त्रिपक्षीय संघर्ष – मध्यकालीन भारत का इतिहास

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Triparties Struggle

सातवीं शताब्दी में भारत में हर्षवर्धन का शासन था और उस समय कन्नौज पर कब्जा ही उत्तरी भारत का मुख्य नियंत्रक माना जाता था। उस समय भारत में तीन महत्वपूर्ण शक्तियाँ शासन कर रहीं थी, जो गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल के नाम से जानी जाती थीं। इन तीनों महाशक्तियों ने कन्नौज पर अपना आधिपत्य करने के लिए जो 200 वर्ष संघर्ष किया उसे त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है। अंतिम रूप से इस संघर्ष में गुर्जर-प्रतिहार जो गुजरात के प्रतिनिधित्व करते थे, विजयी हुए।

 

कन्नौज के लिए संघर्ष :

छठी शताब्दी में गुप्त सामाराज्य के पतन के साथ ही पाटलीपुत्र राज्य का भी अस्तित्व व महत्व समाप्त हो गया था। इस कारण कन्नौज को यह स्थान लेने में देर नहीं लगी। कन्नौज के प्रति आकर्षण का कारण, इसका गंगा-यमुना के बीच में स्थित होने के कारण उत्तरी भारत का सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र का होना था। इसके अतिरिक्त गंगा के किनारे बसा होने के और रेशम उध्योग का केंद्र होने के  कारण इस क्षेत्र का व्यापारिक महत्व भी काफी अधिक था। इसलिए कन्नौज उस समय की राजनैतिक महत्व्कांषाएँ पूरा करने का एकमात्र माध्यम था। इसके अतिरिक्त अतिरिक्त हर्षवर्धन की राजधानी होने के कारण भी उत्तर भारत में कन्नौज को एक महत्वपूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त था।

 

पाल की विजय:

इस संघर्ष की शुरुआत प्रतिहार वंश के शासक वत्सराज ने की थी। इसके साथ ही पाल नरेश धर्मपाल और राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव में युद्ध हुआ था। पहले धर्मपाल को हराने के बाद वत्सराज ने ध्रुव से युद्ध किया जिसमें वो हार गए। लेकिन ध्रुव ने उत्तर भारत को थोड़े ही समय में छोड़ कर दक्षिण भारत में शासन शुरू कर दिया। इस स्थिति को पाल नरेश धर्मपाल ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हुए कन्नौज पर आक्रमण किया और गद्दी पर विजय पाते हुए अपने संरक्षण में चक्रायुध को राज्य सौंप दिया।

 

प्रतिहारों की जय:

धर्मपाल की विजय ने प्रतिहारों को अपमानित होने की भावना का एहसास करवाया और वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने पुनः कन्नौज पर आक्रमण करके उसे जीत लिया। लेकिन इस जीत को जल्द ही राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने हार में बदल दिया। हालांकि इस युद्ध से प्रतिहार शासकों की युद्ध शक्ति का ह्रास हुआ। लेकिन जल्द ही उन्होनें अपने को सम्हाल लिया। धर्मपाल की मृत्यु होते ही नागभट्ट द्वितीय ने पुनः कन्नौज पर अपना अधिकार जमते हुए उसे अपनी राजधानी बना लिया। शासकों की इस वंश बेल ने यहाँ लगभग तीन सदियों तक शासन किया था।

 

राष्ट्रकूट की शक्ति:

इस पूरे संघर्ष में राष्ट्रकूट की शक्ति क्षीण ही रही। अपने आंतरिक कलहों के कारण वे युद्ध के मैदान से बाहर ही रहे। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष अपने पिता गोविंद तृतीय के समान वीर व प्रतापी नहीं था। इस कारण इस संघर्ष में राष्ट्रकूटों का अस्तित्व समाप्तप्राय ही रहा।

प्रतिहार शासक भोज के बाद कन्नौज का राजा महेंद्र पाल बना जिसने बंगाल पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसके बाद महिपाल प्रथम तक आते-आते पाल शासकों की शक्ति का अंत हो चुका था। इसलिए वे

त्रिपक्षीय संघर्ष से बाहर हो गए और यह संघर्ष अब राष्ट्रकूटों और प्रतिहारों के बीच ही रह गया था। दूसरे शब्दों में त्रिपक्षीय संघर्ष अब द्विपक्षीय संघर्ष में बदल चुका था। इसके बाद कन्नौज पूरी तरह से प्रतिहारों के आधिपत्य में आ चुका था।

 

 

त्रिपक्षीय संघर्ष में जिन शासकों ने हिस्सा लिया :

प्रतिहार वंश राष्ट्रकूट वंश पाल वंश
1. वत्सराज          783- 795 ई. 1. ध्रुव धारावर्ष    780-793 ई. 1. धर्मपाल       770-810 ई.
2. नागराज द्वितीय   795-833 ई. 2. गोविंद तृतीय   793-814 ई. 2. देवपाल       810-850 ई.
3. रामभद्र        833-836 ई. 3. अमोघवर्ष प्रथम   814-878 ई. 3. विग्रह पाल     850-860 ई.
4. मिहिर भोज    836-889 ई. 4. कृष्ण द्वितीय      878-914 ई. 4. नारायण पाल    860-915 ई.
5. महेंद्र पाल      890-910 ई.

 

इस प्रकार कहा जा सकता है की कन्नौज के लिए इन शासकों का यह त्रिपक्षीय संघर्ष तीनों महाशक्तियों प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल के लिए अत्यंत घातक और अंतकारी सिद्ध हुआ था। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप प्रतिहार तो कन्नौज पर अपना आधिकार जमाने में सफल हो ही गए और साथ ही राष्ट्रकूट भी अपने पुराने शत्रु प्रतिहारों को समूल नष्ट करने में सफल हो गए थे।  तृतीय संघर्ष का तीसरा पक्ष पाल, पहले ही इस युद्ध से अलग हो चुके थे इसलिए वो दोबारा अपनी खोयी शक्ति का पुनरुद्धार नहीं  कर सके।

दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस संघर्ष ने उत्तर भारत के राजनैतिक पटल पर महाशक्तियों की गुटबाजी प्रथा को जन्म दे दिया था। यहाँ अब राजपूती शासक जो पहले राष्ट्रकूट के नाम से जाने जाते थे, का प्रभाव निरंतर बढ्ने लगा था। इसी के साथ हिंदुस्तान का उत्तरी यह भाग छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंटने लगा था। परिणामस्वरूप पूरे भारत या केवल उत्तरी और केवल दक्षिणी भाग पर किसी एक राजा का आधिपत्य नहीं हो पाया था। इसी एकजुटता की कमी ने भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए ज़मीन तैयार कर दी थी।

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