वर्ष 1947 में आजादी प्राप्त होने के उपरांत भारत भी स्वायत्त देशों के समूह में शामिल हो गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का महत्व बढ़ा और अन्य देशों के साथ संबंध भी विकसित करने की दिशा में तेजी से काम करने की जरूरत महसूस हुई। चूंकि विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में ही आजाद भारत का जन्म हुआ था, ऐसे में यह जरूरी था कि भारत की जो विदेश नीति बने उसमें सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान करने और शांति स्थापित करने का लक्ष्य तो शामिल हो ही, साथ में अपनी सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सके।
नेहरू की विदेश नीति
- देश के प्रथम प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ पंडित जवाहर लाल नेहरू विदेश मंत्री भी थे। भारत की विदेश नीति के निर्माण और इसके क्रियान्वयन तक पर उनका खासा प्रभाव रहा।
- कड़े यत्नों से जो संप्रभुता हासिल हुई उसे अक्षुण्ण बनाये रखना, देश की अखंडता को विखंडित न होने देना और आर्थिक विकास की गति में तेजी लाना नेहरू की विदेश नीति के तीन प्रमुख उद्देश्य रहे थे।
- उस वक्त डाॅ भीमराव आंबेडकर सहित भारतीय जनसंघ एवं स्वतंत्र पार्टी लोकतंत्र के हिमायती के रूप में देखे जा रहे अमेरिका के साथ भारत की नजदीकी बढ़ाने के पक्ष में थी, मगर नेहरू के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था।
गुट निरपेक्षता की नीति
- नेहरू ने भारत के गुटनिरपेक्ष रहने की वकालत की और दो खेमों यानी कि अमेरिका और सोवियत संघ से समाद दूरी बनाये रखने का निश्चय किया।
- शीतयुद्ध जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शुरू हुआ तो अमेरिका ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) बना लिया, जबकि वारसा पैक्ट के नाम से संधि संगठन सोवियत संघ ने भी बना लिया था।
- नेहरू के नेतृत्व में भारत गुटनिरपेक्ष तो जरूर बना रहा, मगर कुछ मौकों पर वह संतुलन बनाये रखने में नाकाम भी रहा। उदाहरण के लिए स्वेज नहर को लेकर मिस्र पर ब्रिटेन के आक्रमण का जो दुनियाभर में विरोध हुआ, भारत ने उसका नेतृत्व तो किया, मगर जब सोवियत संघ ने हंगरी पर धावा बोला, तो भारत इसकी सार्वजनिक तौर पर निंदा करने से पीछे हट गया।
- गुटनिरपेक्षता की नीति के बारे में विकासशील देशों को आश्वस्त करने के नेहरू के प्रयासों को तब बड़ा झटका लगा, जब पाकिस्तान अमेरिका की अगुवाई वाले सैन्य-गठबंधन का हिस्सा बन गया। वैसे, सोवियत संघ की ओर भारत के झुकाव से अमेरिका के साथ इसके संबंध में कटुता आ गई।
अफ्रीका और एशिया की एकता
- नेहरू दुनिया के मामलों में नहीं तो कम-से-कम एशिया में भारत की भूमिका को नेतृत्व वाली बनाने की कोशिशों में जुटे थे। इसलिए अपनी विदेश नीति के तहत उन्होंने एशिया और अफ्रीका के नये आजाद हुए देशों के साथ भारत के संबंधों को मजबूत बनाने के लिए प्रयास करने शुरू कर दिये।
- भारत को आजादी मिलने के पांच माह पूर्व ही मार्च, 1947 में नेहरू ने एशियाई संबंध सम्मेलन यानी कि एशियन रिलेशंस काॅन्फ्रेंस का भी आयोजन कर लिया था।
- इंडोनेशिया का आजाद कराने में भारत ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसकी आजादी का समर्थन करते हुए वर्ष 1949 में भारत की ओर से एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का भी आयोजन किया गया।
- नेहरू के नेतृत्व में भारत ने दक्षिण अफ्रीका मे जारी रंगभेद नीति का भी जमकर विरोध किया।
- वर्ष 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग शहर में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन हुआ, जिसमें दोनों महाद्वीपों के नये आजाद हुए देश शामिल हुए। कह सकते हैं कि यहीं से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ गई।
- पंडित नेहरू की वर्ष 1961 के सितंबर में बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन आयोजित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही।
भारत-चीन संबंध
- वर्ष 1949 में चीनी क्रांति के बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने वाले अग्रणी देशों में भारत भी शामिल था।
- सरदार वल्लभभाई पटेल की चीन को लेकर आशंका के विपरीत नेहरू का चीन के प्रति खास झुकाव रहा और 29 अप्रैल, 1954 को नेहरू एवं चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई की ओर से संयुक्त रूप से पंचशील यानी कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांतों की घोषणा कर दी गई।
- बाद में चीन के साथ भारत के रिश्तों में खटास आई और 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा।
- इस दौरान नेहरू को निंदा इसलिए झेलनी पड़ी कि वे समय रहते चीन के इरादों को भांपने में नाकाम रहे और सैन्य तैयारी भी ठीक से नहीं कर सके।
भारत-पाकिस्तान संबंध
- बंटवारे के ठीक बाद से ही भारत-पाकिस्तान संबंध बेहद कटु हो गये और सीमा पर तो दोनों देशों की सेनाओं के बीच युद्ध चलता रहा। यह अलग बात रही कि लंबे समय तक यह पूर्णव्यापी युद्ध में तब्दील नहीं हुआ।
- मामला बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ के पास चला गया।
- संघर्ष के बावजूद दोनों देशों की सरकारों ने आपस में सहयोगात्मक संबंध बनाने की कोशिश की।
- वर्ष 1960 में नेहरू और जनरल अयूब खान ने सिंधु नदी जल संधि पर हस्ताक्षर करके लंबे विवाद को सुलझा लिया।
परमाणु नीति
- भले ही भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया, मगर यह नेहरू के 1940 के दशक में आधुनिक भारत के निर्माण के लिए विज्ञान व प्रौद्योगिकी पर जताये गये विश्वास का ही नतीजा था।
- परमाणु कार्यक्रम भी नेहरू की औद्योगीकरण की नीति का एक महत्वपूर्ण घटक था। यह अलग बात थी कि परमाणु हथियारों के नेहरू बड़े खिलाफ थे।
निष्कर्ष
भारत की विदेश नीति को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सही दिशा देने में नेहरू के योगदान को भुलाया तो नहीं जा सकता, मगर चीन को समझ पाने में नेहरू की विफलता, कश्मीर व पाकिस्तान के मुद्दे पर ठोस कदम न उठा पाने और परमाणु कार्यक्रम के विरोध के कारण नेहरू कई बार आलोचको के निशाने पर भी आ जाते हैं। फिर भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाने में नेहरू की विदेश नीति के योगदान को कभी भी कम नहीं आंका जा सकता। क्या आप बता सकते हैं कि नेहरू की विदेश नीति से आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति कैसे भिन्न है?