दक्षिण भारत का इतिहास

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history of South India

ईसापूर्व ८००० से बसा दक्षिण भारत विबिन्न राजवंशों के उत्थान और पतन का साक्षी रहा है। सातवाहन, चोल, पल्लव और होल आदि ऐसे ही राजवंश हैं जिन्होनें इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यूनान और रोम से व्यापार करने वाले दक्षिण भारतीय राजवंश हिन्दू, तुर्क और मुगल के बाद ब्रिटिश राज्य के द्वारा भी शासित होते रहे हैं।

संगम युग:

दक्षिण भारत के साहित्यकारों के एकजुट समूह को संगम या संघ मण्डल कहा जाता है। इस संघ परिषद् का गठन तमिल प्रदेश के चेर, चोल और पांडया में से पाण्ड्य शासकों द्वारा किया गया था। यह आयोजन कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच के स्थान को तमिल प्रदेश में किया जाता था। इस आयोजन में तमिल कवियों द्वारा गोष्ठियों में विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श किया जाता था। यह संगम आयोजन १०० ई॰ से २५० ई॰ के मध्य तीन गोष्ठियों के रूप में किया गया था। इस युग को संगम युग का नाम दिया गया और संगम युग में करी गई साहित्य की रचनाओं के समूह को संगम साहित्य कहा जाता है।

सातवाहन वंश:

भारत के दक्षिणी हिस्से राज्य करने वाले और आंध्र वंश के नाम से मशहूर सातवाहन वंश ने ६०ई॰पू. से २४० तक शासन किया था। इस वंश का उदय राजा सिमुक द्वारा मौर्य शासकों के पतन के बाद करी थी। सातवाहन वंशजों ने विदेशी आक्रमणकारियों जैसे शक आदि से युद्ध करके उन्हें भारत में जमने से रोक दिया था। इसके अतिरिक्त साढ़े चार सौ वर्षों तक अविभाजित दक्षिण पर राज्य करने वाले सातवाहन शासक स्थायी शासन देने वाले सिद्ध हुए थे। जबकि उस समय उत्तर भारत में राजवंशों का निरंतर उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी था।

हिन्दू शासक होते हुए भी सातवाहन शासकों ने बौद्ध धर्म को न केवल प्रश्रय दिया बल्कि उसके प्रचार-प्रसार में भी सक्रिय योगदान दिया। सातवाहन शासकों ने निम्न क्रम में राज्य किया था:

सिमुक (२३५ ई॰पू॰ – २१२ ई॰पू॰)

कान्हा और कृष्ण (२१२ ई॰पू॰- १९५ ई॰पू॰)

वेदश्री तथा सतश्री

शातकर्णी द्वितिय

हाल (२० ई॰ पू॰  – २४ ई॰ पू॰)

गौतमी पुत्रा श्री शातकर्णी (७० ई॰ -९५ ई॰)

चोल शासक:

दक्षिणी भारत में ९वीं से १३वीं शताब्दी में जिस हिन्दू वंश ने शासन किया था उसे चोल वंश के नाम से जाना जाता है। चोल वंश का संस्थापक विजयालय था जो ऊरैयापार का शासक था और इसके लगभग २० उत्तराधिकारियों ने लगभग ४०० वर्ष तक राज्य किया था। इस वंश के सभी शासक शक्ति और बुद्धिमत्ता के प्रतीक थे। लिखित अभिलेखों से यह पता चलता है कि चोल शासकों का शासन सुनियोजित व सुसंघठीत था। राज्य का हर बड़ा अधिकारी संबन्धित मंत्रियों और संबन्धित राज्य अधिकारियों से सलाह करके ही कोई निर्णय लेते थे। चोल शासन में शासन में ग्रामीण जनता का भी सक्रिय योगदान होता था। अच्छे भवननिर्माता के रूप में चोल शासकों ने न केवल अच्छे भवन और इमारतों का निर्माण किया बल्कि जनता की भलाई के लिए अच्छी सिंचाई व्यवस्था और बड़े राजमार्गों का भी विकास और निर्माण किया था। तंजौर के मंदिर उनकी स्थापत्य कला के परिचायक हैं। साहित्य सृजन में चोल शासक अद्वितीय थे। तमिल रामायण के अतिरिक्त व्याकरण कोश, काव्यशास्त्र और छन्द आदि पर भी पर्याप्त लेखन किया था।

पल्लव कला और स्थापत्य:

छठी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक राज्य करने वाले पल्लव वंश की स्थापना सिंहाविष्णु ने करी थी। चालुक्य वंश के समकक्ष पल्लव ने कला और संस्कृति को बहुत बढ़ावा दिया था। पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम साहित्य और संस्कृति का केंद्र मानी जाती थी। पल्लव शासन में कला और स्थापत्य की उन्नति के कारण उनकी वास्तुकला ही दक्षिण की विश्वप्रसिद्ध द्रविड़ शैली का आधार बनी थी।

दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला को मंडप, रथ और विशाल मंदिर जैसे निर्माणों के तीन अंगों में बांटा गया था। इस समय बनाए गए मंदिर विशाल चट्टानों को काटकर बनाया गया था। पल्लव शासन की विश्व प्रसिद्ध कला शैली, महेंद्र शैली, के नाम से जानी जाती है। इस कला का जन्म महेंद्र प्रथम के शासन काल में जन्मी और पनपी थी। महेंद्र ने बड़ी और तीक्षण चट्टानों को तराश कर गुफा मंडपों का निर्माण किया था। इसके बाद नरेंद्र वर्मन ने पहली बनावट को यथावत रखते हुए स्तंभों की ऊंचाई को बढ़ा दिया था। इसके आगे कला और वास्तु  का सफर मामल्ज़ शैली के नाम से प्रसिद्ध है। इस शैली के सभी मंडप या मंदिर महाबलीपुरम में स्थित हैं। इस शैली के अंतर्गत मंदिरों का निर्माण रथों के रूप में किया गया था।

दक्षिण भारत के राजवंशों ने न केवल शासन करने की योग्यता को लंबे समय तक शासन करते हुए सिध्द किया बल्कि भावी पीढ़ी को अभूतपूर्व कला और संस्कृति का उपहार भी प्रदान किया है।

 

 

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