बात जब भारत की आज़ादी के आंदोलन की होती है तो उसमें 18वीं और 19वीं सदी के किसानों और आदिवासियों के आंदालनों को भी याद किया जाता है। ऐसा इसलिए कि किसान और आदिवासी भी स्वाधीनता आंदोलन में कहीं भी पीछे नहीं थे। अन्याय और शोषण के खिलाफ उन्होंने भी पुरजोर तरीके से अपना आवाज बुलंद की। इसका गवाह वे बहुत से किसान और आदिवासी आंदोलन हैं, जिन्होंने समय-समय पर अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाने का काम किया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त करने में इनका भी योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा।
रंगपुर ढींग विद्रोह (1783)
- अंग्रेजों का अत्याचार बंगाल के उत्तरी जिलों में बहुत बढ़ गया था। मालगुजारी अधिक मात्रा में वसूली जा रही थी। साथ ही अवैध कर भी लगा दिए गए थे।
- रंगपुर और दिनाजपुर जिले के गांवों में देवी सिंह और गंगागोविंद सिंह ने कंपनी की ओर से कर वसूली के लिए आतंक का साम्राज्य फैला रखा था।
- ऐसे में किसानों ने कंपनी की सरकार को एक प्रार्थना पत्र भेजा। इस पर जब सुनवाई नहीं हुई तो किसानों ने अपने आप को संगठित कर के अस्त्र-शस्त्र जमा किए। उन्होंने अपनी सेना तैयार की। उन्होंने अपना एक प्रमुख भी चुना।
- इस तरह से उन्होंने कचहरी और अनाज के गोदाम पर हमला किया। कैदियों को उन्होंने छुड़ा लिया। अनाज लूट लिए। विद्रोहियों ने अपने आंदोलन को पूरी तरह से उचित ठहराते हुए अपने नेता को नवाब का नाम दिया। इसके अलावा आंदोलन के खर्च के लिए उन्होंने आपस में कर भी जमा किए।
- हालांकि, देवी सिंह की अपील करने पर वरन हेस्टिंग्स के शासनकाल में कंपनी सरकार की ओर से विद्रोह का दमन तो किया गया, मगर मालगुजारी-ठेका की जो व्यवस्था थी, उसमें कंपनी सरकार की ओर से कई तरह के सुधार भी किए गए।
कोल विद्रोह (1832)
- छोटानागपुर, सिंहभूम, मानभूम और पलामू में यह विद्रोह बड़ी तेजी से फैला था। जिस तरह से अंग्रेजों का शोषण बढ़ा था, जमीदार किसानों को परेशान कर रहे थे। उन पर अवांछित करें लाद रहे थे, इन सबकी वजह से किसान और आदिवासी खून के आंसू रोने के लिए मजबूर हो गए थे।
- इनसे मनमानी तरीके से कर वसूले जा रहे थे। कर न चुकाने पर काफी अत्याचार इन पर किया जाता थाऔर इनकी जमीन दीकुओं यानी कि बाहरी लोगों को भी दे दी जाती थी।
- ऐसे में विद्रोह का स्वर पनपने लगा। किसानों और आदिवासियों के बीच फैला असंतोष ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा। दीकू, अंग्रेज और समर्थित जमीदार इसकी चपेट में आ गए। बुधू भगत सिंह, सिंग राय और सूर्य मुंडा ने कोल विद्रोह का नेतृत्व किया।
- अंग्रेजी सेना की ओर से कमान कैप्टन विलिंक्सन ने संभाली।
- इस विद्रोह के दौरान बुधू भगत करीब डेढ़ सौ सहयोगियों के साथ मारा गया। करीब पांच वर्षों तक चले विद्रोह में 1000 से भी अधिक विद्रोही मारे गए।
- कंपनी भी इस विद्रोह के बाद सहम गई और उसने प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए रेगुलेशन XIII नाम से एक नया कानून बनाया। रामगढ़ जिले को विभाजित करके वहां नए प्रशासनिक क्षेत्र गठित किए गए।
- कोल विद्रोह के बारे में कहा जा सकता है कि प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार की इसने नीव रखने का काम किया।
मोपला विद्रोह (1841-1921)
- मोपला को मालाबार विद्रोह भी इसलिए कहा जाता है, क्योंकि मद्रास प्रेसिडेंसी के मालाबार में ही यह विद्रोह हुआ था। दरअसल, मालाबार में जो मुस्लिम बहुसंख्यक थे वे या तो किसान या फिर मजदूर थे।
- ये चाय और कॉफी बागान में काम करते थे। इन्हें मोपला कहा जाता था। अशिक्षित होने के कारण इनमें धार्मिक कट्टरता भी बहुत थी।
- ब्रिटिश हुकूमत, हिंदू जमींदारों और साहूकारों द्वारा इन्हें बहुत प्रताड़ित किया जा रहा था। ऐसे में इनका आक्रोश फूटने लगा। वर्ष 1841 से 1857 तक में इन्होंने 20 से भी अधिक बार आंदोलन कर दिए। इसके बाद 1882 से 1885, फिर 1896 और 1921 में भी मोपला विद्रोह सामने आया।
- इन्होंने जमीदारों पर हमला बोला। लोगों की हत्या की। मंदिरों की संपत्ति भी इन्होंने लूट ली। बहुत से साहूकारों को मार दिया।
- इस तरीके से मोपला विद्रोह को नियंत्रण में लेने के लिए ब्रिटिश सरकार को सेना की भी मदद लेनी पड़ी।
- विद्रोहियों के मन में यह बात घर कर गई थी कि आंदोलन में उनकी मौत नहीं हो रही है, बल्कि वे शहादत दे रहे हैं, जिसके जरिए उन्हें जन्नत नसीब होगी।
- संगठनात्मक कमजोरियों के कारण आखिरकार इस विद्रोह को सरकार बलपूर्वक दबाने में सफल रही।
संथाल हूल विद्रोह (1855)
- सिंहभूम, मानभूम, बड़ाभूम मिदनापुर और हजारीबाग जैसे इलाकों में जब अंग्रेजों की ओर से स्थाई बंदोबस्त कर दिया गया तो संथालों को राजमहल की पहाड़ियों में शरण लेना पड़ा।
- वहां उन्होंने मेहनत करके जमीन को कृषि योग्य बना दिया और जीवन यापन करने लगे।
- अंग्रेजों की नजर आखिरकार वहां भी पड़ गई और उन्होंने धीरे-धीरे जमीन को हथिया कर जमीदारों, महाजनों, साहूकारों और सरकारी कर्मचारियों के हवाले कर दिया।
- इन्होंने यहां रहने वाले गरीब किसानों और आदिवासियों पर कर्ज़ का भारी-भरकम बोझ लाद दिया। उनसे 50 से 500% तक सूद वसूल किया जाने लगा।
- इसके अलावा उन पर अत्याचार भी होने लगे। उनकी संपत्ति लूट ली गई। आदिवासी स्त्रियों की इज्जत लूटी गई।
- ऐसे में चार भाइयों सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया।
- क्रांति इतनी ज्यादा फैल गई कि अब अंग्रेजों को इसके दमन की योजना बनानी ही पड़ी।
- आखिरकार 10 जुलाई, 1855 को चांद और भैरव अंग्रेजों की गोली का शिकार बन गए।
- बाद में सिद्धू और कानून के कुछ धोखेबाज साथियों ने उन्हें भी पकड़वा दिया। दोनों भाइयों को 26 जुलाई, 1855 भगनाडीह गांव में सबके सामने पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई।
- संथाल हूल आंदोलन ने साबित कर दिया कि निरीह जनता ज्यादा दिनों तक अत्याचार नहीं सह सकती थी।
नील आंदोलन (1859-60)
- यूरोपीय बाजार की मांगों को पूरा करने के लिए भारत में नील उत्पादकों ने किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाया और गलत तरीके से करार करवा कर उन्हें नील की खेती करने पर मजबूर किया।
- बाद में उन्होंने बलपूर्वक किसानों से नील की खेती करवाना शुरू कर दिया। ऐसे में जिस जमीन पर चावल की अच्छी खेती हो सकती थी, वहां भी केवल नील का ही उत्पादन हो रहा था।
- इसी बीच कलारोवा के डिप्टी मजिस्ट्रेट ने एक सरकारी आदेश को गलत समझ कर यह आदेश दे दिया कि किसान अपनी इच्छा के अनुसार अपनी जमीन पर उत्पादन कर सकते हैं।
- इसके लिए ढेर सारी अर्जियां किसानों की ओर से आ गयीं, लेकिन इस पर काम ना होने की स्थिति में दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास की अगुवाई में नदिया जिले के गोविंदपुर गांव में किसानों का जबरदस्त विद्रोह हो गया।
- इसे देखते हुए बाकी इलाकों में भी नील उत्पादन का विरोध जोर पकड़ने लगा। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने भी पत्र-पत्रिकाओं में लिख कर किसानों का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस तरीके से नील उत्पादन ठप पड़ गया।
- आखिरकार सरकार को भी आयोग का गठन कर किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए विवश होना पड़ा।
दक्कन विद्रोह (1875)
- पश्चिमी भारत के ढक्कन इलाके में बाहर से आए हुए महाजनों और साहूकारों, जिनमें मारवाड़ी और गुजराती प्रमुख थे, उनकी तरफ से लगाए गए भारी करों से किसान परेशान हो गए थे।
- वर्ष 1864 में अमेरिकी गृहयुद्ध समाप्त होने से कपास की कीमतें गिरने से और वर्ष 1867 में ब्रिटिश सरकार की ओर से भू-राजस्व की दरों में 50 फ़ीसदी की बढ़ोतरी के फैसले से किसानों की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से चरमरा गई।
- पहले तो उन्होंने महाजनों और साहूकारों का सामाजिक बहिष्कार किया, जिसके तहत धोबियों, नाईयों और चर्मकारों ने उनकी हर तरह से सेवा करने से मना कर दिया।
- बाद में आंदोलन हिंसक रूप लेते हुए सोलापुर, अहमदनगर, पूना और सतारा में भी फैल गया।
- अंग्रेजी सरकार ने 1879 तक आंदोलन का पूरी तरह से दमन कर दिया।
मुंडा उलगुलान विद्रोह (1899-1900)
- बिरसा मुंडा की अगुवाई में 19वीं शताब्दी के आखिरी दशक में जो मुंडा विद्रोह हुआ, उसे सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
- इसे उलगुलान विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। उलगुलान का मतलब होता है बड़ी हलचल। – बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध जागरुक बनाया।
- वर्ष 1898 में मुंडाओं की डोम्बरी पहाड़ियों पर एक विशाल सभा में विद्रोह की रणनीति तैयार की गई थी।
- फिर 24 दिसंबर, 1899 को अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया गया। विद्रोह 5 जनवरी, 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में फैल गया।
- हालांकि 9 जनवरी, 1900 को सैकड़ों की तादाद में मुंडाओं ने अपनी शहादत दे दी और विद्रोह समाप्त हो गया।
- बाद में बिरसा मुंडा भी 3 मार्च, 1900 को एक धोखेबाज की मुखबिरी के बाद पकड़े गए और जेल में हैजा के कारण 9 जून को उनकी मृत्यु हो गई।
- बिरसा मुंडा को आदिवासी आज भगवान की तरह पूजते हैं।
निष्कर्ष:
इस तरह से 18वीं और 19वीं सदी में किसानों और आदिवासियों के जितने भी आंदोलन हुए, सभी के केंद्र में मुख्य रूप से अन्याय और शोषण ही थे। जमीदारों, साहूकारों और ब्रिटिश अधिकारियों की ओर से किसानों और आदिवासियों पर किए जाने वाले अत्याचार के फलस्वरुप हुए इन विद्रोहों और आंदोलनों ने किसानों और आदिवासियों के भी संगठित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे कि भारत की आजादी का रास्ता साफ हो सका। इन आंदोलनों के बारे में पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि आजादी के बाद जो देश में किसान आंदोलन हुए हैं, वे आजादी के पूर्व हुए इन आंदोलनों से किन मायनों में अलग हैं?