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न्यायपालिका के प्रकार



यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी भी देश के प्रशासन एवं व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए सुदृढ़ न्यायपालिका का होना अनिवार्य होता है। किसी देश में एक सामान्य व्यक्ति को कितनी स्वतन्त्रता प्राप्त है, इसका पता उस देश में क्रियाशील न्यायिकव्यवस्था से ही लगता है। भारत को ब्रिटिश दासता से आज़ादी बेशक 1947 में मिल गई थी, लेकिन 26 जनवरी 1950 तक यहाँ कानून और व्यवस्था ब्रिटिश सरकार की ही थी। इसीलिए वास्तविक आज़ादी भारत को तभी मिली जब यहाँ अपना संविधान और कानून व्यवस्था को लागू किया जाना संभव हो सका था।

भारतीय संविधान के माध्यम से ब्रिटिश न्यायिक समिति के स्थान पर नयी न्यायिक संरचना का गठन हुआ था। इसके अनुसार भारत के राष्ट्रपति के द्वारा एक मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति की जाती है जिसे मुख्य न्यायधीश कहा जाता है। भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय जिसे सुप्रीम कोर्ट कहा जाता है शीर्षस्थ मानी जाती है और इसके अधीन अलग-अलग राज्यों में उच्च न्ययायलय या हाई कोर्ट होती हैं। इन सभी हाई कोर्ट के अधीन जिला या डिस्ट्रिक्ट अदालत और उसके बाद निचली या लोअर कोर्ट होती हैं।

भारत में न्यायपालिका के प्रकार:

भारतीय संविधान के अनुसार भारत में न्यायिक व्यवस्था के प्रकार को निम्न प्रकार से दिखाया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायलय :

भारत के सर्वोच्च न्यायलय की स्थापना भारतीय संविधान जिसका अस्तित्व 26 जनवरी 1950 के दिन आया था, के अंतर्गत की गई है। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति भारतीय राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। इसमें मुख्य के साथ ही 30 अन्य न्यायधीश भी होते हैं जो मुख्य न्यायधीश की भांति ही कार्य करते हैं। इन सभी न्यायधीशों का कार्यकाल उनकी 65 वर्ष की आयु तक होता है और इनके अधिकारक्षेत्र में निम्न प्रकार के मामले आते हैं: केंद्र सरकार या राज्य सरकार अथवा राज्य सरकारों के मध्य उत्पन्न हुए मामले;

भारत का शीर्षस्थ न्यायलय होने के कारण यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों के प्रति भी कार्य करता है। यह न्यायलय स्वयं के दिये फैसलों पर पुनः विचार करके समीक्षा भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायलय जरूरत होने पर अपने किसी मामले को किसी उच्च न्यायलय में या निचली अदालत के किसी मामले को किसी अन्य अदालत में हस्तांतरित भी कर सकता है।

उच्च न्यायलय:

भारत में सबसे बड़ी न्ययायिक संस्था, सर्वोच्च न्यायलय के बाद दूसरे नंबर पर उच्च न्यायलय होता है। यह न्यायलय प्रत्येक राज्य में होता है और इस प्रकार समस्त भारत में 24 उच्च न्यायलय माने जाते हैं। इन न्ययालयों का अधिकार क्षेत्र केंद्र शासित राज्य, राज्य या विभिन्न राज्यों के समूह को माना जाता है। सबसे पहली और पुराना उच्च न्यायलय कलकत्ता में माना जाता है जिसकी स्थापना 1862 में ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई थी।

उच्च न्यायलय के विभिन्न अधिकार और शक्तियाँ सामान्य रूप से सर्वोच्च न्यायलय की भांति ही होती हैं लेकिन इनका अधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायलय से भिन्न होता है।

भारत में उच्च न्यायलय के पास नागरिकों के मूल और आधारभूत अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से अपने कार्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति या सरकार को आदेश, निर्देश या अपील जारी करने का अधिकार प्राप्त है। यह अपील या रिट-आदेश प्रत्यक्षीकरण, निषेध, परमादेश, अधिकार-पृच्छा या उत्प्रेशन आदि के रूप में भी हो सकता है। सामान्य रूप से यह आदेश उसी स्थिति में जारी किया जा सकता है जब संबन्धित व्यक्ति या सरकारी प्राधिकरण, उच्च न्यायलय के अधिकार क्षेत्र से बाहर के हों, लेकिन घटना इस न्यायलय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत घटित हुई हो। भारतीय संविधान के अनुसार उच्च न्यायलय के अंतर्गत सभी उच्च न्ययायलय, सर्वोच्च न्यायलय के अंतर्गत नियंत्रित होते हैं।

जिला और निचली अदालत :

भारतीय संविधान के अनुसार प्रत्येक राज्य को अलग-अलग जिलों में बांटा गया है। न्ययायिक प्रक्रिया की दृष्टि से इन जिलों में स्थित न्यायलय को जिला न्यायलय कहा जाता है जिनका नियंत्रण सीधे उच्च न्यायलय के अंतर्गत होता है। जिला न्यायलय का अधिकार क्षेत्र जिला न्यायधीश के अंतर्गत होता है। यह न्यायधीश सिविल एवं दीवानी या आपराधिक मामलों को देखते हैं। आपराधिक मामलों को देखने पर जिला जज को सेशन जज या सत्र न्यायधीश कहा जाता है। महानगरीय जिला अदालत के जज को मेट्रोपोलिटिन सेशन जज कहा जाता है। जिला अदालतें अपने कार्यक्षेत्र में आने वाली निचली अदालतों की देखभाल करती हैं।

जिला न्यायलय के अधीन निचली अदालत होती हैं जहां सिविल मामलों की व्यवस्था देखने वाले अधिकारी जूनियर सिविल जज, मुख्य जूनियर सिविल जज या वरिष्ठ सिविल जज कहलाते हैं। इन अदालतों में सिविल प्रकृति के मामले सेकेंड क्लास कोर्ट मजिस्ट्रेट, फर्स्ट क्लास कोर्ट मजिस्ट्रेट और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत द्वारा देखे जाते हैं।

लोक अदालत:

कानूनी सेवा प्राधिकरण 1987 के अंतर्गत लोक अदलतों को कानूनी और वैधानिक दर्जा दिया गया है। इन अदालतों में वो मामले देखे और सुने जाते हैं जो मुख्य अदालतों में या तो लंबे समय से चल रहे हैं या उन्हें अभी वहाँ दायर किया जाना है। इन अदलतों को कानूनी सेवा प्राधिकरण के अधिनियम 17 के अनुसार आयोजित किया जाता है और इन अदलतों में सुनाये गए फैसलों को वही मान्यता दी जाती है जो दीवानी कोर्ट के सुनाने पर दी जाती है।

फास्ट-ट्रेक कोर्ट:

भारत में जिला और सत्र कोर्ट में लंबे समय से चल रहे मामलों को तीव्र गति से निपटाने के लिए फास्ट-ट्रेक कोर्ट की भी स्थापना की गई है। लेकिन अब इन कोर्ट में महिलाओं और बच्चों से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई भी की जाती है।

किसी भी देश की न्यायपालिका न केवल नागरिकों से जुड़े मामलों का न्याय करती है बल्कि उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का भी काम करती है।