भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने विदाई भाषण में कहा था, ‘हमें अच्छी महिलाएं दो, हमारे पास एक महान सभ्यता होगी। हमें अच्छी माताएं दो, हमारे पास एक महान देश होगा।’ करीब पांच दशक पहले डाॅ राधाकृष्णन द्वारा की गई ये टिप्पणी कल जितनी प्रासंगिक थी, उतनी ही प्रासंगिकता इसकी आज भी है। अंतर बस इतना है कि जिस दौर में उन्होंने ये बात कही थी, तब महिलाओं के लिए सार्वजनिक क्षेत्रों में अवसर कम थे, मगर आज इन अवसरों की प्रचुरता है। फिर भी यह एक कड़वा सच है कि अब भी सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं की अनुपात पुरुषों की तुलना में केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई विकासशील देशा में कम है, जो इस बहस को जन्म देता है कि आखिर सार्वजनिक क्षेत्रो में कब इस अनुपात को यदि बराबर नहीं तो कम-से-कम बेहद नजदीक लाया जा सकेगा?
पिछले दो दशकों में
- वैसे, भारत की बात करें तो पिछले दो दशक में परिस्थितियां काफी बदली हैं। साल 1995 को पूरी दुनिया में महिलाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया गया। इसके बाद से व्यापक पैमाने पर जागरुकता फैलाते हुए सामाजिक, आर्थिक और अन्य संस्थानिक सुविधाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिशों को गति दी गई।
- लड़कियों के लिए उज्ज्वला योजना, बालिका समृद्धि योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना और किशोरियों के सशक्तीकरण के लिए योजना जैसी ढेरों योजनाओं के जरिये उन्हें शिक्षित बनाकर सार्वजनिक क्षेत्रों में अपना योगदान देने के काबिल बनाने का प्रयास बीते दो दशक में तेजी से हुआ है।
सिंगापुर और कनाडा से प्रेरणा लेने की जरूरत
- सिंगापुर में सार्वजनिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 1970 के 28 फीसदी की तुलना में साल 2016 में बढ़कर 58 फीसदी हो गई थी। इसमें महिलाओं को सरकार से मिलने वाली सुविधाओं जैसे मातृत्व अवकाश, पेमेंट के साथ बच्चों की देखभाल के लिए अवकाश, कर में राहत और बच्चों की देखभाल के लिए सब्सिडी आदि का विशेष योगदान रहा।
- कनाडा में साल 2015 में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपने कैबिनेट में 15 पुरुष तो 15 महिला मंत्रियों को जगह देकर इसे संतुलित बनाकर पूरी दुनिया को संदेश दिया कि यदि इच्छाशक्ति हो तो सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर की भागीदारी दी जा सकती है।
भारत यहां है
- भारत के लिए यह जरूर गर्व का विषय है कि यहां एक महिला देश की प्रधानमंत्री और एक महिला देश की राष्ट्रपति भी रह चुकी हैं, जबकि अमेरिका जैसा देश, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति कहा जाता है, वहां अब तक एक महिला राष्ट्रपति नहीं चुनी जा सकी है।
- दूसरी ओर स्याह पहलू ये है कि देश की संसद में अब भी बराबरी का तो छोड़िए, महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का कानून भी पास नहीं हो पा रहा है। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार द्वारा पंचायत और वार्ड पार्षद के चुनावों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षित करने का कदम उठाकर और ओडिशा सरकार द्वारा भी कुछ इसी तरह का प्रस्ताव लाकर उम्मीद की किरण जरूर बिखेरी गई है, मगर अब भी लंबा सफर तय करना है।
- वर्तमान में लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिए। केवल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 164 उम्मीदवारों में केवल 18 महिला उम्मीदवार ही मैदान में हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र में लैंगिक असामनता पर एक नजर
- दुनिया में आधी आबादी महिलाओं की होने के बावजूद वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद यानी कि जीडीपी में उनकी भागीदारी केवल 37 फीसदी की ही है।
- मैक्किंसी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की शोध के मुताबिक दुनियाभर में श्रम शक्ति में महिलाओं की तादाद पुरुषों के मुकाबले 65 करोड़ कम है। इसके अलावा घर के काम जिसके लिए कोई आय नहीं होती, उसमें महिलाएं पुरुषों की तुलना में तीन गुना अधिक समय देती हैं। साथ ही पुरुषों की तुलना में बैंक अकाउंट वाली महिलाओं की संख्या 19 करोड़ कम है।
निष्कर्ष
नीलसन के एक सर्वे में पता चला था कि दुनिया में सबसे अधिक 87 फीसदी महिलाएं भारत में तनाव की गिरफ्त में हैं। जरूरत इस बात की है कि महिलाएं जो घर से लेकर बाहर तक के काम को संभालने में पूरी तरह से दक्ष हैं, उनकी क्षमता पर भरोसा जताया जाए और दकियानूसी एवं रुढ़ीवादी मानसिकता को दूर रखकर उन्हें भी हर क्षेत्र में समान अवसर मुहैया कराया जाए। सार्वजनिक क्षेत्र में यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की है। हर किसी को याद रखना चाहिए कि दुनिया में ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है, जिन्होंने गुमनामी के अंधेरे से निकलकर अपनी एक अलग पहचान बनाई है और उनमें से कई आज हमारे लिए आदर्श भी हैं। इसलिए जरूरत है उन्हें भी साथ लेकर चलने की और उन्हें अवसरों में समानता दिलाने की।