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शोषण के खिलाफ उठी आवाज़ की पहचान हैं ये किसान और आदिवासी आंदोलन



बात जब भारत की आज़ादी के आंदोलन की होती है तो उसमें 18वीं और 19वीं सदी के किसानों और आदिवासियों के आंदालनों को भी याद किया जाता है। ऐसा इसलिए कि किसान और आदिवासी भी स्वाधीनता आंदोलन में कहीं भी पीछे नहीं थे। अन्याय और शोषण के खिलाफ उन्होंने भी पुरजोर तरीके से अपना आवाज बुलंद की। इसका गवाह वे बहुत से किसान और आदिवासी आंदोलन हैं, जिन्होंने समय-समय पर अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाने का काम किया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त करने में इनका भी योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा।

रंगपुर ढींग विद्रोह (1783)

कोल विद्रोह (1832)

मोपला विद्रोह (1841-1921)

संथाल हूल विद्रोह (1855)

नील आंदोलन (1859-60)

दक्कन विद्रोह (1875)

मुंडा उलगुलान विद्रोह (1899-1900)

निष्कर्ष:

इस तरह से 18वीं और 19वीं सदी में किसानों और आदिवासियों के जितने भी आंदोलन हुए, सभी के केंद्र में मुख्य रूप से अन्याय और शोषण ही थे। जमीदारों, साहूकारों और ब्रिटिश अधिकारियों की ओर से किसानों और आदिवासियों पर किए जाने वाले अत्याचार के फलस्वरुप हुए इन विद्रोहों और आंदोलनों ने किसानों और आदिवासियों के भी संगठित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे कि भारत की आजादी का रास्ता साफ हो सका। इन आंदोलनों के बारे में पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि आजादी के बाद जो देश में किसान आंदोलन हुए हैं, वे आजादी के पूर्व हुए इन आंदोलनों से किन मायनों में अलग हैं?