Green Bond और इससे मिलने वाले लाभ

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Green Bond पिछले कुछ समय से चर्चा का केंद्र बना हुआ है। वह इसलिए कि भारतीय रिजर्व बैंक ने इसके बारे में एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन में आरबीआई ने यह बताया है कि अन्य बांड की तुलना में ग्रीन बांड को जारी करने पर जो लागत आती है, सूचना विषमता की वजह से वह अधिक रही है। इस लेख में हम आपको ग्रीन बांड के बारे में विस्तार से बता रहे हैं। साथ ही इसके फायदों कऔर चुनौतियां आदि के बारे में भी जानकारी दे रहे हैं।

इस लेख में आप पढ़ेंगे:

  • Green Bond को समझें
  • Green Bond से मिलने वाले लाभ
  • ग्रीन बांड की वर्तमान स्थिति
  • ग्रीन बांड को लेकर चुनौतियां

Green Bond को समझें

  • ग्रीन बांड को आप एक ऐसा जरिया कह सकते हैं, जो कि ग्रीन परियोजनाओं के लिए धन जुटाने में मदद करता है। खासतौर पर स्वच्छ परिवहन, नवीकरणीय ऊर्जा एवं स्थाई जल प्रबंधन आदि से संबंधित परियोजनाओं के लिए इसके माध्यम से धन इकट्ठा किया जाता है।
  • बांड दरअसल आय प्राप्त करने का एक निश्चित माध्यम होता है। चाहे कॉरपोरेट हो या फिर कोई सरकारी क्षेत्र, एक निवेशक जो इन उधारकर्ताओं को ऋण प्रदान करता है, बांड इसी का प्रतिनिधित्व करता है। जो पारंपरिक बांड होते हैं, उसके जरिए एक निश्चित ब्याज यानी कि कूपन का भुगतान निवेशकों को किया जाता है।
  • ग्रीन बांड को विश्व बैंक और यूरोपीय निवेश बैंक जैसे कई बैंकों ने वर्ष 2007 में जारी किया था। वर्ष 2013 में कई कॉरपोरेट्स ने भी ग्रीन बांड को जारी किया था। इस वजह से इसका तेजी से विकास होता चला गया।
  • ग्रीन बांड जारी करने के लिए और इन्हें सूचीबद्ध करने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी कि SEBI की तरफ से पारदर्शी मानदंड भी लागू किए गए हैं।

Green Bond से मिलने वाले लाभ

  • जितने भी जलवायु को लेकर समझौते हो रहे हैं और इन पर जो भी देश या संस्थान हस्ताक्षर कर रहे हैं, उन सभी हरित प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की ग्रीन बांड में क्षमता मौजूद है। यही नहीं, जो भी ग्रीन बांड जारी करते हैं, उनकी प्रतिष्ठा में भी इससे वृद्धि होती है। वह इसलिए कि सतत विकास के प्रति जो उनकी प्रतिबद्धता है, इसके जरिए उसका प्रदर्शन हो पाता है।
  • भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान दस्तावेज बना हुआ है, जिसमें जलवायु की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए भारत के योगदान और जलवायु सुधार की प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य का उल्लेख किया गया है।
  • वाणिज्यिक बैंक जो ऋण प्रदान करते हैं, यदि उनसे ग्रीन बांड की तुलना की जाए, तो इस पर वे कम ब्याज लेते हैं। ग्रीन बांड की एक खासियत या फिर इससे मिलने वाला लाभ यह भी है कि विदेशी निवेशकों को यह आकर्षित करता है। साथ में जो पूंजी इकट्ठा करने की लागत होती है, उसे भी कम करने में यह बड़ा ही मददगार होता है।
  • अक्षय ऊर्जा के स्रोत जैसे कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में ग्रीन बांड वित्तपोषण को भी बढ़ाने में बड़े ही महत्वपूर्ण साबित हो रहे हैं। इस तरीके से भारत के निरंतर प्रगति में भी ग्रीन बांड अपना योगदान दे रहे हैं।

ग्रीन बांड की वर्तमान स्थिति

  • भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से ग्रीन बांड को लेकर जो अध्ययन किया गया है, उसमें यह बताया गया है कि वर्ष 2018 के बाद से भारत में जितने भी तरह के बांड जारी किए गए हैं, उनमें ग्रीन बांड की भागीदारी अब तक सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही रही है।
  • वैसे, गैर पारंपरिक ऊर्जा के लिए मार्च, 2020 तक बैंकों की तरफ से जो ऋण दिए गए हैं, वे बिजली के क्षेत्र में बकाया बैंक ऋण के करीब 7.9 फ़ीसदी ही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों या फिर कॉरपोरेट की तरफ से ही अपने देश में अधिकतर ग्रीन बांड बेहतर वित्तीय हालात को ध्यान में रखते हुए जारी किए जाते हैं।

ग्रीन बांड को लेकर चुनौतियां

  • वर्ष 2015 के बाद जितने भी ग्रीन बॉन्ड जारी किए गए हैं, उनके लिए आवश्यक कूपन 5 से 10 वर्षों के दौरान की परिपक्व अवधि के साथ आमतौर पर इसी अवधि के कॉरपोरेट सरकार की तरफ से जारी किए गए बांड की तुलना में अधिक है।
  • भारतीय रिजर्व बैंक के अध्ययन के मुताबिक यह उच्च कूपन दर ग्रीन बांड के मार्ग में एक बड़ी चुनौती है। एक और बड़ी चुनौती सूचना विषमता भी है। अधिक उधार लेने वाली लागत की एक प्रमुख वजह उच्च कूपन दर भी है।
  • जहां तक सूचना विषमता की बात है तो इसे सूचना विफलता के नाम से भी जानते हैं। वास्तव में यह वह स्थिति होती है, जब एक पक्ष के पास आर्थिक लेन-देन को लेकर दूसरे पक्ष की तुलना में भौतिक ज्ञान ज्यादा होता है।
  • अध्ययन यह सुझाव भी देता है कि भारत में यदि सूचना प्रबंधन प्रणाली को बेहतर तरीके से विकसित कर लिया जाए, तो इससे उधार लेने की उच्च लागत, परिपक्वता असमानता को घटाने में, अलग-अलग चरणों में उधार लेने की लागत के साथ संसाधनों के अच्छे तरीके से आवंटन में भी मदद मिलेगी।
  • ग्रीन बांड वैसे तो हरित परियोजनाओं के लिए ही जारी किए जाते हैं, लेकिन इसे लेकर व्यापक विचार-विमर्श चल रहा है कि क्या वास्तव में हरित परियोजनाओं के लिए ही इनका इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर ग्रीन बांड से जो आय हो रही है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली परियोजनाओं को भी इससे वित्तीय मदद पहुंचाई जा रही है।
  • क्रेडिट रेटिंग और रेटिंग दिशा-निर्देश इस वक्त हरित परियोजनाओं और बॉन्डों के लिए बिल्कुल भी नहीं हैं, जिनकी आवश्यकता महसूस की जा रही है। यही नहीं, ग्रीन बांड की अवधि भारत में केवल 10 वर्ष की है, जबकि एक सामान्य ऋण की भी न्यूनतम अवधी यहां 13 साल की होती है। साथ ही ग्रीन प्रोजेक्ट से फायदा मिलने में भी यहां वक्त काफी लग जाता है।

चलते-चलते

Green Bond वास्तव में सबसे जरूरी आवश्यकताओं में से एक है। ऐसे में इसके बाजार को विकसित करने के लिए घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देशों व मानकों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित करना बहुत ही जरूरी है। इसके साथ ही संस्थागत बाधाओं को भी दूर करना इसके लिए जरूरी होगा।

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