व्यापार से शासन तक का सफर करने वाला चार्टर एक्ट 1833

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The Charter Act of 1833


चार्टर एक्ट वास्तव में दो शब्द हैं जिसमें चार्टर लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है राजपत्र। इस प्रकार चार्टर एक्ट को सरल शब्दों में परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि एक कानूनी भाषा में लिखा गया कोई सरकारी या सार्वजनिक कागज़। यह सार्वजनिक कागज जब 1833 में इंग्लैंड के शासक विलियम बैंकिट और उनकी प्रशासनिक टीम ने तैयार किया तब इसे चार्टर एक्ट 1833 का नाम दिया गया।

1833 का चार्टर एक्ट पूर्वर्ती एक्ट से कैसे भिन्न था :

दरअसल 1784 में पिट्स इंडिया ने एक बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की थी जिसका काम ईस्ट इंडिया कंपनी पर शासन करना था। इसके बाद 1773 में कंपनी को एक चार्टर के द्वारा पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की अनुमति दी गई। यह अनुमति बीस वर्षों के लिए थी जो 1793 में समाप्त हो गई। 1793 में इस चार्टर के नवीनीकरण के साथ ही न केवल कंपनी को भारत और चीन के साथ व्यापार करने की अनुमति दी गई बल्कि कंपनी के आला अफसरों के जीवन यापन का प्रबंध भारतीय खजाने से करने का निर्णय लिया गया। यह एक्ट जब बीस वर्ष बाद यानि 1813 में दोबारा नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश संसद पहुंचा तब तक ब्रितानी संसद को भारत का औपनिवेशिक महत्व समझ आ चुका था। इसलिए इस एक्ट में कंपनी के हितों के साथ ही भारतीय समाज के हितों जैसे शिक्षा का भी ध्यान रखने की बात सोची गई। इसके साथ ही ब्रिटेन पर प्रथम विश्व युद्ध का बुरा प्रभाव पड़ चुका था। इसलिए ब्रिटेन के व्यापारी, नेपोलियन की व्यापारिक नाकाबंदी के कारण भारत और चीन के साथ व्यापार करके लाभ कमाने के लिए उत्सुक थे। इस एक्ट में इस प्रकार केवल ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार करने के एकाधिकार को समाप्त करके सम्पूर्ण ब्रिटेन के लिए भारतीय दरवाजे खोल दिये गए। ब्रिटिश व्यापारियो के लिए भारतीय बाज़ार एक दुधारू गाय साबित हुए जिसका उन्होने शोषण करके अपनी हानि को अनंत लाभों में बदलना शुरू कर दिया।

1833 का क्रांतिकारी एक्ट:

जब बीस वर्ष बाद चार्टर एक्ट ब्रिटिश संसद में नवीनीकरण के लिए पहुंचा तब संसदीय समिति इसे बिना चर्चा किए पारित नहीं कर सकी। इस समय तक लंदन में औध्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में माल बन चुका था लेकिन उसके लिए एक अच्छा बाज़ार नहीं था। इसके अतिरिक्त माल उत्पादन के लिए श्रमिक नहीं थे क्योंकि दास प्रथा के खत्म हो जाने के कारण श्रम लागत बहुत अधिक बढ़ गई थी। इस समय लंदन के औपनिवेशिक साम्राज्य में भारत वास्तव में सोने की चिड़िया था जिसका दोहन करने के लिए ब्रिटेन की शाही सत्ता तैयार बैठी थी। इसलिए केवल एक कंपनी ही व्यापार और शासन का काम सम्हाले, यह बकिंघम जैसे समाज सुधारक को पसंद नहीं था। इसलिए उन्होनें ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत में प्रशासन के अधिकार लेकर वहाँ ब्रिटिश सरकार के हाथों में देने की बात कही। लेकिन लॉर्ड मैकाले ने अपने जोरदार तर्कों से इस प्रस्ताव का विरोध किया और कंपनी के सही अधिकारों को बरकरार रखते हुए यह चार्टर अगले 20 वर्षों के लिए फिर से नवीनीकृत कर दिया गया।

1833 के चार्ट एक्ट में क्या विशेष था:

ब्रिटिश संसद द्वारा 23 अगस्त 1833 को पारित किया गया चार्टर एक्ट दरअसल ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्वी देशों, भारत और चीन से बोरिया-बिस्तर समेटने की चेतावनी थी। इसके अंतर्गत कंपनी के आंतरिक शासन स्वरूप और भारत में कंपनी के शासकीय स्वरूप में भारी परिवर्तन किए गए थे जो इस प्रकार थे :

1. ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासनिक परिवर्तन:

1833 के अधिनियम में कंपनी संबंधी प्रशासनिक प्ररिवर्तन जो किए गए वो थे :

  • चीन के साथ कंपनी के व्यापार करने के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। कंपनी को इससे होने वाले नुकसान की भरपाई भारतीय कोश से करने का आश्वासन भी दिया गया।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपने व्यापारिक गतिविधियों को सीमित करते हुए बंद करने का समय दे दिया गया। इसमें आगे यह निर्देश दिया गया कि कंपनी के पास भारत पर शासन करने का अधिकार और शक्ति ब्रिटिश सम्राट और उनके वंशजों की ओर से किया गया माना जाएगा। इस प्रकार इस एक्ट से कंपनी ब्रिटिश शासन की प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त मानी गई। इसलिए इस एक्ट को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का आधिकारिक प्रवेश भी माना जाता है।
  • इस चार्टर एक्ट से पहले भारत को ब्रिटिश राज्य का हिस्सा नहीं माना जाता था। इसलिए लंदन से भारत आने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। लेकिन 1833 में पास किए गए अधिनियम के बाद भारत को ब्रिटेन साम्राज्य का एक हिस्सा माना गया और पूरा भारत ब्रिटेन के लिए व्यापरिक गतिविधियों के लिए खोल दिया गया । इस प्रकार अब ब्रिटेन से कोई भी भारत में बिना कोई अनुमति लिए आ कर बस सकता था और व्यापार करने के लिए अपना निवास बना सकता था।
  • भारत के प्रशासन की देखभाल करने के लिए कुछ नए पद बनाए गए जिनका काम मुख्य रूप से भारत से उत्पन्न होने वाले राजस्व की देखभाल के साथ भारतीय मामलों की देखभाल करना भी था।

2. ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय शासन में परिवर्तन:

1833 के अधिनियम के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत प्रशासन में किए गए परिवर्तन इस प्रकार थे:

  • भारत को आधिकारिक रूप से ब्रिटेन का उपनिवेश मानते हुए बंगाल के गवर्नर जनरल को सारे भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया। इनका काम ब्रिटेन के सम्राट की ओर से भारत के सैनिक और असैनिक मामलों को देखने और निर्णय लेने का अधिकार सौंप दिये गए। इस प्रकार गवर्नर जनरल आधिकारिक रूप से भारत के ऊपर ब्रिटेन का शासक के रूप में नियुक्त कर दिये गए।
  • भारत के सभी प्रान्तों की सरकारों को अशक्त करते हुए सारी शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित कर दी गईं। इस प्रकार लगभग सारा भारत ब्रिटेन की सत्ता के अधीन कर दिया गया।
  • भारत के समस्त प्रान्तों की कानून निर्माण करने की शक्ति को समाप्त करते हुए सम्पूर्ण भारत के लिए एक लिखित संविधान और कानून बनाने का काम गवर्नर जनरल को सौंप दिया गया।
  • भारतीय जनता को नौकरी के लिए केवल शिक्षा को ही आधार बनाया गया। इससे पहले धर्म,जाती, स्थान और वंश के आधार पर नौकरी दी जाती थी।
  • इंग्लैंड की ही भांति भारत में भी दास प्रथा को समाप्त कर दिया गया।
  • ईसाई धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए विशेष प्रबंध किए गए और विशेष रूप से बंगाल, बंबई और मद्रास में लोगों को ईसाई धर्म में प्रवर्तित करने के लिए बड़े पादरियों की नियुक्ति पर बल दिया गया। इन सभी पादरियों के प्रमुख यानि बिशप के लिए कलकत्ता के पादरी को चुना गया।
  • कंपनी का आधिकारिक नाम अब ईस्ट इंडिया कंपनी हो गया।

निष्कर्ष

इस प्रकार 1833 का चार्टर एक्ट एक प्रकार से व्यापार से शासन में परिवर्तन का सूचक था। इसके साथ ही भारत में केंद्रीयकृत शासन की भी शुरुआत हो गई थी। इस अधिनियम के निर्माण में जॉन मैकाले के नियमों व सोच का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। इससे पहले भारतीय नागरिक सरकारी नौकरी में स्थान नहीं पा सकते थे, लेकिन इसके बाद से उन्हें भी सरकारी नौकरी के योग्य समझा जाने लगा। भारत में ब्रिटेन की ओर से नियुक्त परिषद् में कार्यकारी और विधायों कार्यों को अलग-अलग कर दिया गया। इसके अतिरिक्त गवर्नर जनरल द्वारा भारत में न्याय व व्यवस्था का निर्माण करने के किए एक विधि आयोग का गठन किया गया और इसका ही अंतिम रूप भारतीय दंड संहिता के रूप में आज भी देखा जा सकता है। इस प्रकार इस अधिनियम को एक क्रांतिकारी अधिनियम भी माना जाता है।

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