भारतीय जनमानस में महाभारत की पैठ बहुत गहरे तक है। हिन्दू संस्कृति में महाभारत को पाँचवाँ वेद का स्थान दिया गया है। पुराणों में मिले विवरण के आधार पर इस महाकाव्य के रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी हैं जिन्होनें सम्पूर्ण कथा को एक लाख श्लोकों में वर्णन किया है। इसी कारण इस ग्रंथ को शतसहस्न्त्री भी कहा जाता है। महाभारत की पूर्ण कथा जो वेद व्यास जी ने 18 पर्वों में कहीं है उसको संक्षेप में कहना गागर में सागर समाने जैसा है।
कथा का आरंभ चंद्र वंश के राजा शांतनु से होता है जिनका विवाह गंगा से होता है। एक शर्त के कारण गंगा उन्हें एक पुत्र सत्यव्रत को जन्म देकर छोड़ कर चली जातीं हैं और कुछ समय बाद शांतनु को एक मत्सयकन्या सत्यवती से प्रेम होता है। सत्यवती इस शर्त पर की उनका पुत्र ही अगला उत्तराधिकारी बनेगा, राजा से विवाह करने को तैयार होतीं हैं। सत्यव्रत, सत्यवती को आजीवन अविवाहित रहकर और राजसिंहासन का रक्षक बनने का वचन देकर उनका विवाह अपने पिता से करवा देते हैं। सत्यवती के दो पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। चित्रांगद की असमय मृत्यु पर विचित्रवीर्य सिंहासन पर बैठे। इनका विवाह अम्बा और अंबालिका से हुआ लेकिन इन दोनों राजकुमारियों ने नियोग प्रथा के अनुसार धृतराष्ट्र और पांडु के रूप में दो पुत्रों को जन्म दिया। दोनों ही पुत्र जन्म से अस्वस्थ थे। धृतराष्ट्र जन्मांध थे और पांडु, पांडु रोग से पीड़ित थे, फिर भी उन्हें गद्दी पर बिठाया गया । समय पर धृतराष्ट्र का विवाह गांधार राजकुमारी, गांधारी से हुआ और पांडु का विवाह कुंतल राजकुमारी, कुंती और मद्र राजकुमारी, माद्री से हुआ। कुछ समय पश्चात गांधारी के सौ पुत्र और कुंती तथा माद्री के पाँच पुत्रों का जन्म हुआ जो बाद में कौरव और पांडव के नाम से प्रसिद्ध हुए।
वन में ही पांडु की मृत्यु होने पर धृतराष्ट्र को सिंहासन मिला और यहीं से कौरव और पांडवों में मन मुटाव भी आरंभ हो गया जो समय के साथ बढ़ता ही गया। सत्यव्रत जो अब भीष्म के नाम से प्रसिद्ध थे, इस मनमुटाव को दूर करने के लिए हस्तिनापुर राज्य के दो हिस्से कर दिये। पांडवों ने अपने हिस्से को इंद्रप्रस्थ नाम देकर उसे रहने और राज्य लायक बना लिया। इस बीच सभी का विवाह हो गया और पांडवों की मुख्य रानी द्रौपदी को महारानी की पदवी मिली। कौरवों और पांडवों के मनमुटाव की सीमा युधिष्ठिर के चौसर प्रेम में सीमा लांघ गयी और द्रौपदी सहित सभी पांडवों का अपमान और एक वर्ष के अज्ञातवास के साथ बारह वर्ष का बनवास मिला। पांडवों द्वारा इस सजा को पूरा करने के बाद भी दुर्योधन उन्हें सुई की नोंक के बराबर धरती न देने की बात कह कर मना कर दिया और यहीं से महाभारत युद्ध का बीज पड़ गया।
अंत में कौरव और पांडवों का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया जिसे महाभारत कहते हैं और इसमें सम्पूर्ण कौरव वंश का नाश हो गया। इसके बाद पांडवों ने लंबे समय तक राज्य किया।
महाभारत: अंजाने तथ्य
महाभारत कथा में पग-पग पर ऐसे आशार्यजनक तथ्य हैं जिनके बारे में कोई नहीं जानता है, यहाँ उनमें से कुछ को लेने का प्रयास है:
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- कौरवों और पांडवों के पुत्र गुरु द्रोण वास्तव में विश्व के सबसे पहले परखनली शिशु थे। उनके पिता महरीशि भारद्वाज एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। अपने ज्ञान का उपयोग उन्होने अपने अवांछित वीर्यपात से संतान उत्पत्ति के लिए प्रयोग किया। एक बार नदी स्नान के समय एक अप्सरा को देखकर भारद्वाज ऋषि का वीर्यपात हो गया जिसे उन्होनें पीपल के पत्ते पर सम्हाल कर एक कलश में सम्हाल कर रख दिया। समय आने पर इसी कलश जिसे द्रोण भी कहा जाता एक पुत्र का जन्म हुआ और इसी लिए उनका नाम भी द्रोण हुआ।
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- द्रौपदी के भाई धृष्टध्युमान वास्तव में परम योद्धा एकलव्य का पुनर्जन्म थे। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानते हुए,उनके मना करके उनकी प्रतिमा से प्रेरणा लेकर धनुर्विद्या सीखी थी। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उनका अंगूठा मांग कर अर्जुन का विरोधी समाप्त कर दिया और एकलव्य की मृत्यु भी श्रीकृष्ण के हाथों हो गयी थी। तब श्रीकृशन के आशीर्वाद से एकलव्य ने धृष्टध्युमन बनकर गुरु द्रोणाचार्य से अपने छल का बदला लिया था।
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- महाभारत के युद्ध में एक बार दुर्योधन ने भीष्म के ऊपर पांडवों के साथ पक्षपात का आरोप लगा दिया। भीष्म ने क्षुब्ध होकर पाँच तीरों को मंत्रों से फूँक कर उन्हें पांडवों के लिए सुरक्शित कर लिया। दुर्योधन ने इन तीरों को चुरा लिया और श्रीकृशन की सलाह पर अर्जुन ने, दुर्योधन से एक वरदान के बदले यह पांचों तीर मांग कर सबको जीवनदान दे दिया।
- युद्ध में कर्ण द्वारा पांडवों का विनाश करते देखकर एक बार युधिष्ठिर ने अर्जुन से क्रोध में गाँडीव त्यागने को कह दिया। अर्जुन उस समय गाँडीव त्यागने को कहने वाले का वध करने की प्रतिज्ञा लिए हुए थे। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युधिष्ठिर का अपमान करने के लिए कहा जो अर्जुन के लिए मृत्युतुल्य अपराध के जैसा ही था। इस प्रकार श्रीकृष्ण की सूझबूझ से दोनों के प्राण बच गए।