भूदान आन्दोलन – परिचय

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भारत सभ्यता, विविधताओं से भरा देश है। यहाँ सुई की नोक बराबर धरती जब एक भाई दूसरे भाई को देने को तैयार न होकर महाभारत जैसा महायुद्ध रचा सकता है, वहीं एक ग्रामीण फकीर के कहने पर लोग अपनी लंबी चौड़ी उपजाऊ जमीन का दान कर देते हैं, जिसे भूदान कहा जाता है। आजादी के बाद महात्मा गांधी के आदर्शों को मूर्त रूप देने वाले विश्व विख्यात नेता और समाज शास्त्री विनायक नरहरी भावे ने इस दूसरी विविधता को सत्य सिध्ध कर दिया था।

 भूदान क्यूँ हुआ :

1947 में देश के स्वतंत्र होने के साथ ही प्राचीन काल से चली आ रही जमींदारी प्रथा को कानून के माध्यम से समाप्त कर दिया गया। लेकिन सामंतकारों ने क़ानूनों की आड़ में अपनी ज़मीन को फर्जी बँटवारे में दिखा कर, किसानों के पास उपजाऊ ज़मीन का मालिकाना हक होने से रोक दिया। इस कारण भारतीय समाज के समूख जमीनी स्वामित्व की विषमता एक विकराल समस्या के रूप में उभर कर आ गई। आर्थिक और सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से ज़मीन के एकसमान वितरण की आवश्यकता की अनिवार्यता होते हुए भी प्रयोगिक रूप से संभव नहीं हो पा रहा था। इस विषमता ने हिसंक आंदोलन का रूप ले लिए और तेलंगाना में १९५१ में पहला हिसंक रूप  सामने आ गया।

 भूदान की शुरुआत:

प्रसिद्ध समाजशास्त्री विनायक नरहरी भावे जो महात्मा गांधी के पद चिन्हों पर चलकर अहिंसा में विश्वास रखते थे, हिंसा के प्रत्युत्तर में अहिंसा का सहारा लिया । लोगों ने उन्हें विनोबा भावे नाम दिया, और १८ अप्रैल १९५१ में हिंसक आंदोलन की जन्मस्थली तेलंगाना के एक छोटे से गाँव तिरुचपल्ली में एक जमीन का टुकड़ा दान में दिया। यह भूदान आंदोलन की शुरुआत थी। इस आंदोलन का उद्देशय जमीनी स्वामित्व की विषमता को दूर करके उपजाऊ भूमि के स्वामित्व को बढ़ावा देना था। इस आंदोलन के अंतर्गत, विनोबा भावे ज़मीन के स्वामियों से उनकी कुल ज़मीन का छटा हिस्सा दान में देने का आग्रह कर रहे थे । पूरे देश में इस आंदोलन का लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया। दान में मिली ज़मीन को भूमिहीन में बाँट कर स्वामित्व विसंगति को दूर करने का सार्थक प्रयास किया।

भूदान की सफलता:

विनोबा जी की भूदान की अपील का इतना सार्थक देखा गया, की मात्र ७० दिनों की अवधि में हीं उन्हें १२ हज़ार एकड़ जमीन मिल चुकी थी। इसके बाद अगले दो दशक तक विनोबा भावे ने भारत भूमि की चहुं दिशाओं को केवल पदयात्रा से लांघ कर, ४२ लाख एकड़ जमीन का दान स्वीकार किया। इस भूमि का लगभग एक तिहाई भाग का उपयोग हरिजन और आदिवासी भूमिहीनों में बाँट कर तत्काल कर दिया गया।

भूदान का बदला स्वरूप:

विनोबा जी के प्रयासों से लोग इतने अधिक प्रभावित थे की एक बार जब वो अपनी पदयात्रा करते हुए मेरठ पहुंचे, तो लोगों ने उनके आंदोलन का रूप ही बदल कर रख दिया। २४ मई १९५२ को मेरठ पहुँचने पर एक छोटे से जिले हमीरपुर में मंगरोठ गांव  के लोगों ने, ज़मीन का एक टुकड़ा ही नहीं बल्कि पूरे ग्राम की ज़मीन को दान कर दिया। इस प्रकार भूदान आंदोलन को ग्राम दान के रूप में बदल दिया। इस दान के पीछे गांधीजी के ट्रस्टीशिप विचार का योगदान माना जाता है। १९६२ में प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ जयप्रकाश नारायण, सक्रिय रूप से ग्राम दान आंदोलन में जुड़ गए और १९६९ तक देश के सवा लाख गाँव ग्राम दान का हिस्सा बन चुके थे।

आंदोलन की दुर्दशा:

साठ के दशक तक आते-आते भूदान आंदोलन की दशा में अंतर दिखाई देने लगा। अधिकतम शिकायत दान में मिली भूमि के खराब प्रकृति के संबंध में थी। किसानों ने दान में मिली ज़मीन को खेती के लायक न होने की शिकायत करी। इसके अलावा लाल फीता शाही के चलते अधिकतम दान में मिली भूमि को, पुनः वितरित नहीं किया जा सका और परिणामस्वरूप आधी से अधिक दान में मिली भूमि, बिना स्वामित्व के राजस्व विभाग की फाइलों में दफन हो गई। एक और प्रारूप दिखाई दिया। कुछ भूमि के स्वामियों ने आपसी झगड़ों से बचने के लिए, पारिवारिक भूमि बिना आपसी सहमति के दान में दे दी। इस स्थिति में विरोधी पक्ष वालों ने अपना दावा प्रस्तुत करके दान वाली भूमि का दान ही खारिज करवाने का प्रयत्न किया। इस प्रकार वह ज़मीन किसी के भी पक्ष में नहीं हो सकी। कहीं-कहीं तो दान में मिली ज़मीन के कागज हाथ में होने पर भी, किसान इन्हीं झगड़ों के कारण उस ज़मीन को अपना कहने के पात्र नहीं थे।

सबसे बड़ा दुरुपयोग तो सरकार द्वारा किया जा रहा है जब लगभग नौ राज्यों में दान में मिली भूमि को सरकार की ओर से हाउसिंग बोर्ड और कारपोरेट समूहों को दिये जाने के मामले सामने आए हैं।

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