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खिलाफत आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता से ऐसे प्रशस्त हुआ भारत की आज़ादी का मार्ग



जब प्रथम विश्व युद्ध हुआ था, उसमें मित्र राष्ट्र यानी कि ग्रेट ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जापान और इटली के विरुद्ध लड़ने के लिए तुर्की जंग के मैदान में उतरा था। तब मुसलमानों का धार्मिक प्रधान तुर्की के खलीफा को  ही समझा जाता था। इसी दौरान कुछ ऐसी अफवाहों को बल मिलने लगा कि अंग्रेज यानी कि ब्रिटिश सरकार की ओर से तुर्की पर कुछ ऐसे शर्त लादे जा रहे हैं, जो कि तुर्की के लिए बेहद अपमानजनक हैं। ऐसे में मौलाना आजाद, अली बंधु (मौलाना अली व शौकत अली), हकीम अजमल खान एवं हसरत मोहानी के नेतृत्व में इसके खिलाफ एक खिलाफत आंदोलन 1919-20 में शुरू कर दिया गया।

तीन प्रमुख मांगें

खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि

यूं अप्रासंगिक हो गया खिलाफत आंदोलन

खिलाफत आंदोलन के अप्रत्यक्ष प्रभाव

निष्कर्ष

ऐसा कहा जाता है कि खिलाफत आंदोलन ने भारत में सांप्रदायिकता के बीज बो दिये, जो आगे चलकर भारत के विभाजन का कारण बनी। इसके पीछे तर्क दिया जाता है इस आंदोलन के दौरान उपजी धार्मिक चेतना ने मुसलमानों के अंदर भी अपने समुदाय के लिए सोचने की प्रवृत्ति विकसित कर दी। हालांकि, इस तर्क को पूरी तरह से जायज इसलिए नहीं ठहराया जा सकता कि भारत की आज़ादी की लड़ाई को भी मजबूती प्रदान करने के लिए हर वर्ग के लोगों का अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होना जरूरी था। साम्राज्यविरोधी सोच जो इस आंदोलन के फलस्वरूप मुस्लिमों के अंदर पैदा हुई, उसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भी मुस्लिमों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया। तो बताइए, क्या आपको नहीं लगता कि भारत के आज़ाद होने में हिंदुओं के साथ मुसलमानों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा?