जानिए, कैसा था राजपूत राज्यों में प्रशासन?

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Rajput Dynasties in India

Rajput State में Administration किस तरह का था, इसे लेकर UPSC के Exam में History Section के अंतर्गत कई बार सवाल पूछे जा चुके हैं। Rajput State में Administration एक महत्वपूर्ण topic है। इस लेख में हम आपको राजपूतों के Administration के बारे में विस्तार से जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं, जो आपकी तैयारी के दौरान आपके लिए बेहद मददगार साबित होगी।

राजपूत शासन में शासन का स्वरूप

  • सामंतवादी प्रथा ही राजपूत राज्यों का आधार थी। Rajput State का Administration कई जागीरों में विभक्त था। राजवंश के कुमार या नजदीक के राज्यों से राजा की सेवा करने के लिए आये वीर सैनिक ही जागीरदार हुआ करते थे। राजा के प्रति इन सामंतों की निष्ठा और श्रद्धा अतुलनीय थी। जब भी कोई संकट आता था तो ये मरते दम तक राजा की मदद करते थे। यही नहीं, राजा पर तो वे अपना सबकुछ कुर्बान करने तक के लिए तत्पर रहते थे।
  • राजा को सामतों की ओर से नियमित तौर पर वार्षिक कर प्राप्त होता रहता था। जब भी उत्सव होता था, ये सामंत राजा के दरबार में उपस्थिति हो जाते थे और राजा को नजराना दिया करते थे। जो भी सामंत उपस्थिति नहीं होते थे, उन्हें विद्रोही मान लिया जाता था। इसके बाद उनकी जागीरों को जब्त करने की कार्रवाई की जाती थी। यदि कोई सामंत राजद्रोह करता था या फिर युद्ध से भाग जाता था या शासन के दौरान अत्याचार अधिक करता था, तो इसके लिए भी इन सामंतों की जागीरों को जब्त करने का अधिकार राजा के पास होता था। राजा की ताकत के ये सामंत प्रमुख स्रोत थे। साथ ही राजा को इनसे राज्य में शांति-व्यवस्था को कायम रखने में मदद भी मिलती थी। सामंतों को अपनी जागीर में आमतौर पर पूरी स्वतंत्रता मिलती थी। न्याय करना भी इनके अधिकार में था। इनके खिलाफ कोई फरियाद हो तो राजा के यहां इनकी सुनवाई होती थी।
  • Rajput State में Administration में निरंकुश राजंतत्र का प्रचलन हो गया था। राजा के पास जो अधिकार थे, उनकी कोई सीमा ही नहीं थी। अपने राज्य का तो वह सर्वोच्च अधिकारी होता ही था, साथ में वह अपने राज्य का सेनापति और मुख्य न्यायाधीश भी हुआ करता था। जितनी भी नियुक्तियां होती थीं, सभी राजा के द्वारा ही होती थीं। मंत्रिपरिषद की व्यवस्था तो जरूर थी यहां राजा को प्रशासन में मशविरा देने के लिए, लेकिन इन्हें कितना मानना और नहीं मानना है, यह पूरी तरह से राजा पर निर्भर होता था। भले ही राजा निरंकुश थे, मगर अपनी प्रजा के कल्याण को लेकर वे तत्पर दिखते थे।

राजपूत शासन में सैनिक प्रशासन

  • राजपूत राज्यों में राजा के पास व्यक्तिगत सेना बहुत ही कम थी। सामंतों की संयुक्त सेना पर ही राजा की ताकत निर्भर नजर आती थी। राजपूत राजाओं को पता नहीं होता था कि दूसरे देशों में युद्ध के किस तरह के तरीके प्रचलन में हैं। आदर्शों और नैतिकता पर बल वे युद्ध के मैदान में भी दिया करते थे। वे धर्मयुद्ध करने के पक्ष में होते थे। आन पर मिट जाने के लिए तैयार रहते थे। कोई भाग रहा हो तो उस पर पीछे से वार नहीं करते थे। कोई शरण में आये तो उसकी रक्षा करते थे।
  • राजा की सेना में घुड़सवार सैनिक कम थे। यही नहीं, तुर्क आक्रमणकारियों से तुलना करें तो इनके घोड़े की किस्म भी उनकी तुलना में बहुत खराब थी। हाथियों की संख्या इनकी सेना में अधिक हुआ करती थी। तुर्क सैनिक जब हाथी के आंखों पर मारते थे तो ये कई बार अपनी ही सेना के पीछे दौड़ पड़ते थे। चूंकि अधिकतर संख्या सेना में उन सैनिक दस्तों की थी, जो सामंत प्रदान करते थे, उसकी वजह से ये एकजुट नहीं नजर आते थे।
  • राजपूतों अपना सबसे महान कर्तव्य युद्ध लड़ने को समझते थे। यहां तक आपस में भी लड़ते रहते थे। कई बार तो युद्ध बड़े ही विनाशकारी परिणाम देते थे। राष्ट्रीय चेतना एवं राजनीतिक जागरण की भावना का राजपूतों में अभाव होने की वजह से ही ये लोग संगठित होकर विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला ठीक से नहीं कर सके थे।

राज्य की आय के साधन

राज्य को सर्वाधिक आय भूमि कर से होती थी। भूमि कर की दरें भी अलग-अलग रखी गई थीं। युद्ध हमेशा होते रहते थे। राज दरबार और महल की देखरेख की जरूरत होती थी। ऐसे में भूमि कर में भी बढ़ोतरी हमेशा होती रहती थी। भूमि के उपज का 1/6 से 1/3 भाग तक भूमि कर के तौर पर ले लिया जाता था। साथ ही बिक्री कर व व्यावसाय कर वसूले जाने का भी नियम था। उद्योग-धंधे एवं व्यापार से तो राज्य को आय प्राप्त होती ही थी, साथ में सामंतों से मिलने वाले उपहार कर, वार्षिक कर एवं आर्थिक दंड से भी राज्य की आय हो जाती थी। राजपूत राजा किले और मंदिर बनवाने में बहुत खर्च करते थे।

न्याय व्यवस्था की स्थिति

  • राजपूत राज्य में कानून और इंड बेहद कठोर हुआ करते थे। धर्मशास्त्रों व परंपराओं के आधार पर न्याय किया जाता था। सरकारी अदालतें राज्यभर में फैली हुई थीं। न्याय करने की जिम्मेवारी न्यायाधीशों के कंधों पर थीं। सबसे छोटी इकाई ग्राम प्रशासन थी। यहां दीवानी के साथ फौजदारी मुकदमों में निर्णय होते थे। पंचायत से संतुष्ट न होने की स्थिति में ऊपरी अदालत में अपील करने और वहां भी न्याय न मिलने की स्थिति में राजा के पास भी फरियाद लेकर जाने का विकल्प जनता के पास मौजूद था।
  • मौखिक रूप से ही  न्याय होता था। एक बात जरूर थी कि वर्तमान समय की तुलना में उस वक्त न्याय लोगों को जल्द मिलता था। सुनवाई खुलेआम हुआ करती थी। किसी गांव में चोरी या लूट हो तो सामूहिक तौर पर सभी से इसका हर्जाना वसूला जाता था। दंड के तौर पर कारावास, राज्य से बाहर करने, शारीरिक यातना देने, आर्थिक जुर्माना लगाने, अंग-भंग करने और मृत्यु दंड देने तक का प्रावधान था।

निष्कर्ष

UPSC Exam की History में अब यदि आपसे राजपूतों के Administration से संबंधित किसी भी प्रकार के सवाल पूछे जाते हैं तो आप इसे पढ़ने के बाद आसानी से इनका जवाब देने की स्थिति में होंगे।

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