भारत को जब विदेशी दासता की 100 वर्ष पुरानी जंजीरों से मुक्ति मिली उस समय लगभग 34.5 करोड़ लोगों की आबादी धर्म, जाति और जाति यता के आधार पर बँटी हूई थी। यह वह समय था जब भारत हर दो मील पर जाति और हर दो कोस पर भाषा के आधार विविधता लिए हुए था। इस विविधता वाले देश में स्वतन्त्रता के बाद जाति और जातीयता में क्या बदलाव आया इसको जाँचने के लिए कुछ तथ्यों का विश्लेषण करना जरूरी है:
भारत की राजनीति में जाति और जातीयता का प्रभाव:
विश्व में सबसे बड़े लोकतन्त्र होने के बावजूद यहाँ का राजनीति पटल जाति और जातीयता के मकडजाल में फंसा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि इतने बड़े लोकतन्त्र पर एक विदेशी ताकत का कब्जा लंबे समय तक केवल इसी कारण हो सका, क्योंकि यह लोकतन्त्र जाति नाम के पिंजड़े में कैद था। यह पिंजड़ा ब्रिटिश दासता से मुक्त होने के बाद भी तोड़ा नहीं जा सका। इसी जाति और जातीयता के समूह के कारण भारत की राजनीति भी दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी थी। लेकिन जब नया संविधान बना तब इसमें समाज के हर वर्ग और समूह के उत्थान और विकास का ध्यान रखा गया। इसी कारण अब तक जो समूह दलित और अछूत के नाम से जाना जाता था, उसे भी मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया गया।
जाति सुधार और विकास कार्यक्रम:
भारत के स्वतंत्र होते ही विभिन्न समाज सुधारकों ने अब तक सोये हुए जातीय समूहों को जगाने और उनके अधिकार दिलाने का काम शुरू कर दिया। इनमें सबसे पहला नाम राजा राममोह रॉय का आता है। उन्होनें महिलाओं के विकास के साथ ही सभी जातियों के विकास के लिए उनके आध्यात्मिक विकास पर भी बल दिया। इसके साथ ही नित नए विकास और निर्माण कार्यों ने तथा कथित निम्न जाति के युवा वर्ग को शहरों की ओर आकर्षित किया। अब यह युवा वर्ग गांवों से शहरों की ओर ‘श्रमिक’ के रूप में बढ़ने लगा और अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास करने लगे।
यह श्रमिक वही ग्रामीण लोग थे जो पीढ़ियों से वंशानुगत तरीके से अपने-अपने पेशे से जुड़े काम कर रहे थे। जैसे चमड़े से जुड़े लोग चर्मकार कहलाए और केवल इसी काम के लायक समझे गए। लेकिन आज़ादी के बाद दलित समाज की आबादी बढ़ जाने के कारण इन्हें केवल एक ही समाज और पेशे में बांधना थोड़ा कठिन लगने लगा। ऐसे में इन लोगों को श्रमिक के रूप में जो काम मिला उसे अपना कर करने लगे। इस प्रकार सदियों से सवर्ण और पूंजीपति वर्ग के पैरों तले कुचले निम्न वर्ग के लोग श्रमिक के रूप में देश और कुछ साहसी विदेश भी जाने को तैयार हो गए।
दलित जागरूकता और सशक्तिकरण आंदोलन:
आज़ाद भारत ने जब परिवर्तन की ओर अपने कदम बढ़ाने शुरू किए तब सबसे पहले ज्ञान और सूचना का भंडार समाज के हर व्यक्ति तक पहुंचाने का प्रयास किया गया। इसके साथ ही दलित वर्ग में आत्मबल का विकास शुरू हुआ और परिणाम विभिन्न आंदोलनों के रूप में सामने आया।
महाराष्ट्र में दलित आंदोलन:
दलित उत्थान आंदोलन प्रक्रिया का आरंभ महाराष्ट्र से माना जाता है जहां युवा भीमराव अंबेडकर ने आज़ादी से पहले ही दलित समस्याओं की ओर सरकारों का ध्यान आकर्षित करने का काम किया था। भीमराव अमेडकर के अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि दलित वर्ग को अनुसूचित जाति और जनजाति का नाम सम्मानीय नाम मिला। इसी नाम के आधार पर इस वर्ग को शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण मिला और दलित समाज को ऊपर उठने का मौका मिला। राजनैतिक दलों ने इसी आरक्षण को आधार बना कर एक समय के दबे लोगों को संसद में पहुंचाने का काम भी शुरू किया।
दक्षिण भारत में निम्न वर्ग को समान अधिकार:
दक्षिणी भारत में केरल में रामास्वामी नायकर पेरियार के द्वारा निम्न और दलित समाज के विकास के लिए विभिन्न और ठोस कार्य किए गए। उन्होनें दलित समाज के सोये आत्मविश्वास को जगाने के लिए उन्हें ईश्वरीय निर्भरता से मुक्त करने का संदेश दिया। उनके अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र्प्रादेश, कर्नाटक आदि राज्यों में दलित समाज को राजनैतिक व समाजिक आधिकार मिलने लगे।
उत्तर भारत में दलित आंदोलन का प्रारूप:
उत्तर भारत में एक समय का बौद्धिक साम्राज्य का प्रतीक बिहार वर्तमान समय का निम्न और दलित वर्ग का केंद्र के रूप में जाना जाता था। इस राज्य में बाबू जगजीवन राम ने दलित समाज को आगे लाने का बीड़ा उठाया। उन्होनें एक ओर दलितों और पिछड़े वर्ग का ईसाई धरमानतरण का जोरदार विरोध किया और दूसरी ओर अपने जोशीले वक्तव्यों से उनमें आत्मविश्वास जगाने का भी काम किया। जगजीवन राम के वचनों का ही असर था कि दलितों ने सवर्णों द्वारा उनके मंदिर प्रवेश को लगाए प्रतिबंधों को नकार कर आगे बढ़ने का निश्चय किया। उनके भाषणों से प्रभावित होकर ही बिहार से कर्पूरी ठाकुर और काशीराम जैसे नेता निकले जिन्होनें अपनी एक सशक्त राजनैतिक पहचान बनाई।
काशीराम के ही राजनैतिक और सामाजिक समीकरणों का परिणाम था कि 1991-92 में पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत का आरक्षण मिल सका। उन्होनें दलित समाज को ‘जाति’ शब्द से बाहर निकाल कर ‘वर्ग’ से जोड़ दिया।
अछूत समस्या और उसके निवारण के उपाय:
वेदों की बनाई व्यवस्था में समाज का कार्य के अनुसार विभाजन किया गया। उस समय का यह विभाजन एक सकारात्मक परिणाम लेकर आया लेकिन समय के साथ यह छूत-छात जैसी घातक परंपरा से जोड़ दिया गया। इन लोगो को शिक्षा और धार्मिक कार्यों से दूर रखा गया।
जन जातियों का उनकी पहचान को यथावत बनाते हुए उनका मुख्य धारा में सम्मिलन का प्रयास किया गया। इस कार्य की शुरुआत मध्यभारत के ज्योतिराव फुले ने भारत के आज़ार होने से बहुत पहले ही कर दी थी। उन्होनें ब्राह्मण समुदाय के आर्य होने से इंकार कर दिया और उन्हें विदेशी होने का नाम भी दे दिया। फुले का कहना था कि आर्य लोग श्रेष्ठ नहीं थे बल्कि भारत में बाहर से आए विदेशी थे जिन्होनें यहाँ रहने वालो को अपना गुलाम बना कर उनकी ज़मीन और अस्तित्व पर अधिकार कर लिया। इस अर्थ में तथाकथित अछूत ही इस समाज के वास्तविक अधिकारी हैं। उन्होनें अछूत समाज को संगठित होने का संदेश दिया और उनके सोये आत्मसम्मान को जाग्रत करने का प्रयास किया।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के रूप में देखा जाये तो कहा जा सकता है कि भारत को आज़ाद हुए आज 70 वर्ष से ऊपर का समय हो चुका है। लेकिन अभी भी भाषा, जाति और संप्रदाय में विविधता होने के कारण विकासचक्र की गति अभी भी बाधित है। यह सही है कि भारतीय समाज में अछूत माने जाने वाला वर्ग और दलित समाज संवैधानिक दृष्टि से लोकमत का अधिकारी हो गया है। विभिन्न आर्थिक और सामाजिक योजनाओं के चलते, इन वर्गों के आर्थिक स्तर में भी मामूली स्तर पर वृद्धि देखि जा सकती है। लेकिन दूसरी ओर यह भी सत्य है कि भारत आज भी दलित और अछूत वर्ग के साथ हो रही सामाजिक असमानता का दंश सह रहा है। चाँद पर घर बनाने की ताकत रखने वाला भारत आज भी भारत के छत्तीसघड़ की सीमा में बने आदिवासी को पक्का घर देने में असमर्थ है। जहां एक ओर भारत के वैज्ञानिक मंगल ग्रह पर पानी ढूँढने में सफल हो गए हैं वहीं भारत के अनेक गांवों में बसे कुछ लोग सामाजिक रूप से अछूत माने जाने के कारण मीलों चलकर एक मटका पानी का ले पाते हैं। दलित और अछूत वर्ग अभी भी विकसित भारत के लाभ का स्वाद चखने से बहुत दूर है।