Pranab Mukherjee: राजनीतिक धरोहर से कम नहीं था इनका व्यक्तित्व

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Pranab Mukherjee


“भारत के वासी 122 से ज्यादा भाषा और 1600 से ज्यादा बोलियां बोलते हैं। इस देश को कोई एक रंग में, एक धर्म मे बांध नहीं सकता है। हम वसुधैव कुटुम्बकम् में भरोसा करने वाले लोग हैं।” 7 जून 2018, नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय में ये शब्द थे पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न प्रणब मुखर्जी के, जिन्होंने 31 अगस्त को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन अपने पीछे छोड़ गए हैं एक विराट इतिहास जिसके कुछ पन्नों को हम इस लेख में समझने की कोशिश करेंगे।

चलते हैं प्रणब मुखर्जी के ऑटो बॉयोग्राफी लॉंच इवेंट पर, याद करते हैं कुछ और पंक्तियों को – “साल 2004 में प्रधानमंत्री बनने के लिए मुझसे ज्यादा काबिल प्रणब दा थे। लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकता था क्योंकि कि कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस पद के लिए मुझे चुना था।” ये शब्द किसी और के नहीं बल्कि खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के थे।

इन पंक्तियों से आप समझ ही गए होंगे कि प्रणब मुखर्जी किस विराट व्यक्तिव के धनी थे। आज के दौर की सियासत में कोई युवा नेता ऐसा नज़र नहीं आता जिसे आप कह सकें कि ये भविष्य का प्रणब दा है।

इस लेख के मुख्य बिंदु

  • प्रणब मुखर्जी का शुरुआती जीवन और सियासत की शुरुआत
  • प्रणब मुखर्जी के सियासत की शुरुआत कब और कहां से हुई थी?
  • प्रणब मुखर्जी ने भी देखे थे सियासत के बुरे दिन
  • प्रणब मुखर्जी का साल 1988 से 2004 तक का सफ़र
  • प्रणब मुखर्जी ने रक्षा और वित्त मंत्री की ज़िम्मेदारी संभाली थी
  • प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने की कहानी
  • सम्मान
  • सरांश

प्रणब मुखर्जी का शुरुआती जीवन और सियासत की शुरुआत

11 दिसंबर 1935, पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव मिराटी में कांग्रेस पार्टी के लोकल नेता के घर एक बच्चे का जन्म होता है। उस बच्चे का वो नाम रखते हैं प्रणब, यही प्रणब आगे जाकर भारतीय गणराज्य के 13वें राष्ट्रपति पद की शपथ लेते हैं।

प्रणब मुखर्जी को बचपन से ही पढ़ने लिखने का काफी ज्यादा शौख था। उन्होंने राजनीति विज्ञान की पढ़ाई के साथ इतिहास में मास्टर डिग्री हासिल की थी। इसी के साथ उन्होंने कोलकत्ता विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री भी प्राप्त की थी।

अब सवाल आता है कि प्रणब मुखर्जी ने अपनी प्रोफेशनल लाइफ की शुरुआत कहाँ से की थी?

आपको बता दें कि उन्होंने कॉलेज के शिक्षक और पत्रकार के रूप में अपने पेशे की शुरुआत की थी।

प्रणब मुखर्जी के सियासत की शुरुआत कब और कहां से हुई थी?

प्रणब मुखर्जी ने इस बात का जिक्र अपनी ऑटो बॉयोग्राफी में किया है कि जब साल 1969 में वो 34 साल के हुए थे। तब उन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत की थी। इसी साल उन्होंने पहली बार सांसद के तौर पर राज्यसभा (अपर हॉउस) में कदम रखा था। इसके बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में उनका सियासी कैरियर लगातार ऊपर की ओर जाता ही रहा।

प्रणब मुखर्जी बचपन से ही युक्तियों में माहिर थे, इतने माहिर थे कि इंदिरा गांधी उनके बारे में कहा करती थीं

कि प्रणब मुखर्जी के मुंह से बस पाइप का धुंआ निकल सकता है, मेरा और कांग्रेस का कोई राज़ नहीं।

प्रणब मुखर्जी ने भी देखे थे सियासत के बुरे दिन

फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि इंदिरा गांधी की सरकार में नंबर दो की पायदान में रहने वाले मुखर्जी साहब के कैरियर ग्राफ में इंदिरा गांधी के ही बेटे राजीव गांधी ने ब्रेक लगा दिया था।

याद करिए साल 1984, जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। उस समय कहाँ थे प्रणब मुखर्जी?

  • प्रणब मुखर्जी उस दौर में बंगाल में होने वाले चुनाव का प्रचार कर रहे थे। उनके साथ इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी भी थे। इंडिया टुडे की रिपोर्ट्स के अनुसार तब राजीव गांधी ने प्रणब मुखर्जी से एक सवाल पूछा था कि जब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी है तो ऐसे हालात में पार्टी को क्या करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में प्रणब मुखर्जी ने कहा थी कि इस समय पार्टी को सबसे वरिष्ठ मंत्री को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। अर्थात सबसे शीर्ष मंत्री तो प्रणब मुखर्जी खुद थे।
  • राजीव गांधी वापस आए और जैल सिंह ने उन्हें ही शपथ दिलवा दी थी। अब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे। लेकिन चुनाव के दौरान राजीव गांधी के खास लोगों ने उन्हें बताया की प्रणब मुखर्जी आपकी जगह खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।

इसके बाद वो घटना घटती है, जिसकी मंशा उस दौर की सियासत में किसी को नहीं थी। इंदिरा गांधी की सरकार में नम्बर दो रहने वाले प्रणब मुखर्जी को कैबिनेट से ही बाहर कर दिया गया था।

“The Turbulent Years 1980-1996” (“ टर्बुलेंट इयर्स 1980-1996) इस किताब में प्रणब मुखर्जी ने उस घटना का जिक्र किया है।

उस घटना को याद करते हुए प्रणब मुखर्जी लिखते हैं कि “मैं कॉल का इंतज़ार कर रहा था। मुझे अंदाजा भी नहीं था कि मुझे कैबिनेट में जगह नहीं दी जाएगी। जब मुझे पता चला कि कैबिनेट से बाहर कर दिया गया हूं, तो मैं स्तब्ध था।”

  • लेकिन अभी प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक जीवन में इससे बुरा दिन आना बाकी था। वो दिन तब आया जब उन्हें पार्टी से 6 साल के लिए निष्काषित कर दिया गया था।
  • प्रणब मुखर्जी ने इलस्ट्रेटेड वीकली पत्रिका की एडिटर प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था। यही इंटरव्यू वजह बना उनके निष्काशन का, इसका जिक्र करते हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी किताब में लिखते हैं कि “राजीव गांधी ने दूसरों की बात सुनी थी, मुझसे भी कुछ गलतियां हुईं थीं। गलत फहमी इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्हें ये फैसला लेना पड़ा था।”

प्रणब मुखर्जी का साल 1988 से 2004 तक का सफ़र

कांग्रेस पार्टी में प्रणब मुखर्जी ने साल 1988 में वापसी की थी। साल 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई। इस बार भी प्रधानमंत्री की रेस में प्रणब मुखर्जी का नाम सबसे आगे था। लेकिन प्रधानमंत्री की शपथ ली पीवी नरसिम्हा राव ने, 90 के दशक में प्रणब मुखर्जी का सियासी ग्राफ काफी ऊपर पहुंच चुका था।

साल 2004 में, जब अटल बिहारी के नेतृत्व में एनडीए सरकार को मात देकर यूपीए सरकार बनी और सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। तो फिर से एक नाम प्रधानमंत्री के लिए सबसे ऊपर आया। ये नाम था प्रणब मुखर्जी का, वो अपनी पुस्तक “The Coalition Years 1995-2012 (द कोएलिशन इयर्स 1995-2012) में इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं कि “सबको उम्मीद यही थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं ही प्रधानमंत्री पद की शपथ लूंगा, लेकिन ये सियासत है, सब शायद ये भूल जाते हैं।”

प्रणब मुखर्जी ने रक्षा और वित्त मंत्री की ज़िम्मेदारी संभाली थी

प्रणब मुखर्जी भले ही यूपीए 1 और यूपीए 2 में देश के प्रधानमंत्री ना रहे हों, लेकिन उस दौर के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सबसे करीबी और डिपेंडेबल मिनिस्टर में से एक थे।

प्रणब मुखर्जी ने तब सरकार में रक्षा और वित्त मंत्री का पदभार ग्रहण किया था। इस दौरान उन्होंने कांग्रेस पार्टी को कई मुश्किल दौर से निकालने का काम भी किया था।

प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने की कहानी

ये किस्सा शुरू होता है साल 2007 से, इसी साल देश के वामपंथी दल चाहते थे कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बनें। लेकिन इस साल सोनिया गांधी ने ये कहते हुए मना कर दिया था कि अभी प्रणब मुखर्जी की पार्टी को बहुत जरूरत है।

  • साल 2012 में सोनिया गांधी को भी पूर्वा अनुमान हो गया था कि साल 2014 का जनादेश कांग्रेस के पक्ष में नहीं जाएगा। ऐसे में राष्ट्रपति पद का पलड़ा प्रणब मुखर्जी के पक्ष में झुक सा गया था।
  • लेकिन ये सफ़र इतना आसान नहीं था, चलिए हमारे साथ हर 5 साल में होने वाले सियासी कुंभ में, जिसे राष्ट्रपति चुनाव भी कहा जाता है।
  • प्रणब मुखर्जी की ऑटो बॉयोग्राफी में इस बात का ज़िक्र है कि 13 जून 2012 को शाम के वक्त, सोनिया गांधी के घर 10 जनपद से बाहर आकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने इस बात का एलान कर दिया था कि इस बार यूपीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी होंगे।
  • ये ऐलान करते हुए ममता बनर्जी भूल गईं थी कि गठबंधन की सरकार में सबसे बड़ी पार्टी ही राष्ट्रपति के उम्मीदवार का ऐलान करती है। खैर, सियासत में कई नियम ऐसे ही तोड़ दिए जाते हैं।
  • लेकिन इस बयान के बाद ही जब ममता बनर्जी 16 अशोक मार्ग पहुंची अपने सियासी मित्र मुलायम सिंह यादव के घर, तभी उन्होंने अपने पिछले बयान को बदल दिया। बयान बदलने के साथ ही उन्होंने उम्मीदवार भी बदल दिया था।
  • ठीक एक घंटे बाद एक और प्रेस वार्ता होती है, ये वार्ता 16 मार्ग में हुई थी। ममता बनर्जी के बगल में थे मुलायम सिंह यादव। इस बार ममता बनर्जी के स्वर पूरी तरह बदल चुके थे। वो बोल रही थीं कि राष्ट्रपति तो ए.पी.जे अब्दुल कलाम को बनना चाहिए।
  • ममता बनर्जी ने आगे कहा कि अगर ए.पी.जे अब्दुल कलाम नहीं बनते हैं तो ये मौका सोमनाथ चटर्जी को मिलना चाहिए।  

जब मुलायम और ममता बनर्जी प्रेस वार्ता कर रहीं थीं तो पूरा देश देख रहा था, लेकिन सबसे ज्यादा अचम्भे में थी 10 जनपद में बैठी सोनिया गाँधी।  क्योंकि अभी साढ़े 4 बजे ही तो ममता बनर्जी ने प्रणव मुखर्जी के नाम पर हामी भरी थी।  फिर अचानक ऐसा क्या हुआ? हुआ कुछ नहीं था बस सियासी पारा चढ़ चुका था।

  • 14 जून सुबह 10 बजे फिर से कांग्रेस पार्टी की मीटिंग होती है। इसके बाद उस दौर के पार्टी महासचिव जनार्दन मिश्रा ने प्रेस को जानकारी दी कि ममता बनर्जी के सुझाए नाम को खारिज कर दिया गया है. सरकार की तरफ राष्ट्रपति के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी ही होंगे.
  • फिर समीकरण कुछ ऐसे बने कि प्रणब मुखर्जी इस देश के 13 वें राष्ट्रपति चुने गये। रिजल्ट कुछ इस प्रकार था। प्रणब मुखर्जी को मिले थे 7,13,763 मूल्य के वोट, जबकि पी.ए संगमा को मिले थे 3,15,987 मूल्य के वोट।

सम्मान

प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक वर्चस्व इतना बड़ा था कि उन्हें कई सम्मानों से सम्मानित किया गया था। इसमें भारत का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत रत्न’ भी शामिल है।  साल 2019 में एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया था।

  • प्रणब मुखर्जी को साल 2008 में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया था।

सरांश

सियासत में कब आपको बोलना है और कब आपको चुप रहना है। ये इतनी सी बात ही राजनेता नहीं समझ पाते हैं।  यही अंतर था सामान्य नेता और प्रणब मुखर्जी के बीच, यही महीन रेखा होती है। एक आम बौद्धिक इंसान और एक शख्सियत के बीच में, भारत रत्न प्रणब मुखर्जी शख्सियत थे। ये एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने तीन बार प्रधानमंत्री के पद को अपने सामने देखा था, फिर भारत के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर विराजमान हुए। विद्यार्थियों से इन्हें विशेष लगाव था। इसलिए आपको इनकी जीवनी ज़रूर पढ़नी चाहिए। अलविदा भारत रत्न प्रणब मुखर्जी साहब।

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