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महाजनपद काल – इतिहास से लेकर व्यापार तक



ऐतिहासिक दृष्टि से भारत की सभ्यता सनातन मानी जाती है क्योंकि समस्त विश्व में केवल भारतीय सभ्यता है जिसका क्रमिक विकास लिखित रूप में उपलब्ध है। वैदिक काल से पूर्व और पश्चात भारतीय संस्कृति का पूर्ण विवरण कहीं न कहीं पुस्तकों में उपलब्ध है। इन्हीं पुस्तकों को खोज करने के बाद पता लगता है कि वैदिक काल में जनजाति जो एक समूह में रहते थे, उन्होनें अपने अलग-अलग राज्य सीमाओं को निर्धारित करने का निश्चय किया। इस प्रकार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी निश्चय ने जिन इकाइयों को जन्म दिया उन्हें जनपद या राज्य का नाम दिया गया। बौद्ध ग्रन्थों में इन जनपदों के बारें में बहुत कुछ लिखा गया है।

महाजनपद क्या थे :

महाजनपद शब्द वास्तव में संस्कृत के शब्द ‘महा’ और ‘जनपद’ के संयोग से मिलकर बना है जहां ‘महा’ का अर्थ है ‘बहुत बड़ा’ और ‘जनपद’ का अर्थ है ‘एक जनजाति के पदचिन्ह’। इस प्रकार यह जनपद वर्तमान काल के उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर बिहार तक और हिंदुकुश से लेकर गोदावरी नदी के विस्तार तक फैले हुए थे। इन जनपदो का विवरण रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रन्थों में भी मिलता है।

महजनपद का निर्माण कैसे और किस रूप में हुआ:

भारतीय इतिहास में आर्थिक और राजनैतिक विकास की दृष्टि से ईसापूर्व छठी शताब्दी का समय बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस समय सिंधु घाटी सभ्यता का पतन हो रहा था और भारत में शहरी सभ्यता के उदय के साथ ही बौद्ध और जैन धर्मों का भी आविर्भाव हो रहा था। इस समय में लिखे गए बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अर्ध-बंजारा जनजाति स्वयं को कृषि आधारित समाज में ढालने का प्रयत्न कर रही थी। इसके साथ ही व्यवस्थित राजनैतिक तंत्र और विस्तृत व्यापारिक तंत्र के कारण विभिन्न राज्यों का उदय हुआ और इन्हें व्यक्तिगत रूप से ‘जनपद’ व सामूहिक रूप से ‘महाजनपद’ का नाम दिया गया।

सभी जनपदों के नाम उस स्थान पर बसी क्षत्रिय जाती के आधार पर दिये गए थे। इन जनपदों की सीमाओं का निर्धारन नदियों , जंगलों या पर्वत श्रंखलाओं जैसे हिमालय के आधार पर किया गया था।  इतिहासकारों का इन जनपदों की संख्या को लेकर मतभेद है। जैसे पाणिनी के अनुसार इन निर्मित जनपदों की संख्या 22 है जबकि बौद्ध ग्रन्थों -अंगुतर निकाय, महावस्तु  के अनुसार 16 है। लेकिन एक बात में सभी एकमत हैं कि इन सभी में मगध, कोसल और वत्स महत्वपूर्ण जनपद माने जाते थे।

सभी 16 जनपदों की अपनी एक राजधानी होती थी जिसके लिए एक सुदृढ़ किले का निर्माण किया जाता था। इस किले की देखभाल एक प्रशिक्षित सेना द्वारा किया जाता था। जनपद के मुखिया या शासक द्वारा सेना और प्रशासन के रखरखाव के लिए जनता से कर के माध्यम से धन प्राप्त किया जाता था।

महाजनपद और उनकी तात्कालिक राजधानी इस प्रकार थे :

महाजनपद : राजधानी

1. काशी : वाराणसी :

2. कुरु : इन्द्रप्रस्थ :

3.अंग : चम्पा:

4. महाध : राजगृह या गिरिव्रज :

5. वज्जि : विदेह और मिथिला :

6. मल्ल : कुशावती (कुशीनगर) :

7. चेदि :  शक्तिमती (सोत्थिवती) :

8. वत्स :  कौशाम्बी :

9. कौशल : अयोध्या, साकेत, श्रावस्ती :

10. पांचाल : कांपिल्य और अहिच्छत्र :

11. मत्स्य : विराट नगर :

12 शूरसेन : मथुरा :

13. अश्सक : पोतन या पाटेली :

14. अवन्ती : उज्जयिनी, महिष्मति :

15.गांधार : तक्षशिला :

16. कम्बोज : राजपुर/हाटक :

इनमें से केवल अश्स्क जनपद गोदावरी गोदवरी घाटी में स्थित होने के कारण दक्षिण भारत का हिस्सा था । जबकि शेष महाजनपद नर्मदा घाटी के उत्तर में और वर्तमान उत्तर प्रदेश में स्थित थे। इनमें से काशी, कौशल और मत्स्य जनपद की ख्याति उनके शासन प्राणाली में विभिन्नता होने के कारण शेष से अधिक थी।

महाजनपद काल का समाज:

इस समय का समाज एक आदर्श समाज कहा जा सकता था। इस काल के समाज की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं:

1. विधवा विवाह को सम्मति प्राप्त थी और विधवा को अपने पति की संपत्ति में भी अधिकार प्राप्त था;

2. अनुलोम विवाह प्रथा जिसमें स्त्री निम्न कुल से और पुरुष उच्च कुल से हो को बुरा नहीं माना जाता था;

3. प्रेम विवाह और गंधर्व विवाह को सामाजिक मान्यता थी;

4. पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह को बुरा नहीं माना जाता था;

5. कार्यों के आधार पर जाती प्रथा का आरंभ हो गया था;

6. कृषि कार्यों में कार्य करने के लिए दास प्रथा का भी आरंभ हो गया था;

इस प्रकार कहा जा सकता है कि महाजनपद कालीन समाज कुछ अर्थों में स्त्री को महत्व देने वाला एक आदर्श समाज माना जाता था।

महाजनपदों की शासकीय व्यवस्था:

सभी 16 महाजनपदों में राजतंत्र और लोकतन्त्र की शासन प्रणाली थी। इनमें से कोशल, अवनति, मगध और वत्स में राजतंत्र की शक्तिशाली व्यवस्था थी। शेष महाजनपद में लोकतन्त्र के आधार पर राज्य प्रमुख का निर्वाचन होता था। महजनपदों की शासन व्यवस्था के मुख्य विशेषताएँ थीं:

1. कुछ जनपद लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गई महासभा के द्वारा शासित होते थे।

2. राजतंत्रीय विधि के अनुसार भी कुछ जनपदों में शासन राज्य प्रमुख के द्वारा भी होता था।

3. जनपदों के निर्माण के साथ ही नगरीकरण व्यवस्था का आरंभ हो गया था।

4. समाज में कार्यों के आधार पर विभाजन होने के कारण वर्ण व्यवस्था लागू हो गई थी।

5. राज्यों की आय के लिए कर निर्धारन व्यवस्था का भी विधान शुरू हो गया था।

6. राजा व प्रजा, ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्मग्रन्थों में बनाए गए नियमों के अनुसार चलते थे।

7. जनपद के शासक अपने अधीन व्यापारियों, किसानों और शिल्पकारों से कर के साथ ही भेंट और उपहार भी स्वीकार किया करते थे।

8. लगभग हर जनपद का शासक अपने पड़ोसी राज्य के साथ युद्ध करके अपनी सीमा व सम्पत्ति का विस्तार किया करता था।

9. जनपदों में गाँव, प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी और उसके ऊपर खटीक व द्रोणमुख आते थे।

10. स्थायी सेना की नियुक्ति के माध्यम से राजतंत्र को मजबूत किया गया था। सेना का काम न केवल युद्धों में भाग लेना था बल्कि जनपद पर नियम व कानून की व्यवस्था देखना भी था।

महाजनपदों की अर्थव्यवस्था और व्यापार: 

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार उत्तरवैदिक काल में समाज में लौह धातु का प्रयोग बड़े रूप में  किया जाने लगा था इस नवीन ज्ञान के कारण जनमानस की जीवनशैली में आमूल परिवर्तन हो गया था। इस समय समाज में लोगों की जीवन यापन करने के लिए कृषि, उद्ध्योग, व्यापार और वाणिज्य आदि का विकास हो गया था। इस कारण समाज में पुरातन जनजाति व्यवस्था में छेद हो गया था और इसके स्थान पर छोटे-छोटे समूहों की जगह बड़े जनपदों का निर्माण होने लगा | यही जनपद ईसा पूर्व छठी शताब्दी के शुरू होने तक महाजनपदों के रूप में सुदृढ़ हो गए थे |

लौह तकनीक के विकास ने बड़े-बड़े जलयान का निर्माण शुरू कर दिया और इसके साथ ही विदेशी व्यापार भी शुरू हो गया था। इस समय लोग अपनी सीमाओं को जल माध्यम से पार करके मलेशिया, इंडोएन्शिया, औस्ट्रेलिया, जापान और कोरिया आदि देशों तक पहुँच गए थे। परिणामस्वरूप व्यापार के साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी शुरू हो गया था। इस प्रकार महाजनपदकालीन अर्थव्यवस्था में द्वितीय नगरीकरण के विकास पर बल दिया जाने लगा और इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं:

1. समाज में लौह धातु का व्यपाक प्रयोग शुरू हो चुका था;

2. कृषि क्षेत्र में फसल उगाने के लिए अन्य व विस्तृत क्षेत्र खोजे जाने लगे;

3. नए-नए नगरों का जन्म एवं विकास होने के कारण देशी-विदेशी व्यापार का क्षेत्र बढ़ने लगा;

4. समाज का वर्गिकरण होने के कारण शिल्प कला का विकास हुआ और इसके परिणामस्वरूप यह एक नए उदद्योग के रूप में विकसित होने लगा;

5. करों को शासन का अनिवार्य हिस्सा बना कर उसे राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत बना दिया गया;

6. दैनिक और व्यापारीक लेन-देन के साथ ही वेतन के भुगतान के लिए सिक्कों का चलन शुरू हो गया था; इस समय के सिक्कों को निष्क, स्वर्ण, पाद, माशक, काकिनी आदि नाम से जाना जाता था।

7. सिक्कों के लिए तांबे और विभिन्न धातु का प्रयोग होता था;

8. कृषि कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए खाद और सिंचाई का भरपूर प्रयोग किया जाने लगा;

9. इस समय व्यापारिक फसलें जैसे कपास, गन्ना, ज्वार के साथ अन्य जैसे धान, जौ, दलहन आदि का भी उत्पादन शुरू हो गया था;

10. कृषि कार्यों के अलावा पशु पालन को भी अब और अधिक व्यवस्थित रूप से किया जाने लगा;

11. गांवों में कृषि के अलावा रस्सी, टोकरी और चटाई बनाने के काम से भी आय अर्जन का प्रयास शुरू हो गया था;

12. कृषि उपकरणों को विकसित करने का प्रयास किया जाने लगा;

महाजनपद का धार्मिक विकास:

महाजनपद काल में बौद्ध एवं जैन धर्म का विकास शुरू हो गया था और इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण और पुरोहित वाद कमजोर हो गए थे। दरअसल 16 में से आठ जनपद , कुरु (मेरठ), पांचाल (बरेली), शूरसेन (मथुरा), वत्स (इलाहाबाद), कोशल (अवध), मल्ल (देवरिया), काशी (वाराणसी) और चेदी (बुंदेलखंड) वर्तमान उत्तरप्रदेश में स्थित थे। इन सभी जनपदों में ब्राह्मण संप्रदाय का बोल बाला था। ये सभी जनपद भाग्य को सर्वोपरि मानते थे और इनको विशेष संरक्षण बिंबसार और अशोक महान की ओर से मिला था।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में कबीला पद्धति के बिखराव के साथ ही वर्ण आधारित समाज का जन्म हो गया था। यह समय द्वितीय नगरीकरण का था जब जटिल सामाजिक व्यवस्था का विस्तार हो रहा था। शासन के लिए प्रमुख रूप से राजतंत्र और कुछ क्षेत्रों में गणतन्त्र भी था। राज्य की आय का प्रमुख साधन कर थे और इसका उपयोग सैन्य बल के विकास और रखरखाव के लिए मुख्य रूप से किया जाता था। देशी और विदेशी व्यापार का भी समुचित विस्तार हो रहा था।