सरोजिनी नायडू भारत की बहुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थीं और भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वतंत्र कराने में उनका योगदान सराहनिया था। वह ना सिर्फ एक महान स्वतंत्रता सेनानि थीं बल्कि एक महान वक्ता और एक सफल कवियित्री भी थीं।
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 में हैदराबाद में रहने वाले एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक प्रधानाध्यापक थे और उनकी मां वरदा सुंदरी देवी चट्टोपाध्याय, एक कवियित्री थीं। सरोजिनी के माता-पिता दोनों ही कविता लिखते थे और उन्हीं से सरोजिनी को भी कविता लेखन की प्रतिभा प्राप्त हुई। बचपन से ही सरोजिनी कुशाग्र-बुद्धि थीं, तभी तो सिर्फ 13 वर्ष की आयु में उन्होंने “लेडी ऑफ़ दी लेक” कविता रची। सन 1895 में वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं पर उन्होंने कविता लेखन को विराम नहीं दिया। वह अपनी शिक्षा के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। उनका पहला कविता संग्रह था, “गोल्डन थ्रैशोल्ड”, जिसके बाद उन्होंने अपना दूसरा कविता संग्रह “बर्ड ऑफ टाइम” रचा और फिर “ब्रोकन विंग” उनके तीसरे कविता संग्रह के रूप में आया। उनके दूसरे और तीसरे कविता संग्रह ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री का स्थान दिलाया ।
कविता से राजनीती तक का सफर
सरोजिनी नायडू ने कई विषयों पर समृद्ध और मधुर कवितायेँ लिखी हैं और इसी लिए उन्हें “भारत की नाइटिंगेल (भारत की कोकिला)” भी बुलाया जाता है। उनकी कविताएं भावनाओं, कल्पना और भावमय विचारों के साथ साथ, शब्दों और काव्यात्मक गुणवत्ता के लिए भी विख्यात हैं।
1905 में बंगाल विभाजन के बाद, सरोजिनी नायडू ने कविता लेखन से विराम लिया और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गयीं। स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बाद उनकी मुलाकात गोपाल कृष्ण गोखले, जवाहरलाल नेहरू, रवींद्रनाथ टैगोर और एनी बेसेन्ट से हुई । इसके बाद वर्ष 1916 में, उन्होंने ने किसानों के अधिकारों के लिए चंपारण, बिहार में आवाज़ उठाई जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा । इसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल हो गांधीजी और अन्य नेताओं के साथ वह जेल भी गईं। फिर 1931 में, सरोजिनी ने मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी के साथ लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में भी भाग लिया।
भारतीय महिलाओं पर सरोजिनी नायडू की अमिट छाप
सरोजिनी नायडू का मन्ना था की भारतीय नारी हमेशा से समानता की अधिकारिणी रही है और इस स्थान को पाने के लिए उसे स्वयं कोशिश करनी चाहिए । स्वयं एक स्त्री होने के कारण उन्हें भारतीय महिलाओं की दयनीय स्थिति का पूरा ज्ञान था और वह चाहती थीं कि स्त्रियों को सजग और आत्मनिर्भर बनाया जाये ताकि वो सवतंत्र संग्राम के साथ-साथ सामाजिक गतिविधियों में भी अपनी जगह बनाएं । सरोजिनी “नारी मुक्ति आंदोलन” में सक्रिय थीं और वह भारत में हो रहे नारी शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाने में कभी पीछे नहीं रहीं । उंनका मन्ना था की, शिक्षित होकर ही एक नारी को अपने अधिकारों की समझ हो सकती है, शिक्षा के सहारे ही वह अपनी स्थिति का सुधार कर सकती है, तथा अपने परिवार और समाज को बेहतर बना सकती है।
सरोजिनी एक महान स्वतंत्रता सेनानी, जागरूक सक्रिय राजनेता और नारी अधिकारों की समर्थक थीं। सरोजिनी स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान और अपनी निजी सफलताओं से भारत की महिलाओं के लिए एक प्रेरणा का श्रोत भी बन गईं थीं । वह स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा तो थीं ही, इसके अल्वा वह भारतीय कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा बनने वाली प्रथम भारतीय महिला थीं। वह संयुक्त प्रांत (1947-1949) के राज्यपाल बनने वाली पहली महिला थीं। ना सिर्फ इतना बल्कि 1919 में वह अखिल भारतीय होम रूल लीग द्वारा नियुक्त सदस्यों में प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गईं। स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान तो अमूल्य है ही बल्कि उनके साथ साथ उनकी बेटी, पद्मजा, का भी योगदान सराहनिया है| पद्मजा भी सरोजिनी की तरह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक सक्रिय नेता बनीं।
सरोजिनी नायडू को 1908 में भारत सरकार की तरफ से कैसर-ए-हिंद पुरस्कार भी मिला और 2 मार्च 1949 को राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान उनका निधन हो गया।13 फ़रवरी, 1964 को भारत सरकार ने इस महान् देशभक्त के सम्मान में 15 नए पैसे का डाक टिकट भी चलाया।
सरोजिनी नायडू को एक सफल राष्ट्रीय नेता, भारत कोकिला और नारी मुक्ति आन्दोलन समर्थक के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।