शिक्षा ही जीवन का आधार है। शिक्षा से ही विकास का मार्ग भी प्रशस्त होता है। विकसित और विकासशील देशों के बीच जब अंतर को देखा जाता है, तो उसमें शिक्षा के स्तर में बड़ा अंतर नजर आता है। हमारे भारत जैसा विकासशील देश, जो यह दावा करता है कि यह विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा होने से महज कुछ ही कदम दूर है, यहां भी शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। सबसे बड़ी बात ये है कि हमेशा से ही शिक्षा के क्षेत्र को यहां गंभीरता से नहीं लिया गया है। हमेशा ही इस क्षेत्र की अनदेखी की गई है। भारत की वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट भी दिखाती है कि करीब 8 करोड़ बच्चे देश में ऐसे हैं, जो स्कूल नहीं जाते हैं। शिक्षा की वजह से किसी भी इंसान में सोचने-समझने की क्षमता विकसित होती है। जब शिक्षा को ही गंभीरता से न लिया जाए, तो भला क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।
शिक्षा की स्थिति चिंतनीय
- आजादी के सात दशक के बाद भी भारत में साक्षर लोगों की तादाद केवल 74.04 फीसदी ही है।
- अब भी 20 फीसदी बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़ाई कर पाते हैं।
- ऐसे बच्चे 36 फीसदी हैं, जो माध्यमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
- 12वीं के बाद अब भी 74 फीसदी स्टूडेंट्स पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं।
- प्रथम की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि आठवीं में पढ़ने वाले 25 फीसदी स्टूडेंट्स दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक से पढ़ पाने में असमर्थ हैं।
- प्रथम की ही रिपोर्ट बताती है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 50 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को ठीक से पढ़ पाने में नाकामयाब रहते हैं।
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वर्ष 2016 में आई रिपोर्ट में बताया गया था कि गांव में स्थित सरकारी विद्यालयों के केवल 40.2 फीसदी स्टूडेंट्स ही गणित के भाग के सवाल को हल कर पा रहे हैं।
- राइट टू एजुकेशन फोरम की रिपोर्ट बताती है कि शिक्षकों के पांच लाख से भी अधिक पद खाली पड़े हैं।
- यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि 6.6 लाख शिक्षक ऐसे हैं, जिन्हें प्रशिक्षण की जरूरत है।
- डाइस की रिपोर्ट में सामने आया था कि वर्ष 2014-15 में हर 100 में से केवल 32 बच्चे ही भारत में स्कूली शिक्षा पूरी कर रहे थे।
- डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डाइस) की ही रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि देश में ऐसे स्कूलों की संख्या केवल दो फीसदी ही है, जहां पहली से 12वीं तक की शिक्षा दी जाती है।
ऐसे स्कूलों में भला कोई क्यों पढ़ने जायेगा?
- सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपी नहीं है। सोशल मीडिया पर अक्सर वीडियो सामने आते रहते हैं, जिनमें देखने को मिलता है कि शिक्षक पढ़ाई को कितनी गंभीरता से लेते हैं? शिक्षकों के सामान्य ज्ञान से लेकर उनके भाषा ज्ञान तक का क्या स्तर है, ये सब बार-बार देखने को मिलता है।
- ऐसा नहीं है कि सभी सरकारी स्कूल ऐसे ही हैं, मगर अधिकतर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के ज्ञान के निम्न स्तर, बुनियादी सुविधाओं का अभाव व जागरुकता की कमी की वजह से बच्चों को वैसी शिक्षा नहीं मिल पा रही है, जिसकी आवश्यकता है।
- पीने के लिए साफ पानी की व्यवस्था और शौचालय उन प्रमुख आधारभूत सुविधाओं में से हैं, जिनकी सरकारी विद्यालयों में जबर्दस्त कमी है।
- गांव-देहात, कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों और छोटे शहरों में अब भी सरकारी स्कूलों से शिक्षक गायब पाये जाते हैं। मीडिया रिपोर्ट में अक्सर ये चीजें प्रकाश में आती रहती हैं।
- निजी स्कूलों के बारे में भी निश्चित रूप से नहीं जा सकता कि यहां पढ़ाई का स्तर बहुत अच्छा है, क्योंकि छोटे-छोटे शहरों और कस्बों आदि में खुले निजी स्कूलों का मकसद बस पैसे कमाना रह गया है। ऐसे में शिक्षकों की योग्यता और शिक्षा के स्तर से भी खिलवाड़ करने से वे नहीं चूक रहे हैं।
हालत जब ऐसी हो तो चिंता कैसे न हो?
- बीते साल प्रथम की रिपोर्ट में सामने आया कि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में 14 से 18 साल तक 41.9 फीसदी बच्चे भारत के मानचित्र में हिमाचल प्रदेश के नक्शे को नहीं पहचान सके।
- असर की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में तीसरी कक्षा के केवल 20.9 प्रतिशत बच्चे ही जोड़-घटाव कर सकते हैं।
- तीसरी कक्षा में सामान्य गणित की बात की जाए तो राजस्थान में 8.1 फीसदी बच्चे ही इसमें सक्षम हैं।
- रिपोर्ट के मुताबिक 76 फीसदी बच्चे पैसे नहीं गिन पाते हैं।
- देश में 14 से 18 साल तक के बच्चे ऐसे हैं, जो अपनी भाषा भी ठीक तरीके से नहीं पढ़ पाते हैं।
- वर्ष 1990 में एक अध्ययन में बताया गया था कि वर्ष 2060 से पहले भारत दुनिया की औसत साक्षरता दर को नहीं छू पायेगा।
- वर्ष 2001 से 2011 तक में भारत में साक्षरता दर में बढ़ोतरी केवल 9.2 फीसदी की रही है।
- डाइस की रिपोर्ट में यह बात सामने आ चुकी है कि देश में 97 हजार 923 प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों में ऐसे हैं, जहां केवल एक ही शिक्षक के भरोसे पढ़ाई चल रही है, जबकि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) कहता है कि प्रति 30 से 35 बच्चों पर स्कूल में एक शिक्षक होना ही चाहिए।
यहां तो ऐसा भी हुआ है
- साल 2016 में एक न्यूज वेबसाइट पर यह खबर देखने को मिली राजस्थान के अलवर जिले के गांधी सवाईराम गांव में जो सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल है, वह दरअसल एक श्मशान घाट में चल रहा है। किसी मृतक का अंतिम संस्कार होने की स्थिति में वहां बच्चों को तीन दिनों की छुट्टी मिल जाती थी।
- बिहार में दो साल पूर्व हुए टाॅपर्स घोटाले ने साबित किया कि किस तरीके से शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला रहा है। उस दौरान परीक्षा के दौरान नकल कराने के लिए अभिभावकों के स्कूल की दीवारों पर चढ़ने की तस्वीरें भी खूब वायरल हुई थीं।
- शिक्षा में सुधार के लिए सरकारी स्तर पर जो प्रयास होने चाहिए, वे जब नहीं हुए तो आखिरकार वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को दखल देते हुए प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए आदेश देना पड़ा।
- साल 2002 में ही यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में बता दिया था कि जिस रफ्तार से भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हो रही है, वैसे में साल 2015 तक जो सभी के लिए शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसे हासिल करने में भारत पीछे रह जायेगा। ऐसा हुआ भी है।
- जनगणना पर आधारित इंडिया स्पेंड के एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि भारत में आज तक स्कूल का मुंह न देखने वाले लोगों की संख्या 41.5 करोड़ है। यह चिंतनीय है, क्योंकि यह संख्या तो रुस की आबादी का भी तीन गुना है।
- बिहार के मुजफ्फरपुर के पारु प्रखंड में स्थित उत्क्रमित विद्यालय के एक शिक्षक के हवाले से यह बात सामने आई थी कि शिक्षक छात्रवृत्ति योजना, जनगणना, मध्याह्न भोजन योजना, पोशाक योजना और पारिवारिक सर्वेक्षण आदि कामों में ही लगा दिये जाते हैं। ऐसे में आखिर वे पढ़ाएं भी तो कैसे?
इन देशों से क्यों सीखें?
- निजीकरण के मामले में अमेरिका सबसे आगे है। इसके बावजूद यहां प्राथमिक शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी सरकार ने उठा रखी है।
- बच्चों को स्कूल तक लाने और ले जाने की भी जिम्मेदारी अमेरिका में सरकार उठाती है।
- फ्रांस ने अपने देश में शिक्षा को निःशुल्क बना रखा है।
- स्काॅटलैंड में तो विश्वविद्यालयों में कोई ट्यूशन फीस नहीं ली जाती है।
नोबेल पुरस्कार विजेता ने कहा था
- नोबले पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की एक मैगजीन के साथ बातचीत में एक बार कहा था, अशिक्षित और अस्वस्थ काम करने वाले लोगों के साथ दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का प्रयास कर रहा भारत शायद एकमात्र देश है।
- सेन ने यूरोप व अमेरिका की सार्वभौमिक शिक्षा के साथ जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया, चीन व सिंगापुर आदि का उदारहण देते हुए कहा था कि भारत इस तरह से तो आर्थिक महाशक्ति बनने से रहा।
जरूरत इसकी है
- शिक्षा का अधिकार का गंभीरता से पालन कराना जरूरी है।
- सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार किया जाए और अभिभावकों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही भेजने के लिए प्रेरित किया जाए।
- योग्य शिक्षकों की बहाली हो और जिन शिक्षकों को प्रशिक्षण की जरूरत है, उनके लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
- मध्याह्न भोजन योजना को पूरी गंभीरता के साथ लागू किया जाए, ताकि बच्चों की बीच में पढ़ाई छोड़ने की नौबत न आये।
- शिक्षा के बजट में कोई कटौती न की जाए और इसे बढ़ाया जाए, क्योंकि हर तरह के विकास और विशेषकर आर्थिक विकास की नींव तो शिक्षा ही है।
चलते-चलते
यह बात सही है कि शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे शायद आज तक भारत में उतनी अहमियत नहीं दी गई, जिसकी यह हकदार थी, मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया सकता कि समय-समय पर सरकार और स्वयंसेवी संगठनों की ओर से देश में शिक्षा की स्थिति को सुधारने के प्रयास होते रहे हैं। सर्व शिक्षा अभियान व शिक्षा का अधिकार जैसे कदम इसी का हिस्सा हैं। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि यदि इन अभियानों को उतनी ही गंभीरता से आगे बढ़ाया गया होता, जितनी गंभीरता के साथ इन्हें शुरू किया गया था, तो शायद कुछ और ही तस्वीर हमारे देश में हमारी शिक्षा व्यवस्था की उभर कर सामने आती। विशेषकर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति देश में सुधारने की जरूरत है, क्योंकि यदि नींव मजबूत हो गयी तो यह आगे बहुत काम आती है।
Isme koi doubt nahi ki education ka status ab tak waisa hi hai. ye article bahut informative hai aur writing me flow hai. aise hi post dalte rahiye.