विनोबा भावे – भूदान आंदोलन के बिगुलधारक

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Vinoba Bhave


आधुनिक भारत के संत, महात्मागांधी के परम अनुयायी, समाज के जाने-माने सिद्ध सुधारक और सादा जीवन उच्च विचार के साक्षात प्रतिरूप के रूप में जो नाम सामने आता है, वह है विनोबा भावे। इसके अतिरिक्त इनका एक और परिचय भी दिया जाता है। विश्व में ज़मीन का दान करने की प्रेरणा देकर लाखों भूमिहीनों को भूस्वामी बनाने के उद्देशय से चलाया गया भूदान आंदोलन का बिगुल भी विनोबा भावे ने ही बजाया थाविनोबा भावे का जीवन परिचय उनकी ही भांति सरल व स्पष्ट है।

विनोबा का प्रारम्भिक जीवन:

महराष्ट्र के कोंकण जिले के छोटे से गाँव गागोदा में चित्तपावन ब्राह्मण नरहरि शंभू राव के घर 11 सितंबर 1885 को हुआ था। इनकी माता का नाम रुक्मणी देवी था और यह अपने माता-पिता की सबसे पहली संतान थे। बचपन में इन्हें नरहरी विनयाक राव भावे के नाम से जाना जाता था। बालक विनायक के चरित्र पर उनकी भक्ति में लीन माता का बहुत प्रभाव था। इसी कारण बचपन से ही विनायक अध्यात्म के रंग में रंगे हुए थे। इसके साथ ही बालक विनायक अपने पिता जो अपने समय में गणित और रसायन के गुणी और विशेषज्ञ माने जाते थे, की भांति विनायक भी गणित और विज्ञान के प्रति गहरी रुचि रखते थे। इस प्रकार दो विरोधी विचारधाराओं का अध्भुत संगम थे विनोबा भावे। एक ओर तो पिता के गुणों के रूप में विनायक को हर तथ्य को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कसौटी पर कसना और दूसरी ओर माता के प्रभाव के कारण हर प्राणी में ईश्वर के अंश को उपस्थित मानकर उनके कल्याण में रुचि रखना ही मानो बालक और बाद में युवा विनायक का परम ध्येय था।

पिता का गणित और माता का धर्म:

बालक विनायक में बचपन से ही माता के संस्कारों के प्रभाव के कारण आध्यात्म की ओर गहरी रुचि थी। उनकी माता रुक्मणी देवी नियम से हर माह एक लाख धान का दान करती थीं। इस दान के लिए वह हर रोज कुछ चावलों की गिनती करतीं थी, जिससे माह के अंत में एक लाख चावल एक साथ निकल आयें। एक बार उनके पति नरहरी भावे ने पत्नी की सहायता करने के उद्देश्य से एक सुझाव दिया। उन्होनें कहा कि वह एक बार 250 ग्राम धान के चावलों की गिनती कर लें। उसके बाद माह के अंत में उसी तौल के अनुसार शेष एक लाख के चावल को तोल कर निकाल लें। इससे न केवल समय की बचत होगी बल्कि वो इस बचे हुए समय का सदुपयोग किसी और काम में भी कर सकतीं हैं।

पत्नी की बुद्धि ने तर्क को स्वीकार लिया लेकिन धार्मिक हृदय न मान सका। संशय में डूबी हुई माँ ने पुत्र विनायक का सहारा लेकर हल निकालने का प्रयास किया। तब विनायक ने पिता के तर्क से सहमत होते हुए उसे सही बताया। लेकिन साथ ही अपना विचार व्यक्त किया कि “चावल की गिनती केवल संख्या पूरी करने के लिए नहीं की जाती है। बल्कि हर चावल को उठाते समय चित्त में ईश्वर का ध्यान लगता है जो अपने आप में सम्पूर्ण साधना है। इससे हम उतने समय के लिए सीधे ईश्वर से जुड़ जाते हैं।“ माता रुक्मणी उनके सरल से दिखने वाले कार्य की इतनी विशाल व्याख्या सुनकर चकित हो गईं। रुक्मणी देवी ने तत्काल पुत्र की व्याख्या को मान कर शेष जीवन एक लाख धान के चावलों की गिनती करके ही माह के अंत में दान देने का कार्य सम्पन्न किया।

महात्मा गांधी के कर्मठ अनुयाई:

7 जून 1916 के दिन जब महात्मा गांधी से युवा विनायक की मुलाक़ात हुई तब इस घटना ने विनायक के जीवन की धारा का रुख ही बदल कर रख दिया। न केवल विनायक आज़ादी के महान संत से प्रभावित हुए थे, बल्कि गांधी जी ने भी विनायक से मिलने के बाद कहा था, की यह व्यक्ति वह है जो किसी से कुछ देने के लिए मिलता है, लेने के लिए नहीं। इस घटना से विनायक के स्वभाव की उदारता और सरलता का आभास होता है।

गांधी जी के कोचर्ब आश्रम में विनायक अब सबके लिए विनोबा थे। गुजराती परंपरा में प्रत्येक नाम के पीछे ‘बा’ सममानसूचक शब्द लगाने की प्रथा है और गांधी जी विनायक को प्यार से विनो कहते थे। कुछ ही समय में विनायक को विनोबा के नाम से सब जानने और पहचानने लगे। गांधी जी ने आश्रम में रहते हुए विनोबा से एक और बात सीखी जिसमें उन्होनें सुबह-शाम होने वाली प्रार्थनाओं में शामिल होने वाले लोगों की गिनती का काम खत्म करवा दिया। इसके लिए वह घटना जानी जाती है जब एक बार आश्रम के एक कार्यकर्ता ने जब गांधी जी को प्रार्थना में शामिल लोगों की संख्या बताई तब विनोबा जी अड़ गए कि यह संख्या गलत है। तब चकित कार्यकर्ता ने हर प्रकार का प्रमाण देकर विनोबा को संतुष्ट करने का प्रयास किया लेकिन आश्चर्यजंक रूप से विनोबा अपनी हठ पर अड़े रहे कि प्रार्थना में शामिल व्यक्तियों की वास्तविक संख्या कार्यकर्ता की संख्या से एक कम है। जब देर तक विवाद न सुलझा तब गांधी जी ने हैरान होकर विनोबा जी से सत्यता जानने का प्रयास किया। तब विनोबा जी ने बड़ी सरलता से कहा कि इस संख्या में एक व्यक्ति कम इसलिए है क्योंकि वह एक व्यक्ति शेष लोगों की गिनती कर रहा था, इसलिए वह प्रार्थना में शामिल नहीं माना जा सकता है।

इस घटना से जहां विनोबा जी के आध्यात्म के प्रति गहन रुचि का पता चलता है वहीं गांधी जी ने इसके बाद से यह निर्णय लिया कि प्रार्थना के लिए हिसाब-किताब के दिखावे की जरूरत नहीं है।

भूदान का बिगुल:

भारत में किसान वर्ग की स्वतन्त्रता आंदोलन के बाद की स्थिति बहुत खराब मानी जाती है। उस समय भूमिहीनों और भूस्वामियों के बीच मालिकाना हक के असंतुलन के कारण भारी संघर्ष मचा हुआ था। इस संघर्ष के मूल कारण को समझने और उसे शांत करने के उद्देश्य से आचार्य विनोबा भावे ने पदयात्रा आरंभ कर दी। इसी पदयात्रा में जब वे तेलंगाना के एक गांव में पहुंचे तब वहाँ के हरिजन समुदाय ने अपने जीवन यापन के थोड़ी से भूमि की मांग की। विनोबा ने उनकी माँग जब नेहरू जी के समक्ष रखी तब नेहरू जी के व्यंग से वह समझ गए कि यह काम स्वयं सिद्ध करने से ही होगा। इसके लिए जब वे उसी गाँव के भूस्वामियों के पास जाकर उनसे अपने गरीब भाइयों की मदद करने की प्रार्थना की जिसे न केवल उन्होनें सहर्ष स्वीकार कर लिया बल्कि तत्काल 100 एकड़ भूमि उन्हें दान स्वरूप मिल भी गई। इस दान से विनोबा भावे को भूदान का विचार आया और इसे पूरे भारत में फैलाने के लिए पदयात्रा आरंभ कर दी।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक सरल विचार ने असंख्य भूमिहीनों को जीविका कमाने का जरिया दे दिया। इसके साथ ही यह महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का विस्तृत रूप ही था जो आश्चर्यजनक रूप से सफल भी हुआ।

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