ब्रिटेन की संसद नें उन सभी ब्रिटिश अधिकारियों को जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से व्यापार और शासन कर रहे थे, एक आदेश मिला था। इस आदेश के अनुसार अधिकारी कोई भी लिफाफा, थैला या चिट्ठी ब्रिटेन के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की अनुमति के बगैर नहीं भेज सकते थे। यह आदेश विलियम पिट जूनियर ने 1784 में पारित किया था जिसे पिट्स अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद ही भारत को ब्रिटिश संसद के अधीन होने का प्रमाणपत्र भी मिल गया था।
Pitt’s India Act की जरूरत क्यों पड़ी
1498 में जब वास्कोडिगमा ने सबसे पहले भारत भूमि पर कदम रखे थे तब ठीक उसके भी लगभग 100 वर्ष बाद 1600 में दो ब्रिटिश व्यापारी जॉन वाट्स और जॉर्ज व्हाइट ने एक व्यापारिक कंपनी की स्थापना की थी। इस कंपनी का मुख्य उद्देशय दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार करना था। इसी कंपनी की ओर से लगभग सात साल बाद सर थॉमस रो को सूरत में कंपनी की ओर से पहला कारख़ाना खोलने की भारत के राजा की ओर से इजाजत मिल गई। यही से ईस्ट इंडिया कंपम्नी का भारत में व्यापार करने का काम शुरू हो गया।
व्यापार करने के साथ ही कंपनी के अधिकारियों ने भारत में फैली सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अस्थिरता का लाभ उठाते हुए राज्य में दखलंदाज़ी शुरू कर दी। यह काम इतनी तेज़ी से शुरू हुआ कि 1757 में प्लासी के युद्ध में राबर्ट क्लाइव ने सिराजुद्दौला को हराकर पूरी तरह से भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित कर दिया। लेकिन इस युद्ध के बाद ब्रिटिश अधिकारियों को भारत में शासन करने के लिए ब्रिटिश संसद के हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई। इस जरूरत को पूरा करने के लिए 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट लाया गया। इस एक्ट को उस समय इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉर्ड नॉर्थ ने 1774 में लागू किया था। इस एक्ट के अनुसार भारत में एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की गई और उसके अधीन तीन राज्य जिन्हें प्रेज़ीडेंसी कहा गया, दे दी गईं। लेकिन यह एक्ट भारत में ब्रिटिश प्रशासन संबंधी परेशानियों को दूर करने में नाकाम रहा था। इसके सुधार के रूप में पिट्स अधिनियम पारित किया गया।
Pitt’s India Act of 1784
ब्रिटेन के तात्कालिक प्रधानमंत्री विलियम पिट जूनियर ने 1784 में ईस्ट इंडिया द्वारा भारत में शासन को सुचारु रूप से व्यवस्थित करने के लिए एक अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देशय ब्रिटेन द्वारा पहले पारित किए गए अधिनियमों के दोषो को दूर करना था। इसके साथ ही इस अधिनियम में पहली बार भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटेन की संसद का संयुक्त रूप से अधिकृत क्षेत्र घोषित किया गया था।
पिट्स अधिनियम में क्या विशेष था:
Pitt’s India Act को ईस्ट इंडिया अधिनियम भी कहा जाता है और पहली बार इस अधिनियम के द्वारा भारत पर ब्रिटिश सरकार और कंपनी के दोहरे स्वामित्व को स्वीकार किया गया था। 1858 तक लागू रहे इस अधिनियम की मुख्य बातें इस प्रकार थी:
- भारत में दो प्रकार के बोर्ड स्थापित किए गए। राजनैतिक मामलों के लिए 7 सदस्यीय बोर्ड ऑफ कंट्रोलर्स और कंपनी में फैले भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए 8 सदस्यीय बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की स्थापना की गई।
- बोर्ड ऑफ कंट्रोलर का काम सिविल व सैनिक मामलों को देखना था जिसका काम भारत सरकार को आवश्यक निर्देश देना था। इसके साथ ही इनके कामों में राजनैतिक कार्यवाहियों पर नियंत्रण रखना भी इनके काम में शामिल था।
- इस अधिनियम के अनुसार बिना बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर की अनुमति के किसी भी चिट्ठी, लिफाफा या थैला गोपनीय रूप में भारत भेजे जाने की मनाही थी।
- इस अधिनियम में यह भी आदेश दिया गया कि भारत नियुक्त होने वाले सैनिक अधिकारियों को अपनी नियुक्ति के दो महीने के अंदर ही उन्हें अपनी संपत्ति की घोषणा करनी अनिवार्य होगी।
- कुछ समय बाद गवर्नर जनरल के काउंसिल सदस्यों की संख्या को घटाकर 3 कर दिया गया। इन तीन में से एक भारत में ब्रिटिश सेना का कमांडर इन चीफ के रूप में नियुक्त होगा।
- भारत में नियुक्त गवर्नर जनरल को वीटो का अधिकार दिया गया।
- रेगुलेशन एक्ट के अनुसार बनी मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी के गवर्नर को इस एक्ट में युद्ध व शांति संबंधी मामलों के साथ ही कर व राजस्व संबंधी निर्णयों के लिए भी गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया।
- मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी को कलकत्ता प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया। इसके बाद से कलकत्ता भारत में ब्रिटिश आधिपत्य की राजधानी के रूप में स्वीकार कर ली गई।
- गवर्नर जनरल के अधिकार सीमित करते हुए उन्हें भारत में किसी भी राज्य के संबंध में किसी भी प्रकार की नीति चाहे वो युद्ध संबंधी हो, शांति या मैत्री संबंधी हो, बिना बोर्ड ऑफ कंट्रोल की सहमति के भेज नहीं सकता है।
- इस अधिनियम ने पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनैतिक और व्यावसायिक गतिविधियों के बीच एक सीमा रेखा खींच दी थी।
पिट्स अधिनियम ने क्या प्रभाव छोड़ा
रेगुलेशन एक्ट के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए पिट्स अधिनियम लागू किया गया, लेकिन इसमें निम्न दोष देखे गए:
- इस अधिनियम में ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्तियों और ब्रिटिश सरकार के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई थी।
- अधिनियम में ब्रिटिश सरकार को ईस्ट इंडिया कंपनी और प्रशासन के संबंध में नीति निर्धारन और प्रशासन पर नियंत्रण करने के लिए अधिक अधिकार दे दिये गए।
- पहली बार कंपनी के अधिकृत क्षेत्रों को भी ब्रिटिश सरकार का अधिकृत क्षेत्रों के रूप में घोषित किया गया।
- कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को भी बोर्ड ऑफ कंट्रोलर की अनुमति लेनी अनिवार्य कर दी गई। अगर बोर्ड की मर्ज़ी न हो तब कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स द्वारा अनुमोदित पत्र व्यवहार को रोका जा सकता था।
- भारत में गवर्नर जनरल की नियुक्त कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स करते थे लेकिन इन्हें अगर ब्रिटेन का राजा चाहे तो वापस भी बुला सकता था। इस प्रकार कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के अधिकार भी सीमित कर दिये गए।
- गवर्नर जनरल के अधिकारों को असीमित कर दिया गया जिसमें जब वह ठीक समझे तब अपने काउंसिल के सदस्यों के लिए गए निर्णयों को भी वापस ले सकता है।
अंत में
इस प्रकार पिट्स अधिनियम ने पूरी तरह से भारत को ही नहीं बल्कि एक समय यहाँ व्यापार करने आई और शासन का स्वप्न देखने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी को भी पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार के अधीन कर दिया था।