सातवाहन वंश का उदय और विस्तार

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Satavahana Kingdom


भारत में जो सबसे प्राचीन राजवंश हुए हैं, सातवाहन उनमें से एक रहा है। भारत के महान सम्राट माने जाने वाले अशोक की जब मृत्यु हो गई, तो उसके बाद से यह राजवंश अधिक मजबूत हुआ। केंद्रीय दक्षिण भारत में सातवाहनों ने 230 ईसा पूर्व से लेकर दूसरे सदी तक शासन चलाया। सीसे के सिक्के को सबसे पहले Satavahana Kingdom ने ही चलाया था।

जहां तक सातवाहनों के बारे में जानकारी देने वाले स्रोतों का सवाल है, तो इनकी संख्या वास्तव में बहुत ही कम है। पूर्वी ढक्कन से कुछ शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जो Rulers of Satavahana Dynasty के बारे में बताते हैं।

इस लेख में आपके लिए हैः

  • सातवाहन वंश के शासक
  • सातवाहन साम्राज्य
  • सातवाहनों का उदय
  • सातवाहन और विदेशी व्यापार

सातवाहन वंश के शासक

सिमुक

सातवाहन वंश की स्थापना का श्रेय सिमुक को ही जाता है। इसने 23 वर्षों तक राज किया था। इसका शासनकाल 235 ईसा पूर्व से 212 ईसा पूर्व तक रहा था। इसके बारे में वैसे तो ज्यादा जानकारी मौजूद नहीं है, लेकिन पुराण यह बताते हैं कि कण्व शासकों की ताकत को इसने नष्ट कर दिया था और जो शुंग मुखिया बचे हुए थे, उनका भी उसने दमन कर दिया था। इस तरह से उसने सातवाहन वंश की स्थापना की थी।

जैन अनुश्रुतियां बताती हैं कि बौद्ध एवं जैन मंदिरों का भी निर्माण सिमुक ने अपने शासनकाल के दौरान करवाया था। हालांकि, अपने शासनकाल के अंतिम दौर के दौरान वह रास्ते से भटक गया था और इतना अधिक क्रूर हो गया था कि इसकी वजह से उसे उसके पद से हटाकर उसकी हत्या भी कर दी गई थी। सिंधुक, शिशुक और शिप्रक जैसे नामों का भी उल्लेख पुराणों में सिमुक के लिए मिलता है।

कान्हा या कृष्ण

सिमुक मारा गया तो इसके बाद 18 वर्षों तक उसके छोटे भाई कान्हा यानी कि कृष्ण ने शासन किया था। साम्राज्य का विस्तार करना उसके शासनकाल का प्रमुख उद्देश्य रहा। इसके शासनकाल के बारे में नासिक से प्राप्त एक शिलालेख में जानकारी मिलती है। इसके मुताबिक पश्चिम में नासिक तक उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।

शतकर्णी

Rulers of Satavahana Dynasty में शतकर्णी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, क्योंकि कृष्ण के बाद जब इस सिमुक पुत्र ने राजगद्दी संभाली, तो उसने अपने प्रताप से अपने वंश का बड़ा नाम रोशन किया। वीर चरित नामक एक बौद्ध ग्रंथ है, जिसमें उसे एक महान विजेता बताया गया है। उसने अंगीय कुल के महारथी त्रणकाइरो की बेटी नयनिका उर्फ नागनिका से विवाह किया था। उसने दक्षिण के कई प्रदेशों को जीत लिया था और आंध्र प्रदेश के अधीन इन्हें कर लिया था। इसने अपने शासनकाल में दो बार अश्वमेध यज्ञ भी करवाए थे।

वेदश्री और सतश्री

जब शतकर्णी प्रथम की मृत्यु हो गई तो इसके बाद वेदश्री और सतश्री नाम के उसके दो पुत्रों ने सिहासन संभाला था। ये दोनों पूरी तरह से व्यस्क नहीं थे, इसलिए इनकी मां नयनिका ने शासन अपने हाथों में लिया हुआ था। अपने पिता की मदद से वह शासन चला रही थी। स्पष्ट प्रमाण तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन फिर भी कुछ साक्ष्य यह बताते हैं कि अल्पायु में ही वेदश्री की मृत्यु हो जाने के बाद उसके उत्तराधिकारी के रूप में सतश्री ने शासन को चलाया था।

शतकर्णी द्वितीय

इसका शासनकाल काफी लंबे समय तक रहा था। इसने लगभग 166 ईसा पूर्व से लेकर 111 ईसा पूर्व तक राजगद्दी संभाली थी। हाथीगुंफा और भीलसा शिलालेखों में भी इसके बारे में वर्णन मिलता है। पुष्यमित्र शुंग के एक उत्तराधिकारी से इसी के शासनकाल में माना जाता है कि सातवाहनों ने पूर्वी मालवा को छीन लिया था।

लंबोदर और अपीलक

लंबोदर ने शतकर्णी द्वितीय के बाद राज्य का शासन संभाला था। पुराणों में इसके बारे में बताया गया है। लंबोदर के शासनकाल के बारे में ज्यादा कुछ पढ़ने के लिए नहीं मिलता है। लंबोदर के बेटे अपीलक ने उसके बाद राजगद्दी संभाली थी। इसे आठवां सातवाहन शासक माना गया है। साथ ही इसके शासनकाल की तुलना अंधकार युग से भी की गई है।

कुन्तल शतकर्णी

अपीलक के बाद जो सातवाहन शासक हुए, उनमें कुन्तल शतकर्णी को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है। इसके बारे में कामसूत्र में भी वात्सायन ने लिखा है। काव्यमीमांसा में राजेश्वर ने भी कुन्तल शतकर्णी के बारे में बताया है। उनके मुताबिक अपने महल में रहने वालीं रानियों को उसने यह आदेश दे दिया था कि वे प्राकृत के अलावा किसी और भाषा का प्रयोग न करें।

हाल

अब बात करते हैं कि Rulers of Satavahana Dynasty में से एक हाल की‚ जिसने शासन तो किया था केवल चार ही वर्षों तक‚ मगर कई दृष्टिकोण से उसके शासनकाल को बहुत ही अहम माना गया है। साहित्य में भी उसकी खासी रुचि हुआ करती थी। तभी तो उसे एक कवि सम्राट के तौर पर भी जाना गया था। अभिधान चिंतामणि के साथ पुराण‚ सप्तशती और लीलावती जैसे ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। गाथा सप्तशती या सतसई‚ जिसकी रचना प्राकृत भाषा में हुई थी‚ माना जाता है कि हाल ने ही इसकी रचना की थी। हाल का शासन 20 ई०पू० से 24 ई०पू० तक रहा था।

गौतमी पुत्र श्री शतकर्णी

Satavana Kingdom को शक शासकों से काफी चुनौती मिली थी। गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी ने एक बार फिर से सातवाहन साम्राज्य को उसका गौरव लौटाया था। इसे सातवाहन वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक भी माना गया है। इसका शासनकाल लगभग 25 वर्षों तक चला था। नासिक से कई शिलालेख बरामद हुए हैं‚ जिनमें इसके बारे में काफी कुछ लिखा हुआ है। इसमें बताया गया है कि किस तरह से गौतमी पुत्र श्री शतकर्णी ने क्षत्रियों का घमंड चकनाचूर कर दिया था। राजा शलीवाहन के तौर पर भी जाने गये श्री शतकर्णी ने पूरे भारत को एकजुट करने का काम भी किया था‚ जिससे कि विदेशी हमलावरों से देश बच पाया था।

नासिक के जोगलथम्बी से नहपान के चान्दी के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं‚ जिन्हे गौतमी पुत्र शतकर्णी ने ही दुबारा ढ़लवाया था। माना जाता है कि जब गौतमी पुत्र श्री शतकर्णी की मृत्यु होने वाली थी‚ तो इससे कुछ समय पहले ही उसने जो नहपान को हराकर कई इलाकों पर अपना कब्जा जमाया था‚ वे उसके हाथों से निकल गये थे। टलमी के भूगोल में इसके बारे में बताया गया है। साथ ही 150 ई0 के प्रख्यात रूद्रदमन के जूनागढ़ के शिलालेख भी यही बताता है।

सातवाहन साम्राज्य

बात करें Satavahana Kingdom की तो अब तक जितनी भी जानकारियां उस दौर की सामने आई हैं‚ सभी इसी ओर इशारा करती हैं कि सातवाहन विलक्षण थे। उनकी गतिविधियां भी अतुलनीय थीं। पुराणों से यह जानकारी मिलती है कि दक्कन का यह साम्राज्य था और उत्तर भारत तक इसकी सीमाओं का विस्तार हुआ करता था। इतना ही मगध तक इस साम्राज्य के अंतर्गत आता था। साथ ही पूर्व से शुरू होकर पश्चिमी समुद्र तक इसका विस्तार था और दक्षिणी भारत में भी यह फैला हुआ था। इस साम्राज्य का निर्माण वास्तव में उत्तर के साथ भारत की पारिन्द‚ भोज‚ मालव, पठनिक, रथिक‚ द्राविड़ और आन्ध्र जैसी प्रजातियों के समन्वय से हुआ था।

भले ही इसका क्षेत्रफल मौर्य साम्राज्य की तुलना में कमा था‚ मगर उसकी तुलना में यह बेहतर तरीके से गठित हुआ करता था। उन्होंने दक्कन और मध्य भारत में इतना शांतिपूर्वक शासन चलाया था कि यहां कला व स्थापत्य का विकास संभव हो पाया। पश्चिम भारत की शिलाओं में तराशी हुई गुफाओं में इसके प्रमाण मिल जाते हैं। इसके प्रमाण पूर्वी भारत के स्तूपों और विहारों में भी दिख जाते हैं।

सातवाहनों का उदय

  • सातवाहनों के बारे में आपने इतना कुछ तो जान लिया‚ लेकिन Rise of the Satavahanas के बारे में जाने बिना यह जानकारी अधूरी ही रहेगी। दरअसल उनका उदय कहां से हुआ था या फिर इनका मूल निवास स्थान कहां था‚ आज तक इसके बारे में विद्वानों के बीच आम राय नहीं बन पाई है।
  • फिर भी Rise of the Satavahanas विद्वानों का मत यही रहा है कि सातवाहन आन्ध्रों के बराबर थे। आंध्र प्रदेश से ये संबंध रखते थे। पुराणों में बताया गया है कि प्राचीन तेलुगू प्रदेश के ये रहने वाले थे।
  • एक ऐसी जाति के रूप में भी सातवाहनों की पहचान रही है‚ जिन पर आर्यों का कोई प्रभाव नहीं रहा था। ऐसा ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है। मेगस्थनीज ने जो इंडिका लिखी है‚ उसमें उन्होंने सातवाहनों की ताकत के साथ उनकी समृद्धि के बारे में भी बताया है। हालांकि जब मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया‚ तो उसके बाद सातवाहनों का क्या हुआ‚ इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। माना जाता है कि इन्होंने अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया होगा।

सातवाहन और विदेशी व्यापार

Satavahana Kingdom में व्यापार भी खूब फला–फूला था। कई तरह के सिक्के व्यापार के लिए इस्तेमाल में लाये जाते थे। इस दौरान इस्तेमाल होने वाले अधिकतर सिक्के सीसे के थे। न केवल अंदरुनी‚ बल्कि बाहरी व्यापार भी इस दौरान चल रहा था। रोम के साथ तो इनका व्यापार चलता ही था‚ साथ ही यूनान और मिश्र से भी इनका व्यापार चल रहा था। बर्मा‚ रोम‚ चंपा और जावा आदि देशों में गरम मसाले‚ काली मिर्च‚ औषधियां‚ मलमल‚ छोटी और बड़ी इलायची आदि भेजे जाते थे।

और अंत में

Satavahana Kingdom के बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके शासकों ने अपने साम्राज्य को अधिकांश समय तक शांतिपूर्ण तरीके से चलाया। हर क्षेत्र के विकास पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। इस दौरान कला और संस्कृति को भी फलने–फूलने के अच्छे अवसर मिले। यह अलग बात है कि यदि सातवाहन वंश के बारे में ऐतिहासिक स्रोतों से और जानकारी मिल पाती‚ तो यह और भी बेहतर होता।

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