जब प्रथम विश्व युद्ध हुआ था, उसमें मित्र राष्ट्र यानी कि ग्रेट ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जापान और इटली के विरुद्ध लड़ने के लिए तुर्की जंग के मैदान में उतरा था। तब मुसलमानों का धार्मिक प्रधान तुर्की के खलीफा को ही समझा जाता था। इसी दौरान कुछ ऐसी अफवाहों को बल मिलने लगा कि अंग्रेज यानी कि ब्रिटिश सरकार की ओर से तुर्की पर कुछ ऐसे शर्त लादे जा रहे हैं, जो कि तुर्की के लिए बेहद अपमानजनक हैं। ऐसे में मौलाना आजाद, अली बंधु (मौलाना अली व शौकत अली), हकीम अजमल खान एवं हसरत मोहानी के नेतृत्व में इसके खिलाफ एक खिलाफत आंदोलन 1919-20 में शुरू कर दिया गया।
तीन प्रमुख मांगें
- मुस्लिमों के जितने भी पवित्र स्थल हैं, उन पर नियंत्रण केवल तुर्की के सुल्तान खलीफा का ही होना चाहिए।
- इस्लाम को महफूज रखने के लिए जितने भू-भाग की जरूरत है, उतने पर कम-से-कम तुर्की के खलीफा का नियंत्रण रहना चाहिए।
- सीरिया, फिलिस्तीन, इराक और अरब जो मिलकर जारीजात-उल-अरब के नाम से जाने जाते थे, उन पर संप्रभुता मुस्लिमों की ही बनी रहनी चाहिए।
खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि
- अंग्रेजों को प्रथम विश्व युद्ध में मुसलमानों से सहयोग की जरूरत थी। ऐसे में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लाॅयड जाॅर्ज की ओर से मुस्लिमों से यह वादा किया गया था कि वे तुर्की का सम्मान बरकरार रखेंगे और एशिया माइनर के साथ थ्रेस भी तुर्की की ही संपत्ति बने रहेंगे, मगर बाद में अपने इस वादे से मुकरते हुए ब्रिटेन ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उस्मानिया सल्तनत को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया।
- थ्रेस को भी उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया, जिससे भारत में जो पढ़े-लिखे और जागरुक मुस्लिम थे, उन्हें गहरा आघात लगा। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की तुर्की के प्रति नीति में बदलाव लाने की मांग को लेकर एक आंदोलन छेड़ने का निर्णय कर लिया।
- जल्द ही अपने नेताओं की अगुवाई में खिलाफत कमेटी के गठन के बाद देशभर में आंदोलन की गूंज सुनाई देने लगी, जिसमें बड़ी संख्या में मुसलमानों के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भी बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे।
- हिंदुओं और मुसलमानों को एकता के धागे में एक बार फिर से पिरो कर देश के स्वतंत्रता आंदोलन को भी मजबूती प्रदान करने का सुहावना अवसर देख महात्मा गांधी भी खिलाफत आंदोलन में कूद पड़े, जिसके बाद नवंबर, 1919 में उन्हें खिलाफत आंदोलन का अध्यक्ष भी बना दिया गया।
- गांधी जी ने न केवल मित्र राष्ट्रों के विजय के उपलब्ध में आयोजित हो रहे जश्न के कार्यक्रमों का बहिष्कार करने की अपील कर डाली, बल्कि तुर्की के साथ न्याय न किये जाने की स्थिति में बहिष्कार व असहयोग आंदोलन भी शुरू करने की धमकी ब्रिटिश हुकूमत को दे डाली।
- हिंदुओं और मुस्लिमों के एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल को 1920 में वायसराय द्वारा ‘ना’ कहे जाने के बाद इंग्लैंड गये प्रतिनिधिमंडल को भी प्रधानमंत्री लाॅयड जाॅर्ज की ओर से कहा दिया गया कि तुर्की के साथ किसी भी कीमत पर हार का सामना करने वाली ईसाई ताकतों से अलग बर्ताव नहीं किया जायेगा।
- जब तुर्की का विभाजन सेव्रेस की संधि के बाद निश्चित हो गया तो इससे मुस्लिम नेता बेहद आक्रोशित हो गये और महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन शुरू करने के प्रस्ताव को इलाहाबाद में 9 जून, 1920 को खिलाफत कमेटी ने स्वीकार करने के साथ गांधी जी को ही आंदोलन की अगुवाई करने की जिम्मेवारी भी सौंप दी।
यूं अप्रासंगिक हो गया खिलाफत आंदोलन
- आंदोलन जोर पकड़ने लगा। गांधी जी की अपील पर मुस्लिमों ने सेना में भर्ती होना बंद कर दिया। अली बंधु भी गिरफ्तार कर लिये गये। सरकार की किसी भी रूप में सेवा न करने की कांग्रेस की अपील भी रंग दिखाने लगी।
- अब अंग्रेजी हुकूमत ने आंदोलन के दमन के लिए सारे तिकड़म अपनाने शुरू कर दिये। धीरे-धीरे आंदोलन अपने उद्देश्य से भटकने लगा और अप्रासंगिक होता चला गया।
- दूसरी ओर 1922 में कमाल पाशा की अगुवाई में तुर्की की जनता ने सुल्तान को पदच्युत कर दिया। पाशा की ओर से खिलाफत को समाप्त कर तुर्की को धर्मनिरेपक्ष राष्ट्र घोषित करने का कदम उठाया गया एवं शिक्षा का भी राष्ट्रीयकरण करते हुए महिलाओं को बड़े पैमाने पर अधिकार देने के साथ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी।
- पाशा की ओर से उठाये गये कदमों ने आंदोलन के मूल स्वरूप को ही नष्ट कर दिया, जिससे आंदोलन पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गया, मगर अप्रत्यक्ष रूप से इसका दूरगामी असर जरूर हुआ।
खिलाफत आंदोलन के अप्रत्यक्ष प्रभाव
- ऐसा माना जाता है कि शिक्षा से लेकर धार्मिक चेतना तक में पिछड़े होने की वजह से मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय तौर पर हिस्सा नहीं ले पा रहा था। ऐसे में खिलाफत आंदोलन में प्रतिभागिता के बाद उसने भारत की आजादी की लड़ाई में भी मुस्लिमों की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती प्रदान करने के लिए हिंदुओं और मुस्लिमों का एकजुट होना जरूरी था। ऐसे में खिलाफत आंदोलन दोनों समुदाय के लोगों को एक साथ लाने में सफल रहा। इस आंदोलन से जो देशभर में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ी, उसने बाद में भारत की आजादी की लड़ाई को धार देने में अहम भूमिका निभाई।
निष्कर्ष
ऐसा कहा जाता है कि खिलाफत आंदोलन ने भारत में सांप्रदायिकता के बीज बो दिये, जो आगे चलकर भारत के विभाजन का कारण बनी। इसके पीछे तर्क दिया जाता है इस आंदोलन के दौरान उपजी धार्मिक चेतना ने मुसलमानों के अंदर भी अपने समुदाय के लिए सोचने की प्रवृत्ति विकसित कर दी। हालांकि, इस तर्क को पूरी तरह से जायज इसलिए नहीं ठहराया जा सकता कि भारत की आज़ादी की लड़ाई को भी मजबूती प्रदान करने के लिए हर वर्ग के लोगों का अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होना जरूरी था। साम्राज्यविरोधी सोच जो इस आंदोलन के फलस्वरूप मुस्लिमों के अंदर पैदा हुई, उसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भी मुस्लिमों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया। तो बताइए, क्या आपको नहीं लगता कि भारत के आज़ाद होने में हिंदुओं के साथ मुसलमानों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा?