वैदिक संस्कृति में शिक्षा का अर्थ छात्रों को वेद-सूक्त व ऋचाओं का अध्ययन मात्र करवाना था। समय के साथ शिक्षा के अर्थ में परिवर्तन आया और उसमें विभिन्न व्यावसायिक और क्षेत्रों से संबंधी शिक्षा-क्षेत्र भी जुडते गए। वर्तमान समय में भी अध्यापन में न केवल सैद्धांतिक नियमों का अध्ययन करवाया जाता है बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष से संबंधी प्रायोगिक पक्ष की सम्पूर्ण जानकारी दी जाती है। अध्यापन प्रक्रिया का महत्व इसी बात से आँका जा सकता है कि महान संत कबीर दास जी ने गुरु का स्थान जीवन में भगवान से भी ऊंचा माना है। इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए शिक्षक का कार्य पारंपरिक शिक्षक के साथ आधुनिक अध्यापन का कार्य भी कर रहे हैं।
अध्यापन प्रक्रिया में क्या शामिल है:
गुरुकुल अध्यापन-शिक्षण पद्धति में सात्विक वातावरण के अंतर्गत गुरु अपने शिष्यों को निर्धारित पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षा देते थे। इस पद्धति में शिक्षा के साधन ताम्र पत्र व प्रकृति प्रदत्त उपहारों से शिक्षा के उपकरणों का निर्माण किया जाता था। तकनीक व कौशल में परिवर्तन ने उपकरणों का मूर्त रूप बदलना शुरू हुआ और पुस्तकीय ज्ञान व साधन शिक्षण के क्षेत्र में आ गए। तकनीकी व सूचना क्रान्ति ने समाज के हर पहलू और क्षेत्र को छुआ है और शिक्षण भी इसका अपवाद नहीं है। परिणामस्वरूप शिक्षण केवल शिक्षा के पारंपरिक आदान-प्रदान स्वरूप से निकल कर बहुमुखी अंगों के रूप में विकसित हो गई है। इस अर्थ में अध्यापन प्रक्रिया व क्षेत्र में निम्न कार्यों को भी शामिल किया जा सकता है:
1. परंपरा का नवीन प्रारूप :
पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन एतिहासिक काल की विधियों के माध्यम से करना अब अध्यापन का क्षेत्र नहीं रह गया है। अध्यापन-शिक्षण पद्धति में अध्यापक अपने छात्रों को शिक्षा के रूप में जानकारी व सूचना का अंतरण कर रहे हैं। इस रूप में गुरु-शिष्य मॉडल अब सूचना प्रदाता व ग्राह्यता के रूप में परिवर्तित हो गया है। इस मॉडल में अध्यापक नवीनतम तकनीकों जैसे ऑनलाइन उपकरण, वेब तकनीक, नवीनतम सॉफ्टवेयर व अध्यतन डिजिटल उपकरणों के माध्यम से संबन्धित जानकारी व ज्ञान का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। इस अर्थ में अध्यापक वर्तमान समय में नवीनतम व अध्यतन तकनीक के पैरोकार के रूप में देखे व समझे जाते हैं।
2. अध्ययन से स्व-अध्ययन की ओर :
पारंपरिक अध्ययन प्रणाली में गुरु, निर्मित पाठ को एक कहानीकार की भांति छात्रों को उनके निर्धारित वातावरण में सुना देते थे। लेकिन आधुनिक काल के अध्यापक, छात्रो को स्व-अध्ययन के माध्यम से पठन-पाठन पर बल देते हैं। विषयानुसार पाठ को देखने व समझने के लिए विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोणों का उपयोग करते हुए छात्रों को उन्हें स्वयं समझने व प्रायोगिक रूप में प्रयोग करने की प्रेरणा देते हैं। इस अर्थ में अध्यापक वर्तमान समय में गुरु के रूप में छात्रों के लिए अध्ययन को सरल बनाने वाले सहायक और समन्वयक के रूप में पहचाने जाते हैं।
3. पाठ्यक्र्म निर्माता व प्रचारक:
शिक्षा के क्षेत्र में कुछ समय पहले तक पाठ्यक्र्म निर्धारण व निर्माण का कार्य, इस उद्देश्य के लिए बनी संस्थाओं और उन्हें संचालित करने वाले अधिकारियों द्वारा सफलता पूर्वक किया जाता था। अध्यापक समूह उस निर्धारित पाठ्यक्रम को, अधिकारियों द्वारा तय की गई नीतियों व नियमों के आधार पर शिक्षण के माध्यम से छात्रों तक पहुंचा देते थे।
लेकिन तकनीकी परिवर्तन व समय की मांग को देखते हुए अध्यापन में पाठ्यक्र्म का निर्धारण व संचालन का प्रायोगिक कार्य अध्यापक समूह को सौंप दिया गया है। आज का अध्यापक, नीतियों व नियमों की नींव पर बने पाठ्यक्रम को अपने लक्षित छात्रों की आवश्यकताओं व अनिवार्यताओं के अनुसार प्रारूपित करने के लिए स्वतंत्र हो गया है। तय पाठ को वर्तमान की परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में छात्रों को स्वयं समझने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस अर्थ में छात्रों की छिपी प्रतिभा को उभरते हुए, उनके मानसिक व बौद्धिक बल को मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता है।
4. चॉक से ई-पेंसिल तक :
लेखन पद्धति की शुरुआत होने से पठन-पठन प्रक्रिया में लेखन कला, कलम-दवात और तख्ती का सफर तय करती हुए ब्लेक-बोर्ड और चॉक पर आ कर ठहर गई थी। लेकिन तकनीकी क्रान्ति ने इस चॉक को अब ई-पेन और पेंसिल के रूप में परिवर्तित कर दिया है। अध्यापन प्रक्रिया में कलसा-रूम शिक्षण में पहले पावर-पॉइंट प्रेजेंटेशन और फिर बाद में ई-पेंसिल के माध्यम से पढ़ाये गए पाठ को पेन-ड्राइव और हार्ड ड्राइव में लाने का सिलसिला शुरू हो गया है। इस अर्थ में पुस्तकीय ज्ञान अब कागजों के साथ ही इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के माध्यम से भी प्रवाहित किया जाने लगा है। इस परिवर्तन से डिजिटल समाज में शिक्षा उपकरणों का भी एक क्षेत्र निर्मित कर दिया है जहां नवीनतम उपकरणों की मांग और प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है।
5. नए व्यावसायिक पाठ:
पारंपरिक अध्यापन-पठन क्रम में गुरु-शिष्य श्रंखला में आधुनिक काल में नयी कड़ियाँ भी जुडने लगी हैं। अधिकारी – शिक्षक- छात्र क्रम में अब जो नए पक्ष जुड़ रहे हैं वे हैं परिवार, समाज के प्रमुख नेतृत्व क्रम, कर्मचारी समूह, सामुदायिक समूह से जुड़े लोग के रूप में जाने जाते हैं। वर्तमान समय में छात्र अपने अध्ययन के लिए क्लास रूम की चारदीवारी से निकल कर समाज में प्रत्यक्ष अनुभव के लिए बाहर जा रहे हैं। किताबों में लिखे समाज व रीतियों को स्वयं अनुभव और विश्लेषित करने के बाद ही अंतिम पाठ तक पहुँच रहे हैं। इस काम में अध्यापक समुदाय उनकी मदद करता है। इसके लिए शिक्षक गण शिक्षा को बहुमुखी रूप देने के लिए विभिन्न प्रकार की चुनौतियों और समस्याओं का सृजन करते हैं। छात्रों का कार्य इन चुनौतियों और समस्यों को शिक्षकों के निर्देशन व सहयोग से हल करना बन गया है।
6. शिक्षा-इतर क्षेत्रों में पहुँच:
आधुनिक अध्यापक छात्र को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं देता है बल्कि उस ज्ञान की प्रयोगिकता और व्यावहारिकता समझाने के लिए छात्रों के मानसिक व भावनात्मक बल का भी विकास करता है। छात्रों की सकरात्मक रुचि और सोच को बढ़ावा देते हुए एक कुशल मनोचिकित्सक की भांति नकारतमक सोच और व्यवहार में परिवर्तन लाने का काम भी आधुनिक अध्यापन प्रणाली में किया जा रहा है। शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए छात्रों में संतुलित व समुचित विकास करने के लिए उनका विश्लेषणात्मक और कौशल विकास करना आधुनिक अध्यापक का कर्तव्य नहीं बल्कि मुख्य कार्य माना जाता है।
समाज में गुरु का स्थान हमेशा से सर्वोपरि रहा है। इस स्थान पर अध्यापक अपने छात्रों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास करने के लिए उनकी तर्क बुद्दि और विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करते हैं। स्वयं को नवीनतम और आधुनिकतम तकनीकी उपकरणों की सहायता से छात्रों को एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार आधुनिक अध्यापन प्रणाली व्यक्ति के बहुमुखी विकास करने वाली एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है।