यह भारत है। वही भारत, जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था। वही भारत, जो कभी विश्वगुरु कहलाता था। इतना स्वर्णिम अतीत होने के बावजूद इस भारत में कुछ ऐसी प्रथाओं या फिर यूं कहें कि कुप्रथाओं ने समय के साथ अपने पैर जमा लिये, जिनकी वजह से यहां के समाज में आधी आबादी यानी कि स्त्रियों का जीना दुश्वार हो गया। अज्ञानता की वजह से अंधविश्वासों पर आधारित कुप्रथाओं ने जब अति कर दी थी, तो इसका प्रतिरोध होना तो स्वाभाविक ही था। इसी ने भारत में Social Reform Movement को जन्म दिया। India में Social Reforms का जो दौर 19वीं शताब्दी में चला, उसी की वजह से आज के सभ्य समाज की नींव पड़ी है। आइए, डालते हैं एक नजर India में Social Reform Movement पर:
सती प्रथा का उन्मूलन
19वीं शताब्दी में जिन कुप्रथाओं ने हमारे समाज को जकड़ कर रखा था, उनमें सबसे भीवत्स सती प्रथा थी। इस प्रथा के अनुसार जब किसी स्त्री के पति की मौत हो जाती थी तो पति की चिता पर बैठकर उस स्त्री को भी सती हो जाना पड़ता था यानी कि पति की चिता पर वह भी जिंदा जला दी जाती थी। जरा सोचिए, जिंदा जलने से दर्दनाक चीज किसी के लिए और क्या हो सकती है। स्त्रियों को बलपूर्वक जलाये जाने की इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद की समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने। उन्होंने इसे स्त्रियों के साथ न केवल घोर अन्याय बताया, बल्कि यह भी कहा कि सती प्रथा पूरे हिंदू समाज के लिए शर्मनाक है। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ पुरातन हिंदू शास्त्रों का प्रमाण देकर लोगों को जागरूक किया। नैतिकता, तर्कशक्ति, दयाभाव और मानवीयता की दुहाई देकर उन्होंने इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। राजा राममोहन राय का ये Social Reform Movement रंग भी लाया। सती प्रथा को सरकार द्वारा अपराध घोषित किया गया और उन लोगों पर फौजदारी मुकदमा चलाने की घोषणा सरकार की ओर से की गई, जो इस प्रथा को प्रोत्साहित करने में लगे थे। वर्ष 1829 में लार्ड विलियम बैंटिक ने सती प्रथा के खिलाफ एक कानून पास करवाया। इसके 17वें नियम के मुताबिक विधवाओं के जिंदा जलाये जाने पर रोक लगा दी गई। बंगाल में सबसे पहले यह नियम लागू हुआ और इसके बाद मद्रास और बंबई में भी इसे अगले वर्ष 1830 में लागू कर दिया गया।
अपराध घोषित हुआ शिशु वध
18वीं और 19वीं शताब्दी में भारत में एक बड़ी ही घृणित प्रथा प्रचलित थी। विशेषकर बंगालियों तथा राजपूतों के बीच शिशु वध की कुप्रथा चली आ रही थी, जिसमें कन्याओं को आर्थिक भार माना जाता था। यही वजह थी कि बेटियों के जन्म लेने पर शैशव काल में ही उनकी हत्या कर दी जाती थी। इस कुप्रथा का उल्लेख महाराजा रणजीत सिंह के बेटे दिलीप सिंह ने भी किया है। उन्होंने शिशु वध के बारे में लिखा है कि मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा था कि मेरे सामने ही मेरी अपनी बहनों को बोरी में बंद करके नदी में फेंक दिया गया था। इस कुप्रथा से धीरे-धीरे प्रबुद्ध भारतीय और अंग्रेज भी नाराज होने लगे और उन्होंने इसकी आलोचना शुरू कर दी। अंततः गवर्नर जनरल जानशोर के कार्यकाल के दौरान 1795 ई. में बंगाल नियम-21 तहत नवजात कन्याओं की हत्या किये जाने को बाकी हत्याओं के समान ही अपराध घोषित कर दिया गया। उसी तरह से वेलेजली के कार्यकाल के दौरान भी 1804 ई. में नियम-3 के अंतर्गत शिशु वध को बाकी हत्या की तरह ही मानते हुए इसके लिए दंड का प्रावधान कर दिया गया। बंगाल रेगुलेशन एक्ट नामक इस अधिनियम के जरिये माता-पिता द्वारा अब सभी बच्चों के जन्म के बाद उनके पंजीकरण को अनिवार्य तो कर ही दिया गया, साथ ही जन्म के कुछ समय बाद तक शिशु की निगरानी भी किये जाने की व्यवस्था की गई थी। भारतीय रियासतों से शिशु वध नामक कुप्रथा को बंद करने के लिए कहा गया। लार्ड विलियम बैंटिक ने नियमों का विस्तार करते हुए राजपूतों के बीच भी शिशु वध पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर लार्ड हार्डिंग ने तो पूरे भारत में शिशु वध को निषेध कर दिया।
विधवाओं को मिला पुनर्विवाह का अधिकार
भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। स्त्रियों के विधवा हो जाने का मतलब था आगे की जिंदगी नरक के समान हो जाना। उन पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये जाते थे। अच्छे पहनावे से लेकर श्रृंगार, विशेष खानपान और पर्व-त्योहारों व शुभ पारिवारिक एवं सामाजिक आयोजनों में उनकी भागीदारी पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये जाते थे। ऐसे में विधवाओं के हक में आवाज उठाने के लिए आगे आये ईश्वरचंद विद्यासागर। ये ब्रह्म समाज से जुड़े हुए थे। ब्रह्म समाज ने India में Social Reforms के दौरान जिन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया, उनमें विधवा पुनर्विवाह भी एक था। इसे लोकप्रिय बनाने की दिशा में ब्रह्म समाज का और विशेषकर ईश्वरचंद विद्यासागर का योगदान अहम रहा। ईश्वरचंद विद्यासागर कलकत्ता के संस्कृत कालेज में आचार्य के पद पर कार्यरत थे और संस्कृत एवं वेदों के उद्धरणों का जिक्र करके उन्होंने साबित कर दिखाया कि विधवा पुर्नविवाह की अनुमति तो वेद भी देते हैं। विद्यासागर यहीं नहीं रुके। करीब एक हजार हस्ताक्षरों वाला एक प्रार्थना पत्र उन्होंने तत्कालीन सरकार को भेजा। ईश्वरचंद विद्यासागर की मेहनत आखिरकार रंग लाई। वर्ष 1856 में हिंदू विधवा पुर्नविवाह अधिनियम अस्तित्व में आ गया। इसके मुताबिक अब विधवा पुनर्विवाह वैध हो गया। यही नहीं, इस विवाह के परिणामस्वरूप पैदा हुए बच्चों को भी इस अधिनियम के जरिये वैध घोषित किया गया। विधवा पुनर्विवाह की दिशा में जगन्नाथ शंकर सेठ और भाऊ दाजी ने भी महाराष्ट्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। वर्ष 1850 में विष्णु शास्त्री पंडित ने भी विधवा पुर्नविवाह एसोसिएशन की स्थापना की। उसी तरह से गुजरात में 1852 में करसोनदास मूलजी ने भी सत्य प्रकाश की स्थापना करके करके विधवा पुनर्विवाह को लोकप्रिय बनाने में अपना योगदान दिया। मद्रास में वीरेशलिंगम पंतुलु और बंबई में फर्ग्युसन कालेज के प्रोफेसर दीके कर्वे ने भी ऐसे ही प्रयास किये। कर्वे ने तो अपनी पत्नी की मौत के बाद वर्ष 1893 में दोबारा विवाह एक विधवा से ही किया। वर्ष 1856 में कलकत्ता में 7 दिसंबर को भारत में पहला कानूनी विधवा पुनर्विवाह हुआ था। जस्टिस गोविंद महादेव रानाडे, बी.एम. मालाबारी, के. नटराजन एवं नर्मदा का भी विधवा पुनर्विवाह को लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान रहा था।
बाल विवाह पर लगी रोक
बाल विवाह भी भारत में फैली कुप्रथाओं में से एक रहा था, जिसका भी India में Social Reform Movement के दौरान समाज सुधारकों ने कड़ा विरोध किया। इसी विरोध का नतीजा था कि आखिरकार वर्ष 1872 में नेटिव मेरिज एक्ट पारित हो पाया। इसके तहत 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह करने पर रोक लगा दी गई। अस्तित्व में आने के बाद भी यह कानून ज्यादा प्रभावी नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में समाज सुधारक वीएम मालाबारी ने इसके लिए काफी प्रयास किये। उनकी मेहनत रंग लाई और वर्ष 1891 में सम्मति आयु अधिनियम को पारित कर दिया, जिसके तहत 12 वर्ष से कम आयु की लड़कियों का विवाह किया जाना वर्जित कर दिया गया। इसके बाद भी इस दिशा में समाज सुधारकों के प्रयास जारी रहे और वर्ष 1930 में हर विलास शारदा के प्रयासों से शारदा एक्ट पारित हो गया, जिसमें 18 वर्ष से कम उम्र के लड़कों एवं 14 साल से कम उम्र की लड़कियों के विवाह को अवैध घोषित कर दिया। भारत को आजादी मिलने के बाद वर्ष 1978 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम (संशोधित) पारित किया गया, जिसके तहत लड़को के विवाह की आयु 21 वर्ष एवं लड़कियों की 18 वर्ष कर दी गयी। बाल विवाह को लेकर दंड का प्रावधान किया गया है।
प्रशस्त हुआ स्त्री शिक्षा का मार्ग
स्त्रियों की शिक्षा को लेकर 19वीं शताब्दी में हमारा समाज बेहद रुढ़िवादी था। समाज में यह भ्रांति फैली हुई थी कि हिंदू शास्त्रों में स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति नहीं है। स्त्रियां यदि शिक्षा ग्रहण करती हैं तो देवता उन्हें वैधव्य का दंड देते हैं। स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रयास करते हुए सबसे पहले ईसाई मिशनरियों ने वर्ष 1819 में कलकत्ता में तरुण स्त्री सभा की नींव रखी। फिर बेथुन स्कूल की स्थापना कलकत्ता में वर्ष 1849 में जेईडी बेथुन ने की। हालांकि, इस दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रयास ईश्वरचंद विद्यासागर का रहा। बंगाल में उन्होंने बहुत से स्कूलों में स्त्री शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया। वर्ष 1854 के चार्ल्स वुड के डिस्पैच में भी स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित किया गया। वर्ष 1916 में प्रो कर्वे के भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना से स्त्री शिक्षा को और बल मिला। स्वदेशी अभियान, बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन और होमरूल आंदोलन में भागीदारी ने भी स्त्रियों को आगे बढ़ने और अपने हक के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।
निष्कर्ष
इसमें कोई शक नहीं कि आजादी से पूर्व India में जो Social Reform Movement हुए, उनकी वजह से ही कई तरह की कुप्रथाओं का भारत में उन्मूलन हो पाया। कुछ कुप्रथाएं हालांकि अब भी देश के कई हिस्सों में प्रचलित हैं, मगर धीरे-धीरे शिक्षा के प्रसार-प्रसार से उनका भी उन्मूलन हो रहा है।