जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा

4461

रथ यात्रा का त्यौहार मौलिक रूप से भारत में स्थित उड़ीसा राज्य का है| यह त्यौहार बहुत उत्सुकता के साथ न केवल उड़ीसा में, अपितु पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है| माना जाता है कि पुरे विश्व में इस तरह की रथ यात्रा वाले पर्वों में जगन्नाथ पूरी की रथ यात्रा में ही सबसे अधिक श्रद्धालु शामिल होते हैं|

जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का यह पर्व लगभग 5000 वर्षों से पहले से मनाया जा रहा है| इस पर्व में भगवान जगन्नाथ (अर्थात भगवान कृष्ण), बलराम एवं सुभद्रा की जगन्नाथ मंदिर में स्थापित मूर्तियों को एक लघु यात्रा के लिए ले जाया जाता है| बलराम कृष्ण के बड़े भाई थे और सुभद्रा छोटी बहन| प्रत्येक मूर्ति को एक-एक रथ में बिठा कर सवारी कराई जाती है| यह यात्रा वर्ष में एक बार ही होती है| यह यात्रा जगन्नाथ पूरी के मंदिर से शुरू हो कर 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थापित गुंडिचा मंदिर तक की जाती है| सभी रथों को श्रद्धालुओं द्वारा रस्सी से खींचा जाता है| पूरी यात्रा के दौरान ढोल- नगाड़े बजा कर भजन गाए जाते हैं|

इस पर्व को मनाने के पीछे काफी सारी पौराणिक कथाएं मौजूद हैं| सबसे अधिक मान्यता वाली कथा कुछ इस प्रकार है – जिस समय भगवान कृष्ण के पार्थिव शरीर का द्वारका के समुद्र में दाह-संस्कार किया जा रहा था, तब वहाँ अन्य भक्तों के साथ कृष्ण भगवान के भाई बलराम और बहन सुभद्रा भी मौजूद थे| अपने प्रिय भाई के देह को इस प्रकार जाता देख बलराम भी उसी समुद्र में कूद लगाने दौड़े, और उनके पीछे सुभद्रा भी दौड़ी| उसी समय भारत के पूर्वी किनारें में जगन्नाथ पुरी के सम्राट इन्द्रद्युम्न को स्वप्न आया कि भगवान कृष्ण का पार्थिव शरीर बहता हुआ जगन्नाथ पुरी के किनारे पर आ गया है और अब उन्हें भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की विशाल मूर्तियाँ बनवानी चाहिए और भगवान कृष्ण की पावन अस्थियों को उसी मूर्ति के भीतर रख देना चाहिए| यह स्वप्न सच हुआ और राजा को अस्थियों के कुछ किरचें समुद्र के किनारे से प्राप्त हुए|

कहा जाता है कि ये मूर्तियाँ बनाने का कार्य एक बूढ़े कारीगर ने हाथ में लिया और यह कारीगर स्वयं विश्वकर्मा जी ही थे| उन्होंने काम करने के लिए एक शर्त रखी कि मूर्तियाँ बनाते समय कोई भी उनके समक्ष नहीं रहेगा| यदि कोई आया तो वे कार्य बीच में छोड़ के चले जाएंगे| राजा इन्द्रद्युम्न ने उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया| कुछ माह बीते परंतु मूर्तियाँ अभी भी पूरी नहीं बनी थी| राजा इंद्रदयुम्न आतुर हो उस कक्ष में दाखिल हो गए जहाँ विश्वकर्मा जी ये कार्य कर रहे थे| परिणामस्वरुप विश्वकर्मा जी वहाँ से लुप्त हो गए और मूर्तियाँ अधूरी रह गयी| राजा इंद्रदयुम्न ने उन्हीं अधूरी मूर्तियों का एक बड़ा-सा मंदिर बनवाया| साथ ही भगवान कृष्ण की अस्थियों के किरचों को कृष्ण मूर्ति में संरक्षित कर दिया|

हर कुछ वर्षों बाद तीनों भगवान की नयी मूर्तियाँ बना के जगन्नाथ पुरी के इस मंदिर में रखी मूर्तियों से बदली जाती है| और ये नयी मूर्तियां भी अधूरी ही बनायी जाती है जितनी विश्वकर्मा जी बना के गए थे!

Leave a Reply !!

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.