झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनकी वीरता की कहानी

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jhansi ki rani

वीरता की प्रतिमूर्ति और साक्षात काली देवी का अवतार के रूप में प्रसिद्ध झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को भारतीय इतिहास और साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त है। कम उम्र में विवाह करके पत्नी बनी, दत्तक पुत्र की माता और अँग्रेजी सेना के सामने एक शेरनी के रूप में प्रकट होने वाली लक्ष्मी बाई का पूरा जीवन वीरता की अधभूत मिसाल है। शैशव काल से लेकर मृत्यु आने तक उन्होनें किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत किया, इसकी बानगी इस प्रकार है:

नन्ही मनु का बचपन:

ब्राह्मण परिवार में जन्मी मणिकर्णिका को सब प्यार से मनु पुकारते थे। जब मनु चार वर्ष की थीं, तभी  उनकी माता का देहांत हो गया। पिता मोरोपन्त तांबे, बिठूर के पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत होने के कारण नन्ही मनु को अपने साथ ले जाने लगे। बालिका की प्यारी छवि ने उन्हें ‘छबीली’ का नाम दिलवा दिया और वे राजमहल में शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने लगीं। बाजीराव के दोनों पुत्रों नाना साहब और राव साहब के साथ उन्होनें मल्लयुद्ध, कुश्ती, घुड़सवारी, कुश्तीमल्ल्खंभ और हर वो काम सीखा जो एक योद्धा और एक भावी राजा सीखता है।

वीर छबीली:

लक्ष्मीबाई बनने से पहले, बिठूर के राजकुमारों नाना साहब और राव साहब के साथ बराबरी के भाव से सभी कुछ सीखतीं और करतीं थीं। एक बार नानासाहब ने मनु को तेज़ घुड़सवारी की चुनौती दे दी जिसे वीर मनु ने सहर्ष स्वीकार कर ली। मनु ने इतना तेज़ घोड़ा दौड़ाया कि नाना को केवल धूल ही नज़र आ रही थी, न तो मनु और न ही उनका घोड़ा। जब नाना ने इस बात को कहा तब मनु ने हँसते हुआ कहा कि तुम्हीं ने तो कहा था कि “है हिम्मत तो आगे बढ़ कर दिखाओ”। इस घटना ने नन्ही मनु की हिम्मत के दर्शन बचपन में ही करवा दिये थे।

रानी लक्ष्मीबाई:

झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ विवाह होने के बाद मनु को लक्ष्मीबाई के नाम से पहचाना गया। विवाहोप्रांत भी उन्होनें महल में महिलाओं को शस्त्र विद्या, कुश्ती, घुड़सवारी, बंदूक चलाना आदि सब काम सिखाने शुरू कर दिये। कुछ समय बाद पहले पुत्र और बाद में गंगाधर राव की मृत्यु ने हालांकि रानी लक्ष्मीबाई को अंदर से हिला दिया। लेकिन वीर रानी ने एक दत्तक पुत्र के माध्यम से राज्य चलाने का निश्चय किया। लेकिन राजा राव की म्र्त्यु होने के बाद लॉर्ड डलहौज़ी ने दत्तक पुत्र को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झाँसी को ब्रिटिश शासन में मिलाने का निर्णय लिया। लेकिन शेरनी की तरह गरजकर रानी लक्ष्मीबाई ने गरजकर कहा ,” मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी” ।

योद्धा रानी:

ब्रिटिश सेना ने जब झाँसी पर आक्रमण किया तब रानी ने पहले से ही युद्ध की तैयारी करी हुई थी। उन्होनें अपने किले की दीवारों पर तोपें चढ़वा दी थीं और महल का खज़ाना तोप के गोलों के लिए खुलवा दिया था। राजमहल के सारे सोने और चाँदी को ढलवाकर तोप के गोले बनवा दिये गए। रानी अपने सभी विश्वासपात्र पुरुष साथी और महिला सैनिकों की मदद से ब्रिटिश सेना का सामना करने के लिए तैयार थीं। 2 सप्ताह तक चली इस लड़ाई में रानी को अपने पुत्र को बचाने के लिए काल्पी में जाकर शरण लेनी पड़ी। काल्पी के युद्ध में विजय प्राप्त करके रानी अब तात्या टोपे के साथ ग्वालियर के किले की ओर चले और वहाँ भी ब्रिटिश सेना के साथ लोहा लेना शुरू किया।

रानी का अंतिम युद्ध:

ग्वालियर के पूर्वी हिस्से में रानी अपनी सेना के साथ ब्रिटिश सैनिकों के सामने वीरता से लड़ रहीं थीं। इस युद्धस्थल में आगे बढ्ने के लिए उन्हें एक छोटे नाले को पार करना था। लेकिन रानी का घोड़ा नया होने के कारण पानी को पार नहीं कर पाया और रानी उसकी इस दुविधा को समझ गईं। तब उन्होनें वहीं अंतिम सांस तक लड़ने का निर्णय लिया।

 

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