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भारत की गुमनाम महिला स्वंत्रता सेनानी



बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

छायावादी कवित्री “सुभद्रा कुमारी चौहान” के द्वारा रचित ये पंक्तियाँ हमें ‘रानी लक्ष्मीबाई’ के अदम्य साहस और अतुल्य बलिदान की याद दिला देती हैं। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी में जल रही स्वतंत्रता की आग का नेतृत्व किया था। ऐसी ही आग सम्पूर्ण भारत में जल रही थी, इन जल रही ज्वालाओ का नेतृत्व अनेक लक्ष्मीबाईयाँ कर रही थी। आज हम आपको उन गुमनाम लक्ष्मीबाई सरीखी महिला स्वतंत्रता सेनानियों से रूबरू करा रहे हैं। जिनके अतुल्य योगदान के फलस्वरूप आज हम आजादी की हवा में साँस ले रहे हैं। ये वे महिलाये हैं, जिन्होंने समाज, धर्म ,परिवार , निजी जीवन आदि सभी बंधनो को दरकिनार करते हुए। भारत माँ की आजादी का रास्ता चुना और पुरुषो के साथ कंधे से कंधे मिलाकर ब्रिटिश शासन को यह कड़ा सन्देश दिया – मत समझो हमे फूलो की क्यारी, हम हैं की भारत की वीर नारी।

गुमनाम जरूर है पर मिटा नहीं , बलिदान हमारा इस माटी पर।
हमने भी दुश्मन का लहू पीया है , चढ़कर दुश्मन की छाती पर।।

मैडम भीकाजीकामा

मैडम भीकाजी कामा का नाम अपने अक्सर मार्ग तथा इमारतों में लिखा हुआ देखा होगा। आज हम आपको इनके बारे में जानकारी देंगे।

मातंगिनी हाजरा

यह नाम है एक ऐसी वीर नारी का, जिसने अपनी निजी जीवन की पीड़ाओं को देश प्रेम पर समर्पित कर दिया था। मातंगिनी का व्यक्तिगत जीवन कुंठाओ से भरा हुआ था। किन्तु वे एक घड़े के समान बाहर की सारी तपन को सहते हुए , भीतर से सभी को शीतलता ही प्रदान करती रही।महात्मा गाँधी जी के स्वदेशी आंदोलन के समय से ये स्वतंतत्रा आंदोलन से जुड़ गयी। लोगो के बीच मातंगिनी हाजरा “गाँधी बुढ़ी” के नाम से मशहूर थी।

राजकुमारी गुप्ता

दुर्गावती “दुर्गा भाभी”

भारतीय स्वतंतत्रा आंदोलन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया थी, जो देश में हर कोने मे व्याप्त थी। हर कोई उसमे अपने -अपने तरीके से योगदान दे रहा था। ऐसा ही एक योगदान दिया गया दुर्गावती या दुर्गा भाभी के द्वारा।

सुचेता कृपलानी

अरुणा आसिफ अली

प्रीतिलता वादेदार

कल्पना दत्त

लक्ष्मी सहगल

अज़ीज़ुंबाई, होससैनी तथा गौहर जान

तवायफ़ नाम सुनकर अक्सर लोगो का मन घृणा से भर जाता है। लेकिन आज हम आपका तवायफों के एक ऐसे रूप से परिचय कराएँगे , जिससे आपके मन में इनके प्रति सम्मान जाग जायेगा।

चलते चलते

चुप थी मैं खामोश थी ना थी फिक्र मुझे अपने तन के लिए, 
पर ना सह पाई कोई भी जुल्म अपने वतन के लिए, 
मिट गई, जल गई, रूह एक असर के लिए, 
वक्त को थी खबर, जिंदा रहने की,
कुछ कर गुजरने के लिए, चुप थी मैं,
खामोश थी, फिर एक दिन वतन के लिए, 
हो न पाई किसी को खबर, एक खबर के लिए।

क़तरा -क़तरा कर्जदार है हमारा, उन दिवंगत आत्माओ का। न जाने किसने, क्या-क्या अर्पित किया होगा, आजादी की आहुति मे। बस यही विचार मन में लिए हुए, हम अपना जीवन बिताये तो, शायद यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन वीरांगनाओ को।