इतिहास की पुस्तकों में दर्ज चोल साम्राज्य का इतिहास बताता है कि चोल शासकों ने लगभग चार सौ वर्षों तक भारत के दक्षिणी हिस्से पर वीरता पूर्वक राज्य किया था। वैसे तो चोल साम्राज्य की वंशावली में सभी शासकों के नाम दर्ज हैं, लेकिन फिर भी कुछ नाम दर्ज होने से छूट गए हैं। ये नाम वो हैं ,जिनके वर्णन दंतकथाओं में मिलते हैं, पुस्तकों में यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। ऐसा ही एक नाम है करिकाल चोल का जिसे करिकाल पेरुवल्लात्तन के नाम से भी जाना जाता है। इनके बारे में और जानने के लिए इतिहास के कुछ पन्नों को पलटना होगा।
करिकाल की जीवन गाथा:
तथ्यों के आधार पर यह माना जाता है कि करिकाल की कहानी लगभग 2000 वर्ष पुरानी है जिसमें विभिन्न प्रकार के प्रामाणिक व अप्रामाणिक तथ्य मिलते हैं। फिर भी कुछ बिखरे हुए प्रामाणिक तथ्य इस सच्चाई की ओर इशारा करते हैं कि चोल शासक इलान्सेत्केन्नी जिसने उरायर क्षेत्र को राजधानी बनाते हुए राज्य किया था, ने वेलीर राजकुमारी अज़्हुंदर से राजनैतिक कारणों से विवाह किया था। इन दोनों की संतान के रूप में करिकाल का जन्म हुआ था। इस राजकुमार का पूर्व नाम पेरुवलथन रखा गया था। कुमार पेरुवलथन की बालक उम्र में ही उसके पिता की मृत्यु हो जाने पर उसे राज्य से बेदखल करके करुवुर के जंगलों में भेज दिया गया। लेकिन राजकुमार पेरु के विश्वासपात्रों ने राजनीतिक उथल-पथल का लाभ उठाते हुए उसे जंगलों से वापस ला कर पुनः सिंहासन पर सुशोभित कर दिया। लेकिन उसके विरोधियों ने हार न मानते हुए उसे पुनः कैद करते हुए जेल में डाल दिया और उसका अंत करने हेतु जेल में आग लगा दी। लेकिन राजकुमार पेरु किसी प्रकार उस कैद और आग से बच निकल गया, लेकिन इस दुर्घत्ना में उसके पाँव जल गए। इन जले पाँवों के कारण उसका नाम करिकाल पड़ गया जिसका अर्थ ही होता है , “जले पाँवों वाला”। इस घटना के बाद पेरु ने पुनः अपने विश्वासपात्रों के साथ और अपने चाचा इरुम्पीटरथालियान के साथ मिलकर सेना इकट्ठी करी और अपने सिंहासन को पुनः प्राप्त कर लिया।
करिकाल – महान योद्धा :
राजसिंहासन प्राप्त करने के बाद करिकाल ने कुशलतापूर्वक शासन करते हुए पूरे तमिल क्षेत्र पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। यही नहीं उसने अपनी सुदृढ़ सेना के बलबूते श्रीलंका को भी अपने अधिकार में ले लिया था। उसने वेन्नी युद्ध में पाण्ड्य और चेरा शासकों को अपने अधीन करने पर चोल वंश में पहला शासक बना जिसने द्रविड राज्य में इन शासकों पर सबसे पहले विजय प्राप्त करी थी। दक्षिण के साथ ही करिकाल ने हिमालय क्षेत्र के साथ ही मगध और अवन्ती क्षेत्रों में भी अपनी विजय पताका लहराई थी।
कारिकाल- एक दूरदृष्टा:
चोल वंश का शासक करिकाल न केवल एक कुशल योद्धा, बुद्धिवान शासक था बल्कि एक दूरंदेशी व्यक्ति भी था। करिकाल ने विभिन्न शिव मंदिरों, विशाल किलों का भी निर्माण करवा कर अपनी दूरंदेशी का प्रमाण दिया था। इसने इसके अतिरिक्त श्रीलंका को अपने अधीन करने के बाद वहाँ से लाये 12000 युद्धबंदियों की मदद से कावेरी नदी पर एक बांध कल्लनाई का निर्माण करवाया था। इस बांध का निर्माण इस आधुनिक तकनीक के माध्यम से करवाया गया था कि 2000 वर्ष बीतने के बाद आज भी यह बांध अच्छी तरह से काम कर रहा है। इस प्रकार यह विश्व की सबसे पुरानी जल-शोधन इकाई के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है।
करिकाल ने एक अच्छे दूरदृष्टा के रूप में काम करते हुए चोल वंश के भाग्य को हमेशा के लिए चमका दिया था। उसने न केवल कल्लनाई बांध के माध्यम से कावेरी डेल्टा क्षेत्र का भली प्रकार से उपयोग करने का प्रयास किया जिसमें वह पूरी तरह से सफल हुआ था। समुद्र के वेग वाली कावेरी नदी में किसी भी प्रकार की संरंचना का निर्माण लगभग असंभव था। लेकिन करिकाल ने न केवल उस वेगवती कावेरी नदी पर बांध बनाया बल्कि उसे चार धाराओं कोलियाद्दम अरु, कावेरी, वेननरु और पुत्थु अरु के रूप में भी बाँट दिया था।
यह करिकाल का ही प्रयास था जिसके परिणामस्वरूप दक्षिणी भारत बल्कि विशेषकर तंजौर को चावल का भंडार के रूप में आज भी जाना जाता है। कावेरी की चार धाराएँ जो विभक्त होने से पहले विनाशकारी बाढ़ के रूप में तहसनहस का कारण बनती थीं, बाद में संचाई का उत्तम स्त्रोत के रूप में प्रयोग की जाने लगीं।
करिकाल के द्वारा विषम परिस्थितियों में दूरंदेशी निर्णय लेने की कला आज भी शिक्षा संस्थानों में प्रबन्धक कुलगुरुओं के शोध का विषय बनते हैं। जहां इजीप्शियन संस्कृति में पिरामिड को लोगों के शोषण और अत्याचार के प्रतीक माने जाते हैं वहीं करिकाल द्वारा किया गया निर्माण शतब्दियों के बीतने के बाद भी सामाजिक सेवा में लीन है।
इतिहासकार करिकाल को दक्षिण का स्वर्ण युग भी मानते हैं। उसने सिंचाई के स्त्रोत के विकास के साथ ही पठारों को साफ करके कृषि योग्य भूमि का विकास, वाणिज्य व व्यापार में भी समुचित उन्नति के अवसर प्रदान किए।
करिकाल गुणीजनों को उनका देय देने में पीछे नहीं रहता था। उसने “पट्टिन्प्पले” के लेखक को 1,60,000 स्वर्ण मुद्राएँ उपहार में दी थीं।
करिकाल का अंतिम समय:
सात स्वरों के ज्ञाता व वैदिक धर्म के ज्ञाता करिकाल ने संगम युग के महान शासक के रूप में शासन किया था। उसके शासन काल में कृषि व व्यापार अपने उत्कर्ष पर थे। रोम व दक्षिणी एशिया क्षेत्र से आने वाले व्यापारी निरंतर रूप से दक्षिणी भारत में आकर व्यापार करने को अपना सौभाग्य मानते थे। लेकिन करिकाल की मृत्यु की मृत्यु के बाद उसके दोनों पुत्रों ‘नलन्गिल्लित’ और ‘नेडुंजेलि ने एक ही राज्य को दो राजधानियों ‘उरैयुर’ और ‘पुहार’ में विभक्त कर दिया। राजनैतिक एकता न होने से राज्य में गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई और उसके छोटे पुत्र की मृत्यु के साथ ही इस वंश का खात्मा भी हो गया।
संगम साहित्य में कारिकाल की प्रशंसा में अनेक गीत और कवितायें मिलती हैं जिनमें उनके जीवनकाल से संबन्धित घटनाओं और उनकी वीरता के गुण गाये गए हैं।
धन्यवाद