Constitutional Interpretation के 4 चरण: यूं विकसित हुआ भारतीय संविधान

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Constitutional Interpretation

Constitutional Interpretation एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, जिसके बारे में अक्सर प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाता है। भारत में जब राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था तो राजनीतिक चेतना उस वक्त जागृत होने लगी थी। यदि हम यह कहें कि इसी राजनीतिक चेतना की वजह से भारतीय संविधान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारतीय संविधान की यह विशेषता है कि इसमें सभी वर्गों के हितों का पूरा ध्यान रखा गया है।

जैसे-जैसे परिस्थितियां बदली हैं और जैसे-जैसे सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या सामने आती गई है, इनके आधार पर बीते 70 वर्षों के दौरान विभिन्न अधिकारों को भारतीय संविधान में शामिल कर लिया गया है। इसी का नतीजा है कि सात दशक बीत जाने के बाद भी आज भारतीय संविधान न केवल अक्षुण्ण बना हुआ है, बल्कि यह पूरी तरीके से जीवंत है और क्रियाशील भी।

इस लेख में आप जानेंगे

  • एक जीता-जागता दस्तावेज भारतीय संविधान
  • संविधान यदि नहीं होता तो?
  • Constitutional Interpretation की Meaning और महत्व
  • Constitutional Interpretation के चरण
  • निष्कर्ष

एक जीता-जागता दस्तावेज भारतीय संविधान

  • Constitutional government की meaning भारतीय संविधान हमें बताता है। हमारे देश की सरकार भारतीय संविधान के मुताबिक ही संचालित होती है।
  • हमारे देश के आदर्श क्या हैं, इसके उद्देश्य क्या हैं, इसके मूल्य क्या हैं, ये सारी चीजें हमारे देश के संविधान में प्रतिबिंबित होती हैं।
  • भारत का संविधान स्थिर नहीं है, बल्कि लगातार इसका विकास अलग-अलग काल खंडों में होता रहा है।

संविधान यदि नहीं होता तो?

-इंसान जब प्राकृतिक अवस्था का अनुसरण कर रहा था तो इसमें केवल दो तरह के अधिकार उसे प्राप्त थे। इसमें पहला था अपने जीवन की रक्षा करने का अधिकार और दूसरा था अपने जीवन की रक्षा करने के लिए कुछ भी करने का अधिकार।

  • इसमें हमेशा अपने अधिकारों का हनन होने का, प्राण छीने जाने का और संपत्ति लुट जाने का भय बना रहता था, क्योंकि अपने अधिकारों की रक्षा के नाम पर दूसरे के अधिकारों का हनन कोई क्षण भर में ही कर देता था।
  • थॉमस हॉब्स ने सबसे पहले सामाजिक विनियमन की परिकल्पना की थी, जिसमें उन्होंने सामाजिक समझौते का सिद्धांत दिया था। भारतीय संविधान इसी सामाजिक समझौते के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें कि एक-दूसरे के अधिकारों के प्रति सम्मानजनक व्यवस्था की स्थापना की गई है।

Constitutional Interpretation का Meaning और महत्व

  • Constitutional Interpretation की meaning है वह विवेचना जो कि भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों की इसलिए की जाती है, ताकि भारतीय संविधान के अर्थ या फिर इसके अनुप्रयोग से जुड़े विवादों का निपटारा किया जा सके।
  • जिन कानूनों को संसद में पारित किया जाता है ,उन्हें यदि आसानी से लागू करना मुमकिन है तो उतनी ही आसानी से वे निरस्त भी किए जा सकते हैं। वहीं, भारतीय संविधान को भविष्य को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। ऐसे में इससे जुड़ी किसी भी चीज को निरस्त करना बहुत ही मुश्किल होता है। यही कारण है कि अलग-अलग परिस्थितियों के मुताबिक इसकी व्याख्या करना भी जरूरी हो जाता है।

Constitutional Interpretation के 4 Phases

पहला चरण

  • इसे पाठवादी दृष्टिकोण यानी कि Textualist Approach के नाम से भी जानते हैं।
  • संविधान में जिन शब्दों का वर्णन किया गया है, इसमें उन्ही शब्दों के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दिया गया था।
  • शुरुआती वर्षों में पाठवादी दृष्टिकोण को अपनाया गया था।
  • मौलिक अधिकारों की व्याख्या वर्ष 1950 में एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य वाद में की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस वाद में फैसला देते हुए निवारक निरोध कानून की वैधता को जारी रखा था।
  • साथ ही सर्वोच्च न्यायालय की ओर से यह साफ किया गया था कि अनुच्छेद 19, 21 और अनुच्छेद 22 पूरी तरह से अलग विषय वस्तु से नाता रखते हैं और इन्हें एक साथ नहीं पढ़ा जा सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने तब यह भी साफ किया था कि मौलिक अधिकारों में संशोधन के लिए संसद की शक्तियों पर किसी तरह की कोई सीमा नहीं है।

दूसरा चरण

  • Constitutional Interpretation के इस चरण को संरचनावादी दृष्टिकोण के नाम से जाना जाता है। इसमें संविधान की समग्र संरचना के साथ सुसंगतता पर केंद्रीय संरचनावादी दृष्टिकोण को महत्व दिया गया।
  • वर्ष 1973 में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में यह साफ कर दिया गया कि संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति के तहत नहीं किया जा सकता है।
  • यही नहीं वर्ष 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से वर्ष 1950 के एके गोपालन मामले में अपने ही निर्णय को निरस्त कर दिया गया था।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार को इसमें और विस्तृत रूप दे दिया गया। नि:शुल्क कानूनी सहायता, शीघ्र विचारण और स्वच्छ हवा जैसे अधिकार भी इसमें शामिल कर लिए गए।

तीसरा चरण

  • परिणाम-उन्मुख व्याख्या के नाम से भी तीसरे चरण को जाना जाता है। वाद से जुड़े हुए अलग-अलग मुद्दों पर इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय की ओर से गंभीरता से विचार करने के अपने दायित्वों की पूरी तरीके से उपेक्षा की गई।
  • इसकी एक बड़ी वजह यही रही कि 8 न्यायाधीशों के साथ सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था शुरू हुई थी, लेकिन अब इनकी संख्या बढ़कर 31 हो गई थी। लंबित मामलों की तादाद भी तेजी से बढ़ रहे थे। ऐसे में दो से तीन न्यायाधीशों की पीठ गठित की जाने लगी।
  • न्यायाधीशों के बीच इसकी वजह से वैचारिक मतभेद भी पैदा होने शुरू हो गए।

चौथा चरण

  • सामाजिक क्रांति और परिवर्तन के नाम से संवैधानिक व्यवस्था के विकास के चौथे चरण को जाना जाता है।
  • उदाहरण के लिए सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए हटा दिया था की भक्ति में लिंग भेद आखिर कैसे हो सकता है?
  • उसी तरह से ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में अपराध के दायरे से समलैंगिकता को बाहर कर दिया था।

निष्कर्ष

Constitutional Interpretation का विकास इस तरीके से पिछले 70 वर्षों के दौरान होता रहा है। भारत की न्यायपालिका में पारदर्शिता के साथ इसकी जवाबदेही के बीच सामंजस्य बैठाए रखने के साथ न्यायपालिका की आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने की कोशिशें भारतीय संविधान के माध्यम से की जाती रही हैं।

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