आपको दो बीघा ज़मीन फिल्म का मुख्य कलाकार शंभू तो याद ही होगा जिसकी सारी उम्र अपनी दो बीघा ज़मीन को जमींदार के चंगुल से छुटाने में खत्म हो जाती है। यह फिल्म आज़ादी से पहले के समय भारत के हर उस किसान की कहानी बताती है जिसके पास छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा होता था। जमींदारी प्रथा के चलते किसान अपनी हर ज़रूरत को पूरा करने के लिए अगर कभी जमींदार से इस ज़मीन के बदले कर्ज लेते थे, तो उनकी ही नहीं बल्कि उनकी पुश्तों तक वह कर्ज और उसका ब्याज पूरा नहीं होता था। परिणामस्वरूप किसान की ज़मीन जमींदार की पूंजी बन जाती थी।
भारत के स्वतंत्र होने के साथ अनेक पुरानी परम्पराओं के साथ ही जमींदारी प्रथा को भी कानून के माध्यम से समाप्त करने का प्रयास किया गया। लेकिन बड़े भूमिपति और पूर्वर्ती जमींदारों ने कागजों में ज़मीन को बाँट कर उसे फिर किसानों के पास जाने से रोक दिया। इस प्रकार भूमिहार वास्तव में भूमि को हारने वाले बन गए। लेकिन इस परेशनी को दूर करने में आचार्य विनोबा भावे ने चमत्कारिक रूप से दूर कर दिया।
भूदान आंदोलन क्यों शुरू हुआ था:
1947 में भारत के स्वतंत्र होने पर विभिन्न प्रकार के नए कानून बने जिसमें उन सभी प्रथाओं और व्यवस्थाओं को समाप्त किया गया जिनसे विकास में बाधा आ रही थी। ऐसी ही एक प्रथा जमींदारी थी जिसे कानून के माध्यम से खत्म कर दिया गया। इसके साथ ही यह भी व्यवस्था लागू की गई, कि गाँव में प्रत्येक व्यक्ति के पास केवल उसकी ज़रूरत के अनुसार भूमि का अधिकार रहेगा। इससे अधिक भूमि होने पर वो सरकार द्वारा ले ली जाएगी और भूमिहीन किसानों को दे दी जाएगी। परोक्ष रूप से यह कानून बहुत लुभावना था। लेकिन सामंतकारों ने इसका तोड़ निकाल लिया और ज़मीन का बंटवारा अपने परिवार के सदस्यों के नाम दिखाकर अतिरिक्त भूमि को सरकार के आधिपत्य में जाने से रोक दिया।
भूदान आंदोलन का आरंभ कब हुआ:
आज़ाद देश के नए कानून में छिद्र का सहारा लेकर जमींदारों ने अपनी ज़मीन को अपने पास ही रहने दिया और
इस प्रकार खेती योग्य भूमि का आसमान वितरण की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। इस समस्या ने इतना गंभीर रूप ले लिया कि तेलंगाना राज्य में भूमि वितरण को लेकर हिंसा आरंभ हो गई। इस हिंसा की सूचना जब विनोबा भावे को मिली तब उन्होनें तुरंत हैदराबाद जाकर हिंसाग्रस्त क्षेत्र से अपनी पदयात्रा आरंभ करके इस समस्या का हल निकालने का प्रयास किया।
15 अप्रैल 1951 को आचार्य भावे ने अपनी पदयात्रा शुरू की और जब वे वाममार्गी से मुलाक़ात करते हुए 18 अप्रैल को पोचमपल्ली गाँव पहुंचे तब उन्हें हिंसा का मूल कारण समझ आया। वहाँ के हरिजन लोगों ने बताया कि उनके पास रोजगार और भूमि न होने के कारण वे जीवनयापन के लिए लुटपाट और हिंसा का सहारा लेते हैं। तब आचार्य ने उन्हें सरकार के द्वारा भूमि दिलवाने का आश्वासन दिया। लेकिन आचार्य विनोबा स्वयं अपने आश्वासन से संतुष्ट नहीं थे। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होनें वहाँ खड़े कुछ लोगों से सहायता की मांग की जिसका सकरात्मक जवाब मिला। उस गाँव के कुछ लोग अपनी अतिरिक्त भूमि को सहर्ष छोड़ने के लिए तैयार हो गए। ज़मीन का यह दान आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का पहला दान था।
विनोबा भावे की पदयात्रा और भूदान:
विनोबा भावे को इसके बाद 27 जून 1951 तक दान के माध्यम से 12 हज़ार एकड़ ज़मीन मिल चुकी थी। इस आंकड़े ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि भारत के सभी भूमिहीन कृषकों के लिए पाँच करोड़ एकड़ भूमि की ज़रूरत होगी। यह भारत में खेती योग्य 30 करोड़ भूमि का छठा हिस्सा था। इस विचार ने उन्हें आगे की पदयात्रा का सूत्र दे दिया और यहीं से गाँव-गाँव घूमकर उन्होनें ज़मीन का दान लेना शुरू कर दिया। वो अपनी पदयात्रा के माध्यम से बड़े भूमिपतियों से उनके स्वामित्व वाली भूमि में से छटा हिस्सा दान में मांगते थे। इस प्रकार दान में मिली ज़मीन को भूमिहीनों के मध्य बाँट कर उन्होनें आर्थिक विषमता को दूर करने के प्रयास किया। इसमें प्रसिद्ध समाजसेवी जयप्रकाश नारायण ने भी उनका सक्रिय सहयोग दिया।
भूदान से ग्राम दान का सफर:
भारत के उत्तर भारत, बिहार में भूदान का कार्यक्रम बड़े ज़ोर-शोर से किया गया। 1955 तक आते-आते भू दान आंदोलन ने ग्राम दान का रूप ले लिया। उड़ीसा से आरंभ हुए “सारी भूमि गोपाल की ” के नारे के साथ एक गाँव की समस्त भूमि पर उस गाँव के प्रत्येक व्यक्ति का समान अधिकार माना गया। इस आंदोलन के प्रभाव से 1960 तक लगभग 4500 से अधिक गाँव, ग्रामदान के अंतर्गत लाभ प्राप्त कर चुके थे। इनमें से लगभग 1946 गाँव केवल उड़ीसा राज्य से थे।
विनोबा भावे ने इसके बाद लगभग बीस वर्षों तक पदयात्रा के माध्यम से समूचे देश की चारों दिशाओं से 42 लाख एकड़ ज़मीन का दान मिल गया।
भूदान का प्रभाव:
पदयात्रा के माध्यम से विनोबा भावे ने भूमि हीनों की समस्या का हल निकालने का प्रयास किया जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। इसके परिणामस्वरूप विनोबा जी ने सर्वोदय समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य अहिंसा का रास्ता अपनाते हुए समाज के स्वरूप को बदलना था। इसी क्रांतिकारी कदम के चलते वे चंबल के डाकुओं से भी आत्मसमर्पण करवाने में सफल रहे।
भूदान आंदोलन का पतन:
1960 के दशक के साथ ही भूदान आंदोलन का दुरुपयोग दिखाई देने लगा। लोग ऐसी भूमि को दान करने लगे जिसका कोई भावी उपयोग नहीं संभव था। इसके अतिरिक्त दान में मिली अच्छी कृषि योग्य भूमि लाल फीता शाही में फँसकर असली हकदारों तक पहुँच नहीं सकी और फाइलों में ही दफन हो गई। कुछ पारिवारिक संपत्ति भी बिना आपसी सहमति के दान में दे दी गई और इसी कारण किसी तक नहीं पहुँच सकी।
आचार्य विनोबा भावे के भू दान कार्यक्रम की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सराहना की गई। उन्हें इसके लिए मैगासे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने भी विनोबा भावे को उनके सामाजिक योगदान को देखते हुए भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया है।