भारत-चीन सीमा (Indo-China border) पर लगातार टेंशन बढ़ता ही जा रहा है। सरकार देश को बताए या ना बताए लेकिन भारत-चीन (India-China War) की भी एक महीन सी रेखा खींच दी गई है। आज कल आपको डीबेट्स में भी भारत-चीन विवाद (Indo-China Dispute) देखने को मिल जाता होगा।
इसके पीछे का रीजन साफ़ है कि भारत-चीन सीमा (Indo-China border) पर सब कुछ सही नहीं है। आपको पता ही होगा कि साल 1962 में एक बार भारत और चीन के बीच युद्ध हो चुका है। जिसे भारत-चीन युद्ध 1962 (India china 1962 war) या फिर सिनो-इंडियन वॉर (Sino-Indian War) भी कहा जाता है। उस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा था।
आज इस लेख में आप भारत-चीन युद्ध 1962 (India china 1962 war) के बारे में ही जानने वाले हैं।
इस लेख के मुख्य बिंदु-
- क्या थी सिचुएशन?
- कितने दिन चला था ये युद्ध?
- कितने सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी?
- कब रखी गई थी युद्ध की नींव?
- कैसी थी 1962 के युद्ध में दोनों देशों की सेना?
- संसद में जवाहर लाल नेहरु ने ये गलती मानी थी
- एक नज़र में 1962 का रेजांगला युद्ध (Battle of Rezang La)
- क्या है चुशूल सब सेक्टर?
- Chushul Valley इंडिया के लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?
- Chushul Valley के पीछे क्यों पड़ा है चीन?
- क्या चीन ने 1962 में भी चुशूल वैली को हथियाने की कोशिश की थी?
- क्या थी चीन की 5 फिंगर पॉलिसी?
“ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख में भर लो पानी।
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी…”
साल 1962 के भारत -चीन युद्ध (India-China 1962 war) के बाद लता मंगेशकर ने ये गीत लाल किले के प्राचीर से गाया था। उस दौर के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु समेत पूरे देश वासियों की आँखें नम थीं। लाल किले के प्राचीर से ही जवाहर लाल नेहरु ने नम आँखों से ही देश का संबोधन किया था।
क्या थी सिचुएशन?
- इस 1962 की लड़ाई में भारत की चीन से हार हुई थी। इसी के साथ चीनी सैनिक तेजपुर तक पहुंच गये थे। जब चीनी सैनिक तेजपुर तक पहुंच गये थे तो भारतीय हुकूमत को ये डर था कि अब उनके हांथों से असम के मैदानी ईलाके भी जाने वाले हैं। इसके पीछे का कारण ये भी था कि तेजपुर के उपायुक्त वहां से जा चुके थे।
- भारत को चिंता थी कि कहीं चीन असम के मैदानी ईलाकों पर भी कब्ज़ा ना कर ले, लेकिन जवाहर लाल नेहरु के संबोधन के बाद चीन ने एक तरफ़ा युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी।
- युद्ध विराम की घोषणा के बाद चीन वापस अपने क्षेत्र में चला गया था।
कितने दिन चला था ये युद्ध?
आपको बता दें कि भारत -चीन युद्ध (India-China 1962 war) लगभग एक महीने चला था।
कितने सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी?
- BBC की रिपोर्ट्स के अनुसार एक महीने तक चले इस युद्ध में भारत के 1,383 सैनिक मारे गये थे। 1047 घायल हुए थे। इसी के साथ 1,696 सैनिक लापता हुए थे। 3,968 सैनिकों को चीन ने युद्ध बंदी बनाया था।
- इस युद्ध में चीन के 722 सैनिकों की जान गई थी। इसी के साथ उनके 1697 सैनिक घायल भी हुए थे।
कब रखी गई थी युद्ध की नींव?
- History.com के अनुसार भारत -चीन युद्ध (India-China 1962 War) की नींव साल 1950 में ही रख दी गई थी। उस दौर में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था। चीन शुरू से ही मैकमोहन लाइन को दोनों देशों की सीमा मानने से इंकार करता रहा है।
- साल 1959 भी आया, ये वही साल था जब भारत और चीन के रिश्तों (Indo-China Relation) को बहुत बड़ा धक्का लगा था। इसके पीछे का कारण ये था कि तिब्बत के दलाई लामा भागकर भारत आए थे। उस वक्त भारत ने Dalai Lama को अपने यहां राजनीतिक शरण दे दी थी।
- भारत का दलाईलामा को शरण देना चीन को अच्छा नहीं लगा था।
उस दौर में कई राजनीतिक पंडितों ने ये भी कहा था कि अगर दलाईलामा को भारत शरण नहीं देता तो शायद भारत चीन युद्ध 1962 (India-China War 1962) नहीं होता।
- इस पर राजनीतिक विशेषज्ञ इंद्र कुमार कहते हैं कि ‘दलाईलामा का भारत आना लाज़मी था। इसी के साथ भारत को उनको शरण देना भी लाज़मी ही था क्योंकि गौतम बुद्ध भारत के ही थे। ये बात अलग है कि हमने गौतम बुद्ध को तब स्वीकार नहीं किया था।
कैसी थी 1962 के युद्ध में दोनों देशों की सेना?
आपको बता दें कि इस युद्ध में मुकाबला ही बराबरी का नहीं था। दोनों सेनाओं में बहुत ज्यादा फर्क था। इतिहासकार बताते हैं कि भारत की तरफ से जहां 10 से 12 हजार सैनिक लड़ रहे थे। वहीं चीन ने उनसे लड़ने के लिए 80 हजार सैनिक मैदान में उतारे हुए थे।
चीनी सैनिक ऊचाई पर थे और पहाड़ पर लड़ने का अनुभव भी उनके पास था।
इस युद्ध में भाग लेने वाले उस दौर के ब्रिगेडियर लक्ष्मण सिंह ने बीबीसी से बात करते हुए कहा है कि – “पहली बात तो हमारी पोजीशन ही गलत थी। इसी के साथ युद्ध के लिए प्रॉपर मॉडर्न हथियार भी हमारे पास नहीं थे। आर्टरी सपोर्ट भी हमारे पास नहीं था। कुछ गन्स तो हमारे पास ऐसी थीं जो आउट ऑफ़ रेंज थीं। उनके पास 80 से ज्यादा बम्ब थे। हमारे पास तो माइंस तक नहीं थे।”
संसद में जवाहर लाल नेहरु ने ये गलती मानी थी
इस देश के चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच संसंद में खेद जताते हुए जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि “हम मॉडर्न दुनिया की सच्चाई में जी ही नहीं रहे थे। हम आधुनिक दुनिया से दूर हो गये थे। इसके साथ ही हम एक बनावटी माहौल में जी रहे थे। किसी और ने नहीं बल्कि इस माहौल को बनाया भी हम लोगों ने ही था।”
इस वाक्त्व्य से उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि उनसे चीन को पहचानने में गलती हो गई। वो अभी तक देश को गलत नारा रटाने में लगे हुए थे। ये नारा था “हिंदी-चीनी भाई-भाई”। जवाहर लाल नेहरु ने स्वीकार किया था कि उनसे चीन को पहचानने में गलती हुई है।
1959 से ही भारत चीन विवाद (India-China conflict) की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन तब के तत्कालीन प्रधानमंत्री हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे के साथ देश में भ्रमण कर रहे थे। हालाँकि, उन्होंने अपनी गलती को भी संसद में स्वीकार किया था। लेकिन सवाल ये भी उठता है कि क्या भारत की हार के जिम्मेदार अकेले जवाहर लाल नेहरु ही थे?
कई इतिहासकारों के इस पर अलग-अलग मत हैं। उनमे से एक जो सब मानते हैं। वो ये है कि उस दौर में भारतीय प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन से चूक तो हुई थी।null
एक नज़र में 1962 का रेजांगला युद्ध (Battle of Rezang La)
- 18 नवम्बर 1962 को लद्दाख के रेजांगला पोस्ट पर (Battle of Rezang La) लड़ा गया था। इस युद्ध में चीन के 5000 सैनिकों से 120 भारतीय जवान ने लोहा लिया था। जिसमे से 114 सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।
- 18 नवंबर 1962 की सुबह लद्दाख की चुशूल घाटी में बर्फ अपने शबाब पर था। लेकिन किसे मालुम था कि ये सुबह युद्ध की तस्वीर बनाने वाली है। उस सुबह वहां चीन के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के जवानों ने हमला कर दिया था।
- चुशूल घाटी में रेजांगला युद्ध (Rezang La Battle) लड़ा गया था । इस युद्ध में भारत की तरफ से 13 कुमाऊं की टुकड़ी ने अपने जान की बाज़ी लगाई थी। उस टुकड़ी का नेत्रत्व मेजर शैतान सिंह कर रहे थे।
1962 का रेजांगला युद्ध जिस चुशूल घाटी में लड़ा गया था। उस घाटी का आज के समीकरण में क्या महत्व है? इसको जानने के लिए सबसे पहले हमको चुशूल सब सेक्टर के बारे में समझना पड़ेगा। चलिए शुरू करते हैं।
क्या है चुशूल सब सेक्टर?
- चुशूल सब सेक्टर लद्दाख के पुर्वी इलाके में पैंगोंग झील के दक्षिण में स्थित है। इसमें थांग, ब्लैक टॉप, हेलमेट टॉप, गुरुंग हिल और मैगर हिल जैसी पहाड़ियाँ शामिल हैं।
- इसके अलावा रेजांगला,रेचिन ला, स्पैंगगुर गैप और चुशुल घाटी भी इसी सब सेक्टर में आती हैं।
- लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) के करीब 13,000 फीट की ऊंचाई पर Chushul Valley स्थित है। इस वैली में एक महत्वपूर्ण हवाई पट्टी है, जिसने चीन के साथ 1962 के युद्ध में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
Chushul Valley उस 5 पर्सनल मीटिंग बॉर्डर पॉइंट्स में से है जहाँ इंडियन आर्मी और पीपल लिबरेशन आर्मी ऑफ़ चाइना के शीर्ष अधिकारी वार्ता के लिए मुलाक़ात करते हैं। हाल ही में ब्रिगेड लेवल मीटिंग भी यहीं हुई थी।
Chushul Valley इंडिया के लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?
ये अपनी भौतिक स्थति के कारण भारत के लिए काफी ज्यादा महत्वपुर्ण है। इस वैली की लेह से सीधी कनेक्टिविटी है। इस वैली में पहाड़ी और मैदानी इलाके दोनों शामिल हैं। जिसकी वजह से वहां सेना के साथ टैंक्स पहुंचाने में आसानी होती है।
- भारतीय सैनिकों ने इस क्षेत्र में अब राइफल लाइन हासिल कर ली है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि 1962 के युद्ध में चीन इसी क्षेत्र को हथियाने का प्रयास किया था।
- ‘1962’ नामक किताब के लेखक और रिटायर्ड मेजर जनरल जीजी द्विवेदी कहते हैं कि “इस ईलाके में राइफल लाइन हासिल कर लेने से भारत को मिलिट्री और रणनीतिक एडवांटेज दोनों ही हासिल होगा।”
Chushul Valley के पीछे क्यों पड़ा है चीन?
इसका सीधा सा जवाब ये है कि चुशूल वैली का सीधा संपर्क लेह से है। इसलिए ये वैली चीन के लिए किसी गेट वे से कम नहीं है। अगर चीन इस हिस्से में एंटर कर लेता है तो वो ऑपरेशन लेह को लॉन्च कर देगा।
क्या चीन ने 1962 में भी चुशूल वैली को हथियाने की कोशिश की थी?
अक्टूबर 1962 में गलवान घाटी पर हमले के बाद चीन की सेना ने चुशूल हवाई अड्डा से लेह तक पहुंच बनाने की कोशिश की थी। लेकिन भारतीय सेना के 114 ब्रिगेड ने उनकी महत्वकांक्षा पर पानी फेर दिया था।
क्या थी चीन की 5 फिंगर पॉलिसी?
जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था। तब उनके राष्ट्रपति माओ ज़ेदोंग हुआ करते थे। तब उन्होंने आधिकारिक बयान दिया था कि “अभी तो हमने तिब्बत को कब्जा किया है। ये बस हथेली है। इसके बाद हम लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और अरुणांचल प्रदेश को भी अपने कब्जे में लेकर दिखाएँगे।” इसी को 5 फिंगर पॉलिसी का नाम भी दिया गया था।
सरांश
साल 1962 में मिली हार से भारत की नाक अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी झुक गई थी। जवाहर लाल नेहरु की राजनीतिक साख भी कम हो गई थी। लेकिन सवाल यही उठता रहा कि हार का ज़िम्मेदार कौन था? उस हार के ज़िम्मेदार क्या राजनीतिक नीतियां थीं या फिर सेना चीफ ऑफिसर? किसी भी हार का कोई एक ज़िम्मेदार नहीं होता है। लेकिन इस सवाल के जवाब में युद्ध में भाग लेने जनरल केके तिवारी ने इसके लिए आर्मी के आला अफसर और जवाहर लाल नेहरु को जिम्मेदार ठहराया है। बीबीसी से बात करते हुए जनरल केके तिवारी कहते हैं कि “हिन्दुस्तानी नेताओं का ये मानना कि हिंदी-चीनी भाई-भाई और जवाहर नेहरु का इसके पीछे सबसे बड़ा रोल था। जवाहर लाल नेहरु के बाद अगर कोई जिम्मेदार था तो वो थे कृष्ण मेनन तब के रक्षा मंत्री। हमें ये हुकुम था कि जाओ कब्जा करो, चीने अटैक नहीं करेंगे। हमारे सैनिकों के पास प्रॉपर हथियार भी नहीं थे।”
आपको अवगत करा दें कि जवाहर लाल नेहरु इस हार से कभी ऊबर नहीं पाए थे। वो भारत के प्रधानमंत्री तो थे। लेकिन चीन ने जो धोखा दिया था। उससे उनको काफी ज्यादा घात पहुंचा था। इसके बाद साल 1964 के मई में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।