रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी एक कविता में कहा है, ‘शांति नहीं तब तक, जब तक सुख भाग नहीं नर का सम हो। नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।’ पहले प्रथम और फिर द्वितीय विश्व युद्ध के लिए कहीं-न-कहीं उस वक्त पैदा हुईं ऐसी ही परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बात यदि करें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया की तो इसे एक नये युग की शुरुआत कहना गलत नहीं होगा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो संबंध बनाने की प्राचीन और पुरानी परंपराएं चली आ रही थीं, द्वितीय विश्व युद्ध ने इनका अंत कर दिया। एक तरह से यूरोप का प्रभुत्व था, अब वह कल की बात हो गई। यूं कहा जा सकता है कि जिस यूरोप को पूरी दुनिया को अनुशासित करने वाला माना जाता था, वह जर्मनी एवं इटली जैसे देशों के बर्बाद होने और ब्रिटेन व फ्रांस जैसे देशों की स्थिति के कमजोर होने की वजह से समस्या से भरा हुआ यूरोप बन गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पड़े तत्कालीन प्रभाव
- यूरोपीय ताकतें कमजोर पड़ गईं और एक के बाद एक उपनिवेश के आजाद होने के फलस्वरूप यूरोप का प्रभुत्व भी कम होता चला गया।
- दुनिया को नेतृत्व अब तक यूरोप करता आ रहा था, अब वह उसके हाथों से निकल गया। इसकी कमान अब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने संभाल ली।
- जापान पर जिस तरह से परमाणु हमला हुआ, इसके बाद से परमाणु शक्ति विहीन देशों के अंदर एक तरह का भय भी समा गया। इस तरह से दुनिया में देश दो भागों परमाणु शक्ति संपन्न और परमाणु शक्ति विहीन दो भागों में बंट गये।
- पहले सीमित युद्ध की अवधारणा थी, मगर अब यह परमाणु युद्ध की अवधारणा में तब्दील हो गई।
- राष्ट्रों की संख्या भी पहले से बढ़ गई।
प्रादुर्भाव दो महाशक्तियों का
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो महाशक्तियों के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ उभरे।
- युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन में अच्छी स्थिति में होने की वजह से अमेरिका ने जो दूसरे देशों को कर्ज दे रखा और जिस तरह से उसने अपनी सैन्य ताकत बना रखी थी, उसका लाभ उसे महाशक्ति बनने में मिला।
- अपनी इसी ताकत के दम पर अमेरिका परमाणु शस्त्रों का विकास करने में भी सफल रहा।
- इतना ही नहीं, अमेरिका ने अब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अपने मजबूत नौसैनिक अड्डे तक विकसित करके अपनी धाक जमाना शुरू कर दिया।
- सोवियत संघ भी औद्योगिक प्रगति के मामले में पीछे नहीं था, जिसका लाभ उसे भी मिला।
- खासकर स्टालिन के काल में सोवियंत संघ अपनी आर्थिक और सैन्य स्थिति को मजबूत बनाने में कामयाब रहा था।
- यह बात भी सर्वविदित है कि जर्मनी को हराने में सोवियत संघ का कितना बड़ा योगदान रहा था।
- वर्ष 1949 में परमाणु परीक्षण कर लेने के बाद सोवियत संघ की स्थिति और मजबूत हो गई।
- सोवियत संघ ने यूरोप के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी सरकारों को स्थापित करने में भी विशेष भूमिका निभाई।
- इस तरह से संयुक्त राज्य अमेरिका एक ओर तो सोवियत संघ दूसरी ओर बड़ी महाशक्ति के रूप में उभरने में कामयाब रहा।
शीतयुद्ध की शुरुआत
- संयुक्त राज्य अमेरिका के पूंजीवादी विचारों का समर्थक होने और सोवियत संघ के साम्यवादी विचारों का पोषक होने के कारण दोनों के बीच के संबंध मामूली समस्याओं पर भी तल्ख हो गये।
- संबंध इतने ज्यादा तनावपूर्ण हो गये कि युद्ध न होते हुए भी एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी और राजनीतिक प्रचार एवं धमकियां देने जैसी चीजें होने लगीं।
- इस तरह से दोनों महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध की शुरुआत हो गई।
- जर्मनी, लिथुआनिया, रोमानिया, हंगरी एवं लाटविया जैसे देश, जिन्होंने साम्यवादी विचारों का समर्थन किया, सोवियत संघ के नेतृत्व में उनका पूर्वी यूरोप का एक गुट बन गया। उसी तरह से पूंजीवाद के समर्थन की राह पर चले यूरोप के अन्य देशों का भी एक गुट बन गया, जिनका नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका करने लगा।
तृतीय विश्व यानी कि तीसरी दुनिया का प्रादुर्भाव
- द्वितीय विश्व युद्ध में जिस तरह से तबाही मची, उसने उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों को पूरी तरह से कमजोर कर दिया।
- दूसरी ओर इनके अधीन जो देश थे, वहां भी स्वतंत्रता के लिए चल रही क्रांति और आंदोलन पूरे उफान पर थे।
- ऐसे में ब्रिटिश सरकार को भी अपनी नीतियां बदलनी पड़ी, जिसके फलस्वरुप भारत, श्री लंका, मलाया, बर्मा और मिस्र जैसे देश भी ब्रिटेन और स्पेन जैसी ताकतों के चंगुल से निकलकर आजाद हो गये।
- कंबोडिया और लाओस जैसे देशों को फ्रांस से तो जावा सुमात्रा व बोर्नियो को हालैंड की दासता से मुक्ति मिल गई।
- इस तरह से जो देश स्वतंत्र हुए, उन्होंने तीसरी दुनिया को जन्म दिया। इन देशों ने मिलकर जो विश्व की राजनीति में अपनी पकड़ बनाई, उसकी वजह से शीत युद्ध को भी कभी वास्तविक युद्ध में तब्दील नहीं होने दिया गया।
गुट निरपेक्षता
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब दो महाशक्तियों संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियंत संघ का उदय हुआ, तो बहुत से देशों ने इन दोनों गुटो से अलग रहने का फैसला किया। इस तरह से वे शीत युद्ध से भी दूर रहे।
- दोनों गुटों से अलग रहकर गुट निरपेक्ष आंदोलन में शामिल होने वाले देशों की अगुवाई करने में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु सबसे आगे रहे। साथ में मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर और यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप बरोज टीटो ने भी इसमें अग्रणी भूमिका निभाई।
- गुट निरपेक्ष आंदोलन में विशेष रूप से तृतीय विश्व के विकासशील देश शामिल हुए।
- दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध से बचाने के अपने उद्देश्य में गुट निरपेक्ष आंदोलन अब तक सफल रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति कायम करनी जरूरी थी। ऐसे में मित्र राष्ट्रों की ओर से 24 अक्टूबर, 1945 को सेन फ्रांसिस्को में हुए सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई।
- उस वक्त 50 देशों की ओर से संयुक्त राष्ट्र अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर किये गये थे।
- संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे बड़ा मकसद था कि किसी भी परिस्थिति में तीसरा विश्व युद्ध न होने दिया जाए और समूची दुनिया में शांति व्यवस्था की स्थापना हो।
- उस वक्त संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में जो देश संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम और रूस शामिल थे, वे ताकतवर तो थे ही, साथ ही उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वूपर्ण भूमिका भी निभाई थी।
- मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये गये कार्य अभूतपूर्व रहे हैं। यही वजह है कि इसकी स्थापना मानवाधिकार युग की शुरुआत भी मानी जाती है।
सोवियत संध और चीन विवाद
- सोवियत संघ और चीन दोनों ही साम्यवादी विचार वाले थे। साथ ही दोनों मजबूत ताकत भी थे। ऐसे में दोनों के बीच तनाव बढ़ने लगा।
- इस तरह से जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद हावी नजर आने लगा था, दो साम्यवादी ताकतों के आपसी टकराव की वजह से इसकी उग्रता में अब शिथिलता आने लगी।
- दोनों देशों के बीच सैद्धांतिक मतभेद जब चरम पर पहुंच गये तो दोनों एक-दूसरे पर तोप से गोले बरसाने से भी पीछे नहीं हटे।
- वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भी सोवियत संघ के रुख को लेकर दोनों देशों के बीच खूब तनातनी रही।
सैनिक संगठनों का उद्भव
- संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनेताओं को कोरिया युद्ध के वक्त साम्यवाद ऐसी ताकत के रूप में बढ़ता नजर आया, जिससे भविष्य में सुरक्षा की जरूरत पड़ सकती थी।
- ऐसे में सबसे पहले 1949 में नाटो, फिर 1954 में वीटो, सेण्टो और वारसा पैक्ट जैसी कई सैन्य संधियां देखने को मिलीं।
इजराइल और अरब के बीच तनाव
- पहले विश्व युद्ध के बाद फिलिस्तीन में यहूदी बड़ी तादाद में बसे गये, जिसकी वजह से अरबों और यहूदियों के बीच दंगे तक की कई बार नौबत आ गई।
- ऐसे में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन व अमेरिका ने फिलिस्तीन में ही इजराइल नाम से यहूदियों का एक अलग राज्य बना दिया।
- इसके बाद से यहूदी और ताकतवर हो गये, जिसकी वजह से आज तक इजराइल और अरब के बीच का तनाव बार-बार नजर आने लगता है।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर देखा जाये तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भले ही व्यापक पैमाने पर तृतीय विश्व युद्ध को होने से रोकने के लिए कदम उठाये गये, मगर जिस तरह से दो महाशक्तियों संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध देखने को मिला और अन्य कई देशों के बीच भी संघर्ष की स्थिति कई बार पैदा हुई, उसने सवाल खड़े कर दिये हैं कि परमाणु शक्ति की उपलब्धता के मद्देनजर आखिर कितने समय तक तृतीय विश्व युद्ध को टाला जा सकता है? एक और चीज यह भी है कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जरूर अस्तित्व में आया, मगर जिस तरह से इस्लामिक आतंकवाद ने दुनिया को अपनी चपेट में लिया है, वह बेहद चिंतनीय है। बहरहाल, यह तो वक्त ही बतायेगा कि संचार क्रांति के इस युग में परमाणु ताकत वाली इस दुनिया में शांति कितने समय तक कायम रह पाती है?