यूरोप का एकीकरण

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Unification of Europe


भौगोलिक दृष्टि से यूरोप पृथ्वी के सात महाद्वीपों में से एक लेकिन दूसरा सबसे छोटा महाद्वीप माना जाता है। इसे प्राचीन यूनानी सभ्यता का जन्मस्थान भी माना जाता है। एक समय की बड़ी महाशक्ति जिसने अमरीका, अफ्रीका और एशिया जैसे बड़े देशों को अपने नियंत्रण में कर रखा था वह दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात लगभग लुप्तप्राय हो गया था। लेकिन यूरोपीय सभ्यता की जिजीविषा ने न केवल इसको दोबारा खड़ा कर दिया बल्कि एकीकरण प्रक्रिया के माध्यम से फिर से अनेक देशों के समूह के रूप में पहचान भी दिलवा दी। यूरोप के इसी अवसान, पुनरुथान और विकास की अवस्थाओं को इस लेख में प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है।

द्वितीय विश्व-युद्ध का असर:

औपचारिक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत 1 सितंबर 1939 को जर्मनी द्वारा पोलेंड पर किए हमले से मानी जाती है। लेकिन इस युद्ध की पृष्ठभूमि तो यूरोप में मार्च 1938 में ही शुरू हो गई थी जब जर्मनी ने औस्ट्रिया पर कब्जा कर लिया था। 1945 तक चले इस विश्व युद्ध में यूरोप को सबसे अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के बाद यूरोप में अपराधों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि देखी गई। इसके साथ ही महाशक्तिशाली यूरोपीय देश, युद्ध के बाद उभर कर आई दो महाशक्तियों, सोवियत संघ और संयुत राज्य अमेरिका की परछाई बन कर रह गए।

इन परेशानियों से उबरने के लिए पश्चमी यूरोपिय देशों ने एकता का निर्णय लिया और ‘अति राष्ट्रवाद’ के कारण बनी परिस्थितियों के जवाब के लिए एकीकरण का निर्णय लिया।

यूरोपीय एकीकरण के सफर की शुरुआत:

यूरोपीय एकीकरण प्रक्रिया या सफर को निम्न चरणों में देखा जा सकता है:

1. हेग सम्मेलन :

यूरोपीय देशों के समूह ने एकत्रित होने का निर्णय लिया और इस प्रक्रिया को यूरोपीय एकीकरण का नाम दिया गया। इसके लिए सबसे पहले 1948 में हेग (नीदरलैंड) में एक कोन्फ्रेंस का आयोजन किया गया। इस कोन्फ्रेंस में यूरोप देशों के लिए अलग संविधान बनाने का प्रयास किया गया था लेकिन ब्रिटेन ने इस प्रस्ताव को नकार कर इसे वहीं खत्म कर दिया।

2. नाटो का जन्म:

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भी सोवियत संघ ने अपनी सेनाओं को पूर्वी यूरोप से हटाने से इंकार कर दिया। बल्कि 1948 में अंतर्राष्ट्रीय संधि का विरोध करते हुए बर्लिन की सीमाओं को घेर भी लिया। सोवियत संघ के इस कदम को देखते हुए अमरीका और यूरोपीय देशों ने बचाव के उपाय के रूप में एक संगठन की स्थापना करने का निर्णय लिया। इस संघटन का उद्देशय पश्चमी देशों को सोवियत संघ के अतिक्रमण से बचाना था। इसलिए 4 अप्रैल 1949 को नाटो नाम के संघठन की स्थापना की गई। इसका पूरा नाम “उत्तरी अटलांटिक संधि संघठन” (North Atlantic Treaty Organisation) का नाम दिया गया। इस 29 सदस्य देशों वाले संघठन का मुख्य कार्यालय ब्रेसेल्स (बेल्जियम) में स्थापित किया गया। नाटो की स्थापना के पीछे इन उद्देश्यों को मुख्य माना गया :

  • सभी सदस्य देशों की राजनैतिक आज़ादी और उनकी सैनिक सुरक्षा को बनाए रखना;
  • पश्चमी देशों में सोवियत संघ के बढ़ते हुए कदमों को रोकना;
  • पश्चमी यूरोप के सभी देशों को एक साथ इकट्ठे जोड़ कर रखना;

इस प्रकार नाटो के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि किसी भी सदस्य देश पर होने वाले हमले को पूरे संघटन पर हुआ हमला माना जाएगा।

3. नाटो और यूरोप में उसका प्रभाव:

नाटो की स्थापना के बाद अमरीका का यूरोपीय देशों में राजनैतिक और सैन्य प्रभाव बढ्ने लगा जिसका परिणाम अच्छा नहीं था। इसके कारण यूरोप में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच टकराव खतरनाक मोड लेने लगा। नाटो के जवाब में सोवियत संघ ने पोलेंड में एक अन्य संधि ‘वारसा पैक्ट’ की स्थापना कर दी। इसमें सोवियत संघ को पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों का भरपूर सहयोग मिला। इस स्थिति से यूरोप में शीत युद्ध की स्थिति खड़ी हो गई।

4. ई सी एस सी का जन्म और विकास:

नाटो के धूमिल प्रयासों को देखते हुए दूसरे प्रयासों के रूप में अमरीका और यूरोपीय देशों ने उस क्षेत्र को आधार बना कर समन्वय आरंभ किया जो विकास और युद्ध के लिए अनिवार्य माना जाता था। यह क्षेत्र था कोयला और स्टील का क्षेत्र। इसके लिए 29 फरवरी 1952 को यूरोपीय कोयला और स्टील संघठन की स्थापना की गई। यूरोपीय एकीकरण की दिशा में इसे पहले सफल प्रयास के रूप में देखा जाता है। इस संघठन के माध्यम से यूरोप के दो प्रमुख देश फ्रांस और जर्मनी को एक साथ खड़ा करने का प्रयास किया गया। इसमें यह सुनिश्चित किया गया कि फ्रांस,  जर्मनी को निरंतर कोयले की आपूर्ति करता रहे। इसके अतिरिक्त बेल्जियम और इटली की कोयला खानों के भी निर्माण और विकास के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था करने का प्रयास किया गया। इस संघठन का सबसे अच्छा परिणाम जर्मनी की ओर से दिखाई दिया जिसने इसमें अपना स्थान ऊंचा करने के लिए स्टील उत्पादकों के समूह को विघटित कर दिया।

5. यूरोपीय आर्थिक समुदाय:

यूरोपीय समुदाय के छह देशों ने 28 फरवरी 1957 में रोम संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके परिणामस्वरूप यूरोपीय आर्थिक समुदाय (European Economic Community) का जन्म हुआ। इस संधि में इस बात का निर्णय लिया गया कि इस समुदाय के सदस्य देशों में आयात-निर्यात पर किसी प्रकार का कोई शुल्क या टैक्स का विधान नहीं होगा। इसके साथ ही इन देशों के लोगों को कहीं भी काम करने की पूरी आज़ादी होगी।

इसी के साथ यूरोपियन परमाणु ऊर्जा संघठन (European Nuclear Energy Community) का भी अस्तित्व सामने आ गया। इसका उद्देशय यूरोपीय संघ के लिए एक समूहिक परमाणु ऊर्जा संबंधी नीति का निर्माण करना था।

6. यूरोपीय संघ का विकास व विस्तार:

यूरोपीय संघ ने 1958 तक ईसीएसी के रूप में अपने आप को एक ताकतवर समुदाय के रूप में खड़ा कर लिया था। इसके बाद 1960 में इसके विकल्प के रूप में यूरोपीय मुक्त व्यापार संघठन (European Free Trade Association) की स्थापना कर दी। इसके लिए ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, नार्वे, पुर्तगाल, स्वीडन, स्विट्जरलेंड और ब्रिटेन ने मिलकर सदस्य देशों में मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सफलता से प्रेरित होकर ब्रिटेन (जो अब तक शांतिपूर्ण पर्यवेक्षक की भूमिका में था), डेनमार्क और आयरलेंड ने भी इसमें शामिल होने का निर्णय ले लिया। हालांकि फ्रांस ने ब्रिटेन के शामिल होने का पुरजोर विरोध किया। इसी विरोध और फ्रांस के वीटो पावर के इस्तेमाल के कारण यह सभी देश 1975 तक ईईसी में अन्तःत शामिल हो ही गए।

7.  यूरोपियन कम्म्यूनीटी का जन्म:

1957 में 28 फरवरी को यूरोपीय समुदाय की तीन बड़ी संस्थाओं का विलय करके एक नए समुदाय का जन्म किया गया। इसके लिए यूरोपियन आर्थिक समुदाय, यूरोपियन परमाणु ऊर्जा और यूरोपीय कोयला और स्टील संघठन का विघटन करके एक नए संघथन यूरोपियन कम्म्यूनीटी के रूप में विकसित कर दिया गया।

8. एकल मुद्रा का जन्म:

1979 में पहली बार यूरोपीय संसद का गठन किया गया और इसके लिए लोकतान्त्रिक विधि से सदस्यों का चयन किया गया। 1980 में यूनान, स्पेन और पुर्तगाल के यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद 1985 में “श्लेगेन संधि” के माध्यम से सभी सदस्य देशों के नागरिकों का परस्पर आवागमन के लिए पासपोर्ट की अनिवार्यता को खत्म किया गया। इसी के साथ सभी सदस्य देशों की मुद्रा को एकल मुद्रा जिसे यूरो करेंसी का नाम दिया गया का प्रस्ताव भी रखा गया। यूरोपीय बजट के लिए इसी मुद्रा के प्रयोग का निर्णय लिया गया। इसके साथ ही ट्रेवेलर चैक और बैंकों में राशि जमा करने के लिए भी यूरो के ही इस्तेमाल पर बल दिया जाने लगा। 1986 में यूरोपीय संघ के सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर करके सिंगल यूरोपियन एक्ट का निर्माण किया और इसी के साथ संघ के झंडे का भी निर्माण किया।

यूरोपियन संघ:

अभी तक यूरोपियन समुदाय के नाम से प्रसिद्ध संघठन को यूरोपियन संघ का नाम मार्च 1991 में एक संधि के बाद दिया गया। माश्ट्रिश्ट संधि के नाम से प्रसिद्ध इस संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद यूरोपीय नागरिकता और सामाजिक नीति के मुद्दों पर विचार विमर्श आरंभ किया गया। इसके अंतर्गत सदस्य देशों के नागरिकों को कहीं भी रहने और वोट देने का अधिकार दिया गया।

यूरोपियन समुदाय का प्रसिद्ध एकीकरण 1990 में पूर्वी और पश्चमी जर्मनी के एकीकरण के रूप में देखा जाता है। इसके साथ ही बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, लक्ज़मबर्ग ,पुर्तगाल और  नीदरलैंड जैसे देशों ने भी अपनी सीमाओं को खोलने का काम शुरू कर दिया। जल्द ही इस मुहिम में स्वीडन, औस्ट्रिया, डेनमार्क, इटली, स्वीडन, ग्रीस और फ़िनलैंड ने भी अपना नाम लिखवा लिया। हालांकि आयरलेंड और ब्रिटेन ने इस काम को करने से मना कर दिया था। बहरहाल इसके बाद यूरोपीय संघ के सदस्यों की संख्या 6 से बढ़कर 15 हो गई थी।

यूरोपियन संघ का विस्तार:

यूरोपियन संघ का विस्तार का काम 1997, 1988 और 1999 में की गई संधियों के द्वारा किया गया। 1 मार्च 1997 में एम्स्टर्डम संधि के द्वारा संघ को पूर्वी क्षेत्र की ओर बढ़ाने का प्रयास किया गया। इसके लिए कुछ अन्य देशों के अधिकार से वीटो के अधिकार ले लिए गए। इसके अतिरिक्त संघ के सदस्य देशों में विदेशी मुद्रा और शरणार्थी जैसे मुद्दों को भी सशक्त किया गया।

इसके अतिरिक्त संघ में अब कुछ नए देश जुड़ गए जिनमें हंगरी, साइप्रेस, स्लोविनिया, चेक गणराजय और एस्टोनिया देश तो पहले ही जुड़ गए। इसके अलावा लातवानीया, लिथुवानिया, माल्टा, रोमानिया, बल्गारिया, रोमानिया आदि ने भी खुद को संघ के साथ जोड़ने का मन बना लिया।

यूरोपियन संघ में संकट और उपचार:

1999 में हालांकि यूरोपियन संघ में 20 सदस्य देशों ने कुप्रबंधन और परिवार वाद के मुद्दों के चलते इस्तीफा दे दिया था। लेकिन सितंबर में आयोग के अध्यक्ष द्वारा सुधारात्मक प्रयासों के बल पर अधिकतर सदस्यों को फिर से वापस बुला लिया। 1999 में यूरो मुद्रा के वजूद में आने के कारण अधिकतर देशों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा और इसके परिणामस्वरूप अब अधिकतर देशों की निजी मुद्रा अवसान पर है। मार्च 2003 में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में यूरोपीय संघ के मसौदे को तैयार किया गया। 2004 में दस देश और 2008 में चार और देशों ने संघ की सदस्यता ग्रहण कर ली। इस प्रकार अब यूरोपीय संघ में 28 देश शामिल हो गए हैं।

यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए अब कुछ नियमों का निर्धारन किया गया है जिन्हें कोपेनहेगन शर्तों का नाम दिया गया है। इन नियमों के अनुसार केवल वही देश यूरोपीय संघ में शामिल हो सकते हैं जहां शासन के लिए स्थायी रूप से लोकतान्त्रिक व्यवस्था हो तथा मानव अधिकार एवं न्याय पर पूरा बल दिया जाता हो। इसके अतिरिक्त बाजार व्यवस्था कार्यकारी रूप में हो और जिसमें संघ के अंतर्गत प्रतियोगिता को बढ़ावा देने की शक्ति हो। सबसे जरूरी है की उस देश में संघ की नीतियों का पालन करने की कटिबद्धता भी सन्निहित होनी चाहिए।

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