्र चोल तृतीय (1256-1279 ई.):
राजेन्द्र चोल भी चोल साम्राज्य की विजय परंपरा को नहीं सम्हाल पाया था। इसके शासनकाल में पाण्ड्या स्वयं को स्वतंत्र हो गए और उनपर से चोल की पकड़ छूट गई। इसके बाद पाण्ड्य के उत्कर्ष और चोल साम्राज्य के पतन को रोका नहीं जा सका था।
चोल साम्राज्य ने विभिन्न प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन चार सौ काल तक शासन करने की कला इस वंश के अलावा और किसी वंश ने नहीं दिखाई थी।