क्या भारत सरकार अधिनियम (1935) में पंचायती राज ने भारत की आज़ादी की नींव रखी थी

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जब से टेलीविज़न पर निमकी मुखिया सीरियल आने लगा है, शहर में बैठा हर शख्स ग्राम पंचायत और मुखिया पद के बारे में जानने लगा है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ग्राम पंचायत की अवधारणा आधुनिक नहीं बल्कि वैदिक काल से चली आ रही है। हालांकि भारतीय सभ्यता में विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों और शासन व्यवस्थाओं का प्रभाव रहा है,लेकिन ‘ग्राम पंचायत’ नामक प्रशासन व्यवस्था के अस्तित्त्व पर कोई आंच नहीं आई है। ब्रिटिश काल में प्रशासन व्यवस्था पर विक्टोरिया महारानी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता था, लेकिन पंचायती व्यवस्था में यह प्रभाव भी निष्प्रभाव हो गया था। ऐसा क्या था जो ब्रिटिश कानून चाह कर भी भारतीय ग्रामीण व्यवस्था को किसी भी रूप में न तो नष्ट कर पायी और न ही प्रभावित कर पाई। इस सवाल के जवाब के लिए पंचायती व्यवस्था का इतिहास जानना जरूरी है:

वैदिक काल में पंचायती स्वरूप:

मनुस्मृति को भारतीय संस्कृति में आदि ग्रंथ माना जाता है और इसी ग्रंथ में लोगों के रहने के ढंग के आधार पर उन्हें ग्राम (गाँव), पुरा (शहर) और नागरा (शहर) के रूप में बांटा गया था। इसके अतिरिक्त याग्यवाल्क्य, नारद स्मृति और श्रुति पुराण में भी ग्रामीण समुदाय के रूप में पंचायती व्यवस्था के प्रमाण मिलते हैं। इसी धारणा का विस्तार ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ में भी दिखाई देता है। इस का परिचय वाल्मीकिकृत रामायण में मिलता है जहां पंचायत के आधार पर केन्द्रीय सभा और मार्ग परिषद् का गठन किया जाता था। इस समय पंचायत एक स्वतंत्र और स्वावलंबी इकाई के रूप में दिखाई देती है। यही रूप पंचायत का महाभारत काल में भी लक्षित होता है। इस समय पंचायत में जाती और कुल के आधार पर प्रतिनिधित्व प्राप्त होता था। इन दोनों कालों में पंचायत के अस्तित्व और कार्यों का स्पष्ट वर्णन जातक कथाओं में दिखाई देता है और इस वर्णन को अकाट्य प्रमाण माना जाता है।

प्राचीन काल में पंचायती राज:

इतिहास की धारा जब वेदों से निकल कर प्राचीन काल में प्रवेश करती है तब छठी शताब्दी में ग्राम पंचायत के होने के प्रमाण विभिन्न खुदाई में प्राप्त हुए हैं। सबसे मजबूत प्रमाण मौर्य काल में दिखाई देते हैं जहां ग्राम पंचायत को सत्ता के विकेन्द्रीकरण के रूप में देखा जाता है। इस समय ग्राम पंचायत प्रशासन की सबसे छोटी इकाई के रूप में देखी जाती थी और पंचायत का मुखिया ‘ग्रामिक’ कहलाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायत के माध्यम से कार्यपालिका, नगरपालिका एवं व्यवस्थापिका के कार्य भी किए जाते थे। यह व्यवस्था गुप्त कालीन प्रशासन में भी जारी रहती है।

मध्य कालीन इतिहास में पंचायती राज:

भारत में विदेशी आक्रमण के आरंभ के साथ विभिन्न प्रकार के परिवर्तन दिखाई देने लगे थे। लेकिन मुगल कालीन सल्तनत ग्राम पंचायत व्यवस्था को हिला तो नहीं पाई लेकिन इसके स्वामित्व स्वरूप में परिवर्तन हो गया था। मुगल कालीन शासकों ने भारत में जब अपनी जड़ों को अच्छी तरह से जमा लिया तब ग्राम पंचायत को मुगल शासन के प्रतिनिधि के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। अब ग्राम पंचायत पर ग्रामीण जनता का नहीं बल्कि ग्राम के सबसे बड़े और धनवान व्यक्ति जिसे जागीरदार कहा जाता था, का स्वामित्व हो गया था। इस प्रकार पंचायत का अस्तित्व तो रहा लेकिन उद्देशय और स्वरूप बदल गया था। मौर्य शासन की पंचायत जो ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व करती थी अब मुगल काल में मुगल प्रशासन का प्रतिनिधित्व कर रही थी। इससे ग्रामीण स्वावलंबन में कमी आ गई और सत्ता का विकेंद्रीकरण न होकर बल्कि केन्द्रीयकरण शुरू हो गया था। इस समय पंचायत पर जागीरदार के हाथ मजबूत करने के लिए अधिकतम अधिकार सरकारी अफसरों को दे दिये गए थे।

ब्रिटिश काल में पंचायती राज:

मुगल काल के अंत के साथ पंचायती राज में भी परिवर्तन दिखाई देने शुरू हो गए थे। लेकिन ये परिवर्तन ग्रामीण सत्ता को और केन्द्रीकरण की ओर ले जाने वाले सिद्ध हुए थे। इस समय तक ग्राम पंचायत केवल उच्चतम ब्रिटिश अधिकारियों के निर्णयों को ग्रामीण जनता तक पहुंचाने वाली डाकिया मात्र रह गई थी। अब पंचायत में ग्रामीण जनता की सहभागिता और सहयोग पूरी तरह से नष्ट हो गया था। इस समय तक जहां एक ओर ग्रामीण प्रशासन पर पकड़ खत्म हो गई थी वहीं दूसरी ओर कृषि उत्पाद और भूमि से प्राप्त होने वाले लाभ भी न्यूनतम दर पर पहुँच गए थे। इसलिए इस ब्रिटिश शासन के इस दौर को ब्रिटिश काल में पंचायत राज का अवसान काल भी कहा जा सकता है।

लेकिन अर्थव्यवस्था के नियम के अनुसार अवसान काल के बाद पुनरुधार होता है उसी प्रकार ब्रिटिश काल में ही ग्रामीण पंचायत व्यवस्था में भी सुधार के लक्षण दिखाई देने लगे। यह सुधार तीन अवस्थाओं में दिखाई दे रहे थे। प्रथम बार 1687 से 1881 तक की अवधि में जब स्थानीय संस्थाओं को ब्रिटिश शासन के हित के लिए उपयोगी समझा गया। इसके अंतर्गत शिक्ष, चिकित्सा और सड़कों के सुधार के लिए वित्तीय साधन जुटाने का प्रयास करने का प्रयास किया गया। दूसरा सुधार 1882 में लॉर्ड रिपन के भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त होने पर दिखाई दिया। इस समय हालांकि लॉर्ड कर्ज़न के अनुसार भारतीय जनता शासन करना नहीं जानती इसलिए इनके हाथ में सत्ता नहीं देनी चाहिए, तब भी प्रत्येक प्रांत को अपनी स्थिति और आवशयकतानुसार स्थानीय शासन इकाई की स्थापना करने का सुझाव दिया गया था। इस सुझाव को पंचायती राज के पुनर्जीवन का शुभारंभ माना जाता है। इसी विचार को आधार मानकर 1907 में ब्रिटिश शासन द्वारा एक आयोग की स्थापना की गई जिसका उद्देशय जन सहयोग के लिए ग्रामीण जनता की भागीदारी को बढ़ाना था। उन्होनें कौटिल्य अवधारणा को पुनः अपनाते हुए इस बात को माना कि ग्रामीण पंचायतें दिन-प्रतिदिन के कार्य के साथ ही न्याय संबंधी कार्यों को भी अंजाम दें जिससे कोर्ट-कचहरी पर बढ़ते दबाव को कम करने में मदद मिल सके। लेकिन यह सब सुझाव कागजी महल सिद्ध हुए और इनका असली जामा नहीं पहनाया जा सका।

भारत सरकार अधिनियम 1919:

ब्रिटिश सरकार द्वारा पंचायती राज व्यवस्था में नए रक्त का संचार करने का प्रयास जो 1907 में शुरू किया गया था उसमें 1919 में पहली बार भारत सरकार अधिनियम में शामिल किया गया। लेकिन इसे भी राजनैतिक और प्र्शासनिक हस्तक्षेप के कारण अधिक दूर तक नहीं ले जाया जा सका। लेकिन भारतीय नेताओं ने इस सिरे को हाथ से नहीं जाने दिया और 1922 में देशबंधु चितरंजन दास ने ग्राम पंचायतों को महत्व देने की बात उठाई। इसी बात को 1931 के गोलमेज़ सम्मेलन में गांधी जी ने ग्राम पंचायतों के पुनर्गठन की मांग को पुरजोर तरीके से रखा।

भारत सरकार अधिनियम 1935:

पंचायती राज व्यवस्था में यह अधिनियम एक खुली हवा की तरह प्रतीत होता है। इस अधिनियम में पहली बार भारत में प्रांतीय स्वायतत्ता को स्वीकार करते हुए उसे सांविधानिक रूप प्रदान किया गया। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप समूचे भारत में स्थानीय संस्थाओं के रूप में ग्रामीण पंचायत के अस्तित्व को स्वीकार किया गया। इसके साथ ही इस अधिनियम में जिला बोर्डों को भी अधिक अधिकार देते हुए उनके कार्यक्षेत्र में विस्तार क्या गया। 1935 के अधिनियम में पहली बार मतदाता के अधिकार को लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान की गई। ग्रामीण पंचायत जैसी स्थानीय संस्थाओं को बजट बनाने की भी आज़ादी दी गई।

इस प्रकार कहा जा सकता है की भारत को जमीनी आजादी 1935 के अधिनियम से मिलनी शुरू हो गई थी। इसके बाद निरंतर होने वाले सुधारों में ग्राम पंचायत के अस्तित्व और महत्व को खुले मन से स्वीकार किया गया और आज भारत में 9891 ग्राम पंचायतें, 295 पंचायत समितियां और 33 जिला परिषद् पंचायतीराज व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई हैं।

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