भारत में बर्चस्व के लिए कुछ ऐसे भिड़ी अंग्रेजी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी

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English-French East India Companies


भारत में कच्चे माल की भारी उपलब्धता को देखते हुए अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों ने ही व्यापार करने के नाम पर भारत में प्रवेश किया, मगर उनका उद्देश्य भारत को अपना उपनिवेश बनाना था। यही वजह थी कि धीरे-धीरे उन्होंने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये गये। ऐसे में अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के बीच बर्चस्व की जंग भी बार-बार होने लगी।

अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी

  • शुरुआत तो इसने छोटे पैमाने पर की, मगर बाद में यह एक शक्तिशाली वाणिज्यिक और राजनीतिक संगठन के रूप में उभरीं, जिसकी खाड़ी में मौजूदगी ने इस क्षेत्र के आधुनिक इतिहास को एक अलग ही आकार दे दिया।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी दरअसल लंदन के व्यापारियों के एक समूह द्वारा संचालित एक छोटे उद्यम से विकसित हुई थी, जिसे 1600 ई. में पूरे एशिया और प्रशांत क्षेत्र में अंग्रेजी व्यापार का एकाधिकार देते एक शाही चार्टर प्रदान किया गया था।
  • भारतीय मसाले, रेशमी वस्त्र, चाय और चीनी आदि अंग्रेजों ने भारत से अपने यहां भेजने शुरू किये।
  • कंपनी ने यहां धीरे-धीरे अपने कारखाने भी स्थापित कर लिये।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी विशुद्ध रूप से एक वाणिज्यिक कंपनी के तौर पर पूरे भारत में फैल गई, जब ब्रिटेन और फ्रांस के बीच युद्ध 1740 के मध्य में हुआ। कंपनी ने प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों और स्थानीय शासकों पर अपनी सैन्य शक्ति से प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
  • 1765 ई. में मुगल सम्राट ने कंपनी को दीवानी अधिकार (बंगाल, बिहार और उड़ीसा के राजस्व को काटने का अधिकार) प्रदान किया, जिससे उप-महाद्वीप में कंपनी की सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने के लिए धन मिल गया। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान भारत में और क्षेत्रों के अधिग्रहण ने कंपनी की भूमिका को केवल व्यापारी से संप्रभु सत्ता में तब्दील कर दिया।
  • कंपनी के कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार के बारे में बढ़ती चिंताओं के बाद ब्रिटिश संसद ने कंपनी की स्वायत्तता पर अंकुश लगाने का फैसला किया। वर्ष 1784 से बोर्ड ऑफ कंट्रोल को ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों की देखरेख की जिम्मेवारी दे दी गई।
  • एक जून 1874 को ईस्ट इंडिया कंपनी को अंततः भंग कर दिया गया।

फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी

  • भारत में व्यापार करना इनका भी उद्देश्य था। इसलिए 1664 ई. में लुई्र सोलहवें के शासनकाल में भारत के साथ व्यापार करने के लिए इसकी स्थापना की गई थी।
  • सूरत में इनका पहला कारखाना 1668 ई में स्थापित किया गया था। साथ ही मसुलिपत्तनम में भी 1669 ई. में एक और कारखाना स्थापित हुआ।
  • बंगाल के मुगल सूबेदार की ओर से 1673 ई में फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में बस्ती स्थापित करने की मंजूरी मिल गई।
  • पांडिचेरी जो 1674 ई. में फ्रांसीसियों को बीजापुर के सुल्तान से मिला था, बाद में यह इनका प्रमुख केंद्र बन गया।
  • माहे, बालासोर, कराइकल, और कासिम बाजार में अपनी व्यापारिक बस्तियां जमाने में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी सफल रही।
  • जैसे-जैसे समय बीता एक उपनिवेश के तौर पर फ्रांसीसियों ने भी भारत को मानना शुरू कर दिया।
  • जोसफ फ्रन्कोइस डूप्ले 1741 ई. में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर बना। डूप्ले ने स्थानीय राजाओं की आपसी दुश्मनी का लाभ उठाकर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अपने पैर जमा लिये, मगर अंग्रेजों की ओर से डूप्ले और फ्रांसीसियों को टक्कर दी जाने लगी, इसकी वजह से दोनों ताकतों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई।

बर्चस्व के लिए संघर्ष

  • 15वीं शताब्दी के बाद से जब यूरोपीय पहली बार भारत पहुंचे तो प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई भारतीय इतिहास का हिस्सा बन गई, लेकिन एंग्लो-फ्रेंच संघर्षों को विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जाता है, क्योंकि आधुनिक भारत को आकार देने में उनकी भूमिका किसी भी अन्य समकालीन संघर्षों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
  • भारत में संघर्ष की वास्तविक शुरुआत अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच वाणिज्यिक और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और यूरोप में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की वजह से हुई।
  • सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में फ्रांसीसी हिस्सेदारी आयुध के मामले में अंग्रेजों की बराबरी कर पाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। ऐसे में दोनों कंपनियों ने तटस्थता की घोषणा की और कारोबार किया।
  • 1740 ई. मे भारत में अंग्रेजी और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध से छः साल पहले ये दोनों राष्ट्र अकेले उन चार प्रमुख यूरोपीय राष्ट्रों में से थे, जिन्होंने पूर्व में व्यापार की शुरुआत की थी।
  • भारत में अंग्रेजी और फ्रांसीसी एक-दूसरे के साथ मौजूद थे। दोनों ने अपने-अपने नियमों का पालन किया। दोनों एक-दूसरे पर अपनी नीतियां थोप पाने में नाकाम रहे। ऐसे में संघर्ष तो होना ही था।
  • यूरोप में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के लिए जो दोनों देशों के बीच संघर्ष चल रहा था, उसी प्रतिद्वंदिता की वजह से पहली बार भारत में दोनों कंपनियां एक-दूसरे के आमने-सामने हो गईं।
  • भारत में दक्षिण के दो राज्यों कर्नाटक एवं हैदराबाद में राजनीतिक स्थिरता के जरिये वहां उत्तराधिकार जमाने की महत्वाकांक्षा ने भी दोनों को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया।
  • दूसरे चरण के सघर्ष के बाद दोनों की स्थिति लगभग समान रही, क्योंकि हैदराबाद में नवाब फ्रांसीसियों के समर्थन का था, जबकि कर्नाटक में अंग्रेजों के समर्थन का।
  • दोनों के बीच जो संघर्ष का तीसरा चरण देखने को मिला, उसे यूरोप में चलने वाले सात वर्षों के युद्ध के विस्तार के तौर पर ही देखा जा सकता है। दोनों के बीच यह लड़ाई दरअसल उत्तरी अमेरिका में अपना बर्चस्व स्थापित करने के लिए चल रही थी।
  • अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच जो तीसरे चरण का संघर्ष चला, इसमें 1760 में ब्रिटिश सेना नायक सराय कुट के नेतृत्व में ब्रिटिश कंपनी को फ्रांसीसी कंपनी के ऊपर निर्णायक कामयाबी मिल गई।

चलते-चलते

राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भारत में अंग्रेजी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संघर्ष का कारण बनी। दोनों का उद्देश्य था अधिकाधिक मुनाफा कमाना। ऐसे में उनकी राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाओं ने सिर उठा लिया। जीत तो अंततः अंग्रेजों की ही हुई, मगर आपको क्या लगता है कि यदि फ्रांसीसी जीत जाते तो भारत का वर्तमान परिदृश्य किस तरह से अलग होता?

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