जब 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई पूरी हो गई, उसी के बाद आंग्ल मराठा युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होनी शुरू हो गई थी। पेशवा माधवराव के 1772 ई. में प्राण त्यागने के बाद उसके छोटे भाई नारायण राव को तो राजगद्दी जरूर हासिल हुई, मगर चाचा रघुनाथ राव उसकी हत्या करवाकर स्वयं पेशवा बन गया। हालांकि, नाना फड़नवीस ने उसे ज्यादा वक्त तक पेशवा नहीं बने रहने दिया और उसकी जगह पेशवा माधवराव के बेटे माधवराव नारायण द्वितीय को 1774 ई. में पेशवा बना दिया। चूंकि, माधवराव नारायण द्वितीय की उम्र बहुत कम थी, ऐसे में बारभाई नामक एक 12 सदस्यीय परिषद का गठन कर दिया गया, जो कि मराठा राज्य की देखरेख के लिए जिम्मेदार थी। वैसे, रघुनाथ राव, जो कि राघोबा के नाम से भी जाना जाता है, उसने पेशवा पद को फिर से हासिल करने के लिए सूरत में अंग्रेजों से एक संधि कर डाली, जिसे कि 1775 ई. की सूरत की संधि के नाम से जानते हैं।
क्या थी सूरत की संधि?
- 7 मार्च, 1775 ई. को राघोबा ने ईस्ट इंडिया कंपनी की बंबई परिषद के साथ एक संधि की जिसके तहत अंग्रेजों ने राघोबा को पेशवा बनाने के लिए 25 हजार सैनिक मदद के तौर पर देने की बात कही।
- वहीं, सैनिकों के लिए खर्च के लिए डेढ़ लाख रुपये महीना राघोबा द्वारा दिया जाना तय हुआ।
1772 ई. से 1784 ई. तक चला प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध
- कर्नल कटिंग की अगुवाई में रघुनाथ राव को अपने साथ लेकर अंग्रेज सेना पूना की ओर बढ़ गई और 18 मई, 1775 को आरस के मैदान में अंग्रेजों व मराठों के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई।
- युद्ध का नतीजा आने से पहले ही युद्ध की वैधता कलकत्ता उच्च परिषद द्वारा नकार दी गई और सूरत की संधि भी अमान्य घोषित कर दी गई।
- कर्नल अप्टन पूना भेज दिये गये और फिर 1 मार्च, 1776 को पूना दरबार के प्रतिनिधि नाना फड़नवीस के साथ अंग्रेजों की एक संधि हो गई, जिसे कि पुरंदर की संधि के नाम से जाना गया। न तो बंबई सरकार और न ही कंपनी के निदेशकों ने कभी पुरंदर संधि को माना। अतः बाद में इसे रद्द करके वापस सूरत की संधि को ही उन्होंने दोबारा स्वीकार कर लिया।
- इसके बाद नवंबर, 1778 में पेशवा के खिलाफ कंपनी की ओर से सेना भेजी गई और तालगांव में 9 जनवरी, 1779 को पेशवा व कंपनी के बीच लड़ाई हुई।
- इस युद्ध में अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी और इसने 1779 ई. में बड़गांव की संधि को जन्म दिया।
बड़गांव की संधि से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें
- बंबई सरकार व पूना दरबार के मध्य हुई इस संधि के तहत 1773 ई. के बाद से अंग्रेजों द्वारा जीते गये सभी मराठा राज्यों को लौटाने, उनके द्वारा राघोबा का पक्ष न लेने, अंग्रेजों की मदद के लिए बंगाल से आने वाली सेना को रोकने और भड़ौच के राज्य का कुछ भाग सिंधिया को दिया जाना तय हुआ।
- इस संधि को अपमानजनक मानते हुए जनरल गोडार्ड व पोफम की अगुवाई में वारेन हेस्टिंग्स की ओर से सेना की दो टुकड़ियां मराठों से लड़ने के लिए भेजी गईं।
- 15 फरवरी, 1780 को गोडार्ड ने अहमदाबाद, जबकि पोफम ने 3 अगस्त, 1781 को ग्वालियर को अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल कर लिया।
- सात वर्षों तक अंग्रेजों व मराठों के बीच चले युद्ध के बाद 17 मई, 1782 ई. को सालबाई की संधि महादजी सिंधिया की मध्यस्थता से हुई।
क्या थी सालबाई की संधि?
- सालसेट व एलिफेंटा द्वीप अंग्रेजों को मिलना, अंग्रेजों का रघुनाथ राव को छोड़ पेशवा द्वारा उसे पेंशन दिया जाना, यमुना नदी के पश्चिम की ओर की पूरी जमीन सिंधिया को मिलना एवं हैदर अली का अर्काट के नवाब से जीती गई जमीन का छोड़ा जाना तय हुआ।
- अगले 20 वर्षों तक अंग्रेजों व मराठों के बीच शांति बने रहने की वजह से सालबाई की संधि को अपातकाल की सफल शांति वार्ता के नाम से भी जाना जाता है।
1803 ई. से 1805 ई. तक चला द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध
- अंग्रेजों की मदद से 1796 ई. में पेशवा बना राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय ने 1800 ई. में नाना फड़णवीस की मौत के बाद मनमानी शुरू कर दी।
- दौलत राव सिंधिया और जसवंत होल्कर के बीच ठन गई। अपने भाई की हत्या होने के बाद जसवंत होल्कर ने 28 अक्टूबर, 1802 ई. को पूना पर हमला बोलकर पेशवा और सिंधिया की सेना को हरा दिया।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय को भागकर बेसिन में शरण लेना पड़ा, जहां उसने 31 दिसंबर, 1802 को अंग्रेजों के साथ एक जहाज पर बेसिन की संधि की।
- अंग्रेजों ने असाई में 23 सितंबर, 1803 को सिंधिया व भोंसले की सेना को हरा दिया। भोंसले को फिर से अमर गांव के युद्ध में भी 29 नवंबर, 1803 को अंग्रेजों ने हरा दिया, जिससे 17 दिसंबर, 1803 को रघुजी भोंसले द्वितीय को अंग्रेजों से देवगांव की संधि करनी पड़ी।
क्या थी देवगांव की संधि?
- अंग्रेजों को भोंसले ने कटक, बालासोर व वर्धा नदी के पश्चिम का इलाका दे दिया और निजाम व पेशवा के साथ भोंसले के झगड़े में मध्यस्थता का अधिकार भी अंग्रेजों को मिल गया।
- नवंबर, 1803 में लासवाड़ी के युद्ध में वेलेजली ने दौलतराम सिंधिया को हराकर 15 दिसंबर, 1803 को ग्वालियर का किला हड़प लिया, जिसकी वजह से 30 दिसंबर, 1803 को अंग्रेजों से सिंधिया को सुर्जी अर्जुनगांव की संधि करनी पड़ी।
सुर्जी अर्जुनगांव की संधि के बारे में
- गंगा-यमुना के बीच के दोआब क्षेत्र, जयपुर व गोहाद के उत्तर के पूरे इलाके, भड़ोंच, अहमदनगर आदि सिंधिया ने अंग्रेजों को दे दिये।
- एक रेजीडेंट भी सिंधिया के दरबार में रख दिया गया।
1817 ई. से 1818 ई. तक चला तीसरा आंग्ल मराठा युद्ध
- पेशवा बाजीराव में असंतोष तीव्र हो गया था। मंत्री त्रियंबकराव दांगलिया, जो अंग्रेजों के एकदम खिलाफ था, उसका प्रभाव भी बहुत बढ़ा हुआ था।
- अंग्रेजों के दोस्त गायकवाड़ के उपमंत्री गंगाधर शास्त्री की हत्या का शक त्रियंबकराव पर आया और पेशवा को अंग्रेजों ने इसके लिए दोषी भी ठहरा दिया। त्रियंबकराव के कैद से भागने पर अंग्रेजों ने पेशवा से कहा कि वे उसे उन्हें सौंप दें, लेकिन ऐसा न होने पर अंग्रेजों और पेशवा के बीच की खाई गहरा गई।
- पेशवा को पूना की संधि के लिए विवश किया गया, लेकिन इसे अपमानजनक मानकर पेशवा ने अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी।
- रेजीडेंसी पर पेशवा का आक्रमण तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध की वजह बना।
- कोरोगांव एवं अश्टी के युद्ध में पेशवा की हार के बाद उसके साथ लॉर्ड हेस्टिंग्स का व्यवहार बेहद कठोर व अपमानजनक रहा।
निष्कर्ष
तीसरे आंग्ल मराठा युद्ध के खत्म होने के बाद संधि के तहत पेशवा का पद समाप्त कर उसे आठ लाख रुपये की वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के समीप बिठुर भेज दिया गया। त्रियंबकराव को भी वाराणसी के पास चुनार के किले में आजीवन कारावास की सजा दे दी गयी। सतारा जैसे छोटे से राज्य में छत्रपति शिवाजी के वंशज को राजा बनाकर अंग्रेजों ने पेशवा की ताकत समाप्त ही कर दी। क्या आपको नहीं लगता कि यदि पेशवा ने थोड़ी और सूझबूझ से काम लिया होता तो अंग्रेजों के सामने इतनी आसानी से उन्हें घुटने नहीं टेकने पड़ते?